मैडम भीखाजी कामा | मादाम भीकाजी कामा | मैडम भीकाजी कामा फ्लैग होस्टिंग | Bhikaiji Cama | madam bhikaji cama

मादाम भीकाजी कामा | Bhikaiji Cama

आज से करीब १३८ साल पहले हमारे देश में एक बहादुर और क्रांतिकारी स्त्री का जन्म हुआ, जिसने सर्वप्रथम भारत का झंडा विदेश में फहराया था। इस वीरांगना का नाम था मादाम भीकाजी कामा।

Bhikaiji%2BCama

मादाम भीकाजी कामा का जन्म


मुंबई में २४ सितंबर १८६१ को एक पारसी परिवार में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम सोराबजी फरामजी पटेल और माता का नाम जीजीबाई पटेल था। मुंबई के अलेग्जैंडरिया पारसी गर्ल्स हाई स्कूल में उन्होंने शिक्षा पाई थी।

वह जब २४ साल की थीं, तब १८८५ में पहली बार इंडियन नेशनल कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। भीखाईजी उसमें गई थीं। तब से उन्हें देश-सेवा का रंग लग गया।

मादाम भीकाजी कामा का विवाह


शादी करने की इनकी बिल्कुल इच्छा नहीं थी, पर माता-पिता की इच्छा के कारण उनको शादी करनी पड़ी। मुंबई के एक धनी वकील रुस्तमजी कामा के साथ इनकी शादी हुई। परंतु विवाहित जीवन उनको अच्छा नहीं लगा, क्योंकि उन्हें तो स्त्री-समाज की और देश-सेवा की धुन थी। पति के साथ उनकी न बनी।

मादाम भीकाजी कामा का स्वतन्त्रता आंदोलन मे शामिल होना


गुलाम देश को स्वतंत्र कराने की इच्छा और उसके लिए सतत मेहनत, यही उनके जीवन का ध्येय बन गया। ४० वर्ष की आयु में वह सख्त बीमार हुई। पैसा भी था और शिक्षा भी थी। अपना इलाज कराने के लिए वह इंग्लैड गई। आपरेशन के बाद कुछ दिन आराम किया, जिससे उनका स्वास्थ्य सुधर गया।

उन्हीं दिनों इंग्लैंड में बैरिस्टर श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ मादाम कामा की मुलाकात हुई। वह महान क्रांतिकारी एवं देशभक्त थे। उन्होंने इंग्लैंड में एक संस्था की स्थापना की थी। इस संस्था के उद्देश्य थे – भारतवासियों को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित करना।

भारत से अंग्रेजों को कैसे निकाल बाहर किया जाए, बम कैसे बनाएं, पिस्तौल कैसे बनानी और चलानी चाहिए और फिर यह सब सामान तैयार करके अंग्रेजों का सामना करने के लिए चुपके से भारत कैसे भेजा जाए, यही सब सोच-विचार चलता था। जो कोई भारत से इंग्लैंड पढने के लिए जाता, उसे संस्था में शामिल करने की चेष्टा की जाती थी। जोशीले भाषण द्वारा सबको जागृत करना, भारत लौटकर तोड़-फोड़कर, अंग्रेजों को परेशान करना, यह सब संस्था में सिखाया जाता था। भीखाईजी को यह संस्था बहुत पसंद आई और वह भी इसमें शामिल हो गई। श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ इन्होंने बहुत काम किया। बड़े जोशीले और जोरदार भाषण किए – अपने देश में अपना ही राज होना चाहिए, अपने देश में अपनी ही सरकार होनी चाहिए।

एक दिन की बात है। लंदन के हाइड पार्क नामक जगह में उन्होंने बडा जोरदार भाषण किया। उसमें उन्होंने बताया कि भारत में अंग्रेज कैसे-कैसे जुल्म करते हैं । उन्होंने उपस्थित अंग्रेज जनता से अपील की कि ऐसे जुल्म बंद कराए जाने चाहिए। भीखाईजी के भाषणों से अंग्रेज जनता हैरान रह गई। उसकी आंखें खुल गई कि भारत में अंग्रेज कैसे-कैसे अत्याचार कर रहे है। उनके भाषणों से अंग्रेज सरकार भी हिल उठी। सरकार ने भी भीखाईजी को पकड़कर जेल में बंद करने का इरादा किया। इस बात का पता भीखाईजी को पहले ही लग गया। वह चुपचाप लंदन से पेरिस चली गई।

पेरिस में कई पढ़े-लिखे और देशभक्त भारतीयों के साथ इनकी भेंट हुई, जैसे-लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, शापुरजी सकलातवाला, मुकुंद सरदेसाई और वीरेंद्र चट्टोपाध्याय (स्व. सरोजिनी नायडू के भाई)। इन सबके साथ भीखाईजी की खूब दोस्ती हुई। वहां पर ही वह मादाम भीकाजी कामा के नाम से प्रसिद्ध हुई। फिर जेनेवा से १९०५ में इन्होंने वंदेमातरम् नामक साप्ताहिक अखबार शुरू किया, जिसमें भारत में अंग्रेजों के अत्याचारों के बारे में लेख छपते थे, ताकि युरोप के लोगों को भी पता चले कि भारत में अंग्रेज भारतवासियों से कितना बुरा बर्ताव करते है।

१९०७ में वह अमरीका गई और वहां भी भारत की स्वतंत्रता के लिए भाषण देती रहीं। मादाम भीकाजी कामा जर्मनी, स्काटलैंड, पेरिस, लंदन, न्यूयार्क घूमीं। वह जिस देश में भी जातीं, वहां की भाषा सीख जाती थीं और वहां के लोगों के साथ हिल-मिल जाती थीं और सब जगह अंग्रेजों के खिलाफ जोश से भरे भाषण देती थी। इसी कारण अंग्रेजों ने उन्हें भारत लौटने की अनुमति नहीं दी।

मादाम भीकाजी कामा के भाषण


अपने भाषण और लेखों में वह कहती थी, “ देश-बधुओ! अपने देश में अपनी स्थिति का ख्याल करो। रुस में देशभक्ति करने वाले वीर माने जाते हैं। अग्रेज भी उन्हें देशभक्त मानते हैं और वही अंग्रेज हमें देशद्रोही और गुनहगार समझकर सजा देते हैं। यह किसलिए? ऐसा भेदभाव क्यो ? जुल्म, जुल्म ही है। विदेशों शासन का सामना करना ही सच्ची देशभक्ति है। गुलाम जीवन बेकार होता है। दोस्तो! सभी तरह का भय छोड़ दो। अब सभाएं करने और भाषण देने का समय नहीं है। अब तो काम में जुट जाओ | हम तो करोड़ों है। हम अग्रेजों का मुकाबला कर सकते हैं, स्वाधीनता की कीमत हमें चुकानी होगी कीमत चुकाए बगैर कौन-सा देश आजाद हुआ, ईश्वर की मेहरबानी है कि हममें जागृति आ चुकी है। जुल्म सह लेना तो एक पाप है। हमें जुल्म वालों का सामना करना ही चाहिए।“

मादाम भीकाजी कामा का राष्ट्रध्वज तैयार करना


सन् १९०८ में जर्मनी में भिन्न-भिन्न देशों के एक हजार समाजवादियों की परिषद हुई। भारत की प्रतिनिधि बनकर मादाम भीकाजी कामा जर्मनी गई। वहां परिषद में उन्होंने बताया कि अंग्रेज़ सरकार भारत में कैसे जुल्म और अन्याय करती है। वहां सब देशों के राष्ट्रीय ध्वज फहराए गए। इस मौके पर उन्होंने अंग्रेज सरकार के यूनियन जैक की जगह भारत का अपना राष्ट्रध्वज तैयार करके फहराया | इस राष्ट्रध्वज में लाल, सफेद और हरे, इन तीन रंग के आड़े पट्टे थे। पहले लाल रंग के पट्टे कमल का एक फूल और सात सितारे थे, बीच वाले सफेद पट्टे पर “वंदेमातरम्” लिखा हुआ था | नीचे वाले हरे पट्टे पर सर्य और अर्द्ध-चंद् का चिन्ह था। सात सितारे सप्तर्षि की याद दिलाते थे। सूर्य और चंद्र हिंदू-मुसलमान की एकता का चिन्ह और “वंदेमातरम्” भारत का सूत्र था, हमारे देश का पहला राष्ट्रध्वज यही था।

Bhikaiji%2BCama%2B2

ऐसी थी, यह भारत की एक बहादुर और महान नारी मादाम भीकाजी कामा भारत के क्रांतिकारियों ने लंदन में भारत की मुक्ति का सक्रिय काम करने के लिए “अभिनव भारत” नामक संस्था की स्थापना की। मादाम कामा इस संस्था की अग्रणी कार्यकर्ती थीं, सन् १९०९ की २० फरवरी को लंदन में हिंद सोसायटी की मीटिंग हुई। हिंदू-मुसलमान के संबंधों पर भाषण था। इसी सभा में मादाम भीकाजी कामा ने भी भाषण किया| भाषण करने से पहले इन्होंने एक रेशमी झंडा निकाला। इस झंडे को हाथ में पकड़कर मादाम कामा ने कहा – “फहराकर और उसके नीचे खड़े होकर भाषण करने की आदत है।“ अपने भाषण में उन्होंने कहा कि बल और हिंसा का उपयोग किए बिना हमारा गुजारा नहीं हो सकता। अगर बल और हिंसा का उपयोग न होगा तो स्वतंत्रता केवल एक स्वप्न ही बनी रहेगी। सन् १९१० में जहाज से कूदने के बाद वीर सावरकर फ्रांस में गिरफ्तार हुए। उन्हें छूड़ाने के लिए भी उन्होंने बहुत कोशिश की।

सन् १९१४ में पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ । तब इन्होंने घोषणा की कि भारत यूरोप का साथ नहीं देगा और लड़ाई में मदद भी नहीं देगा। इस पर फ्रांस की सरकार ने उनको जेल में बंद किया। इस कारण “वन्देमातरम्” साप्ताहिक बंद हो गया। १९१८ में पहला विश्वयुद्ध खत्म होने पर ही मादाम भीकाजी कामा को जेल से छुटकारा मिला।

मादाम भीकाजी कामा की मृत्यु


विदेश में रहकर भारत के लिए इन्होंने बहुत परिश्रम किया। अपना सारा तन-मन-धन देश के लिए अर्पित कर दिया। कारावास में उनकी तबीयत खराब हो गई। अब उनको मातृभूमि की याद सताने लगी। वह स्वदेश लौटने के लिए व्यग्र हो उठी। उन्होंने भारत वापस लौटने के लिए अंग्रेज सरकार से अनुमति मांगी। सरकार ने उनकी मांग स्वीकार कर ली। लेकिन उसमें शर्त लगा दी कि भारत लौटने के बाद वह कभी राजनीतिक कामों में भाग नहीं लेंगी और अंग्रेजों के खिलाफ भाषण नहीं देंगी।

मातृभूमि के दर्शन के लिए इन्होंने यह शर्त मंजूर कर ली। १९३५ की दिसंबर की एक सुबह उन्होंने भारत की धरती पर कदम रखा। परंतु भारत पहुंचने पर इनकी तबीयत और खराब हो गई और आठ महीने की लंबी बीमारी के बाद १६ अगस्त १९३६ को उनका देहांत हो गया।

यह दुख की बात है कि इस बहादुर नारी का कोई स्मारक भारत में नहीं है। परंतु पेरिस के एक कब्रिस्तान में उनका एक स्मारक है। वहां लिखा है – “जुल्मों का सामना करना ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के बराबर है।“

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *