यो तो भारत में अनेक
प्रतापी राजा समय समय पर हुए है | उनमे से
जिनके नाम हमे आज भी याद आते है, उनमे दक्षिण भारत के प्रतापी राजा राजराज चोल की
भी गिनती है | उनका शासन ९८५ ई. से १०१४ ई माना जाता है |
गद्दी पर बैठने के पहले
राजराज १६ वर्षो तक युवराज पद को सुशोभित करते रहे | जब वह राज सिंहासन पर बैठे,
तब चोल राज्य बहुत ही छोटा था | वेलरू नदी उत्तर में और दक्षिण में इसी नाम की
दूसरी नदी इस राज्य की सीमा थी | पूर्व में समुद्र और पश्चिम में कोट्टईकरई था | राजराज
चोल का राज्य आधुनिक तंजोर, तिरूचिरापल्ली और भूतपूर्व पुडूक्कोट्ट रियायत के कुछ
भाग तक ही सीमित था | किन्तु उनकी मृत्यु के समय तक उनका राज्य बहुत बढ़ गया था | उसने
अपने बाहुबल से चोल राज्य का विस्तार लंकाद्दिप के उत्तरी भाग, मदुरई, मालाबार,
मालद्दिप, मैसूर, बेलारी और पूर्व भारत में गुंटूर तक कर लिया | अपने इस पराक्रम
के बल पर भी इतिहास में उनका महत्त्वपूर्ण स्था होता लेकिन जितना वह पराक्रमी थे,
उतना ही वह कुशल शासक भी थे | उनकी कीर्ति केवल विजेता होने के कारण की नहीं,
बल्कि सुयोग्य शासक के रूप में भी विशेष रूप से फ़ैली |
राजराज चोल विजयालय वंश का
था | इसके पहले शासक महाराज विजयालन ने ८५० ई में चोल राज्य स्थापित किया | राजराज
प्रथम इस वंश का आठवा राजा था |
विजयालय वंश के राजा
क्षत्रिय थे | राजराज चोल इस वंश के कुलभूषण थे | विजयालय वंश के राजाओ के समय की शिलाओं
या ताम्रपत्रो के जो अभिलेख मिलते है, उनमे बार-बार इस बात पर जोर दिया गया है की
विजयालय वंश के राजा क्षत्रिय थे |
राजगद्दी पर बैठने के बाद
चार साल तक तो राजराज चोल अपने राज्य की व्यवस्था ठीक करने में लगा रहा | फिर उसने
अपने राज्य के विस्तार करने की तरफ ध्यान दिया | उसने अपनी दिग्विजय को दक्षिण की
और से आरम्भ कर उसका अंत उत्तर में किया | उसका कारण यह कहा जाता है की दक्षिण
भारत के तीन राज्य मिल कर चोल राज्य को समय समय पर सताया करते थे | इसलिए यह
आवश्यक था की पहले इन तीन दक्षिणी राज्यों की ओर बढ़ा जाए | इसी उद्देश्य से पांड्य
राजा अमरभुन्जग को परास्त कर उसे कैद कर लिया और उसकी राजधानी विलिंद पर अपनी
विजय-पताका फहराई | पांड्य राज्य को उसने अपने राज्य में मिला लिया |
पांड्य राज्य के बाद राजराज
चोल ने अपनी नौ सेना के बल पर लंका पर चढ़ाई की और उत्तरी भाग को चोल में मिला लिया
| उनके एक अभिलेख में उनकी लंका-विजय का वर्णन बड़ी ही रोचक भाषा में किया गया है – “वानरों की सहायता के रामचंद्र ने लंका जाने
के लिए एक सेतु बनाया और तब बड़ी कठिनाई से तीक्ष्ण बाणों द्वारा लंका के राजा का
विनाश किया | लेकिन रामचंद्र के बढ़कर यह राजा राजराज प्रथम हुआ, जिसकी प्रबाह सेना
ने जहाजो द्वारा समुद्र को पार कर लंका के राजा को भस्म कर दिया |”
राजराज चोल के आक्रमण के
पहले लंका की राजधानी अनुराधपुर हजार साल से ऐसे ही रहती आई है | राजराज चोल ने
लंका के जिस भाग को जीता, वह चोल साम्राज्य का एक प्रांत बन गया | इस प्रांत की
राजधानी पोलोंनंरूव में थी | यद्यपि राजराज चोल का अधिकार लंका के उत्तरी भाग पर
ही था, पर उसका इरादा सारे द्दिप को अपने राज्य में मिला लेने का था | इसी
उद्देश्य से उसने अपनी राजधानी अनुराधपुर से हटा कर पोलोंनंरूव में स्थापित की | उसका
नाम बदकर उसने जननाथ-मंगलम रखा | यहाँ पर राजराज चोल ने शिव का एक मंदिर भी
बनवाया, जो आज भी मौजूद है | इस मंदिर का नाम शिवदेवालय है |
बहुत समय बाद जब लंका के
राजा विजयबाहु प्रथम में लंका के उत्तरी भाग से चोलो के राज्य का अंत किया, तब
उसने भी अपनी राजधानी पोलोंनंरूव में रखी | पर उसने पोलोंनंरूव का नाम बदलकर
विजयराजपुर कर दिया | लंका पर राजराज चोल की विजय का प्रभाव यह हुआ की लंका की
राजधानी अनुराधपुर से हमेशा के लिए हट गयी |
राजराज चोल ने इस प्रकार
अपने दो सबल पड़ोसी राज्य पांड्य और लंका को नीचा दिखाया | अब केरल राज्य को हराना
बाकी रह गया था | राजराज चोल ने कांडलूर को पहले केरल के जंगी बेड़े को समुद्री
लडाई में धवस्त कर डाला और बाद में विलिनाम के निकट एक युद्ध में केरल की सेना को
बुरी तरह हराया | केरल को राजराज ने अपने राज्य का अंग बना लिया |
इन सब लड़ाईयो का यह परिणाम
हुआ की लंका, केरल और पांड्य राज्यों की और से राजराज चोल को कोई ख़तरा नहीं रह गया
|
अब राजराज ने अपनी निगाह
भारत के पश्चिमी तट के दो राज्यों पर डाली | इन में से एक पर पश्चिम के चालुक्यो
का शासन था, दुसरे पर गंग राजा का | राजराज चोल ने इन दोनों राज्यों पर हमला किया
और उन्हें जीत कर अपने राज्य में मिला लिया | इस प्रकार, मैसूर और बेलारी के इलाके
चोल राज्य में आ गए |
अब पूर्व के चालुक्यो से
निपटाना बाकी था | इनका वेंगी राज पर शासन था | वेंगी में आपसी कलह और फूट फ़ैली
हुई थी | राजराज चोल ने बड़ी चालाकी से काम किया | उसने वेंगी की गद्दी के लिए होने
वाले झगड़े को ख़त्म करने के बहाने वहा के मामलो में दखल दिया और शक्तिवार्मा नामक
व्यक्ति को वेंगी की गद्दी पर बैठा दिया | इसी शक्तिवार्मा के छोटे भाई के साथ राजराज
चोल ने अपनी लडकी की शादी भी कर दी | वेंगी के चालुक्य, चोल राजा के दोस्त बन गए |
राजराज ने वेंगी राज्य के दुश्मन, कलिंग पर हमला कर उसे जीत लिया |
इस प्रकार राजराज चोल का
साम्राज्य बहुत दूर तक फ़ैल गया | तुंगभद्रा पार के सारे दक्षिण भारत में उनका
एक-छत्र राज्य स्थापित हुआ |
राजराज में एक प्रबल सेना
का गठन किया था | अपनी समुद्र शक्ति बढाने के लिए उसने जंगी जहाजो का एक मजबूत और
शक्तिशाली बेड़ा तैयार किया | इसी की सहायता के उसने लंका जीती थी | बाद में इसी
जहाजी बेड़े ने मालद्वीप भी जीतकर उसको चोल राज्य में मिला दिया |
मृत्यु के दो वर्ष पूर्व
राजराज चोल ने अपने पुत्र राजेंद्र को युवराज बनाया, जो १०१४ में पिता के मरने पर
राजेंद्र प्रथम के नाम से गद्दी पर बैठा और ३० वर्षो तक चोल साम्राज्य का
शक्तिशाली शासक रहा |
राजराज चोल प्रबल शासक और
विजेता ही नहीं, अत्यंत धार्मिक और कलाप्रिय भी था | वह शिव का बड़ा भक्त था | उसकी
आज्ञा से तंजौर का भव्य शिव-मंदिर” राजराजेश्वर” बकर तैयार हुआ | इस मंदिर को
बनवाने में उसकी यह इक्छा थी की शिव का यह मंदिर अपने ढंग का अनोखा हो | सचमुच यह
राजराजेश्वर मंदिर अनोखा ही है | यह तमिल वास्तुकला का बहुत ही सुन्दर नमूना है |
राजराज चोल शैव धर्मं को
मानने वाला था, लेकिन धार्मिक मामलो में उसकी नीति सब धर्मो के प्रति उदार थी और
सभी मतों को वह सामान रूप से सहायता देता था | उसमे यदि तंजौर में शिव मंदिर
बनवाया, तो कई स्थानों में विष्णु मंदिर भी बनवाए | इसी प्रकार से बौध विहारों को
भी उसने सहायता दी |
अपने कुटुंब के प्रति उनका
व्यवहार सदेव समतापूर्ण रहा | अपनी बहन कुन्द्बाई के प्रति उनका प्रेम और अपनी
चचेरी दादी के प्रति उनकी श्रद्धा इसका प्रमाण है | राजराज चोल ने कई विवाह किए
थे, उनकी कई पत्निया थी | किन्तु उनकी संतान बहुत ही कम हुई |
राजराज चोल को लोग विष्णु
का अवतार मानते थे और उसके मंत्री जयंत को बृहस्पति की उपमा दी जाती थी | यह इस
बात का प्रमाण है की राजराज चोल अपने समय की जनता में कितना लोकप्रिय हो गया था |