रामकृष्ण गोपाल
भांडारकर |
Ramkrishna
Gopal Bhandarkar
पाच्यविद्या-विशारद, संस्कृत
के महान पंडित और उसके पठन-पाठन की सरल पद्धति के
संस्थापक रामकृष्ण गोपाल भांडारकर की गणना हमारे देश के उज्ज्वल रत्नों में है।
भांडारकर का जन्म एक निर्धन महाराष्ट्री
परिवार में ६ जुलाई १८३७ को हुआ। उनके पिता कोंकण प्रदेश के अंतर्गत मालवण के
मामलेदार के दफ्तर में एक साधारण क्लर्क थे यह प्रदेश उस समय पेश-बाअ के राज्य में
था। अंग्रेज अभी वहां नहीं पहुंच पाए थे, मालवाण में प्राथमिक शिक्षा की
कोई व्यवस्था न होने के कारण भांडारकर को बचपन में शिक्षा से वंचित रहना पड़ा। जब
कुछ समय पश्चात् उनके पिता का तबादला रत्नागिरि मे हुआ
तो उनके लिए विद्या का द्वार खुला। यहां से उन्होने १८५३
में हाई स्कूल पास किया और उच्च शिक्षा के लिए बम्बई चले गए।
एल्फिन्स्टन कालेज, बम्बई
में प्रवेश पाने के लिए उन्हें बहुत से विद्यार्थियों के साथ परीक्षा देनी पड़ी, जिसमें
वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। फिर भी उन्हें कोई छात्रवृत्ति अथवा पुरस्कार
नहीं मिला। मेधावी नवयुवक भांडारकर ने यहां प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा अंग्रेजी
साहित्य,
इतिहास, प्राकृत
विज्ञान तथा गणितशास्त्र की शिक्षा पाई । बाद में उन्हें कई छात्रवृत्तियां भी मिलीं।
एल्फिन्स्टन कालेज का विद्यार्थी जीवन, भांडारकर
के लिए बड़ा महत्वपूर्ण समय था। यहां उन्हें अमर देशभक्त दादाभाई नौरोजी, प्रसिद्ध
विद्वान ह्मलिंग्ज तथा हार्कनेस के सम्पर्क में आने और उनसे विद्यालाभ करने का अवसर
प्राप्त हुआ। इन महानुभावों से प्रभावित होकर उनके चरित्र का निर्माण हुआ और
इन्हीं की तरह वह भी सरस्वती के आजीवन पुजारी बन गए। यह भी उनका सौभाग्य था कि
पूजनीय महादेव गोविंद रानडे उनके सहपाठी तथा मित्र थे। इसी समय शिक्षा का स्तर
ऊंचा करने के लिए सरकार ने ब्रिटेन से तीन अध्यापकों को बुलाया, जिनमें
से एक ओवेन महोदय एल्फिन्स्टन कालेज में नियुक्त किए गए। ओवेन प्रकांड पंडित तो थे
ही,
साथ ही दयालु गुरु भी थे और अपने शिष्यों को
शास्त्र का तत्व अच्छे से
समझाना अपना ध्येय समझते थे । उनके द्वारा भांडारकर
को यथोचित प्रोत्साहन मिला और उनकी योग्यता पूरी तरह चमक उठी।
अध्ययन के विषयों में उन्हें सबसे अधिक रुचि
गणितशास्त्र में थी। उनके समस्त कार्यों में जो एक प्रकार का संतुलन पाया जाता था
वह शायद उनके इसी गणित-प्रेम के कारण था।
१८५९ में उन्हें एल्फिन्स्टन कालेज में
अध्यापक नियुक्त किया गया और फैलोशिप भी प्रदान की गई कुछ ही समय बाद उनको डेकन
कालेज,
पूना भेज दिया गया, जहां
वह शिक्षा विभाग के अध्यक्ष हावर्ड के सम्पर्क में आए। हावर्ड की प्रेरणा से उनका
ध्यान संस्कृत की ओर गया, जिसकी उन्होंने अभी तक एक भी
पुस्तक नहीं पढ़ी थी। अपनी प्रतिभा तथा परिश्रम से उन्होंने कुछ ही वर्षों में
न्याय,
व्याकरण, मीमांसा, वेद-वेदांग
का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया। इसी समय उन्होंने संस्कृत के विद्यार्थियों के लिए
दो पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें उन्होंने संस्कृत पढ़ने
के पुराने कठिन तरीके को त्यागकर अपनी नवीन सरल पद्धति बताई।
इसी समय बम्बई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई
और सभी अध्यापकों के लिए यह शर्तं लगा दी गई कि वे विश्वविद्यालय की परीक्षाएं पास
करें। इसके अनुसार भांडारकर ने १८६२ में बी०ए०(ऑनर्स) तथा १८६३ में अंग्रेज़ी तथा
संस्कृत दोनों में एम०ए० की परीक्षाएं कर लीं। उस समय इन परीक्षाओं को पास करने
वाले या तो कानून पढ़कर वकालत करते थे या किसी सरकारी विभाग में ऊंचे पद पर चले
जाते थे। महादेव गोविन्द रानडे की देखादेखी भांडारकर के मन में भी कानून पढ़ने की
लालसा उठी। उन्होंने अपनी इच्छा हावर्ड को बताई। हावर्ड
ने उन जैसे योग्य अध्यापक को अपने ही विभाग में रखना चाहा। उन्होंने उन्हें तुरंत
ही हैदराबाद (सिंध) में सरकारी पाठशाला का प्रधान अध्यापक नियुक्त कर दिया और १८६५
में उनका रत्नागिरी
स्कूल में तबादला कर दिया। बम्बई विश्वविद्यालय ने उनके पांडित्य से प्रभावित होकर
उन्हें संस्कृत परीक्षाओं का परीक्षक नियुक्त का दिया | इसके बाद भांडारकर
उत्साह के साथ अनुसंधान में लग गए।
१८६८ में भांडारकर को एल्फिन्स्टन कालेज के
संस्कृत विभाग के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। किंतु १८७२ में ही भांडारकर सरकार
की काले-गोरे की भेद-नीति के शिकार हो गए। नतीजा यह हुआ कि एक निम्न योग्यता
वाले अंग्रेज़ विद्वान डा० पोट एल्फिन्स्टन कालेज के संस्कृत विभाग का अध्यक्ष
नियुक्त कर दिया गया। १८७९ में उन्हें डेकन कालेज पूना में संस्कृत विभाग
का अध्यक्ष बना दिया गया, इस
पद पर वह चौदह
वर्ष तक काम करते रहे और १८९३ में वहां से रिटायर हुए।
१८७० में भांडारकर को पुरातत्व अन्वेषण के नए
क्षेत्र में उतरना पड़ा। एक पारसी सज्जन को एक ताम्रपत्र मिला, जिस
पर पुरानी देवनागरी लिपि में लेख था । भांडारकर ने इस
अवसर का स्वागत किया और इस विषय के अधिकारी लेखकों की पुस्तकें मंगवाकर पढ़ीं
और उस ताम्रपत्र के लेख को ठीक-ठीक पढ़ लिया। फिर उन्होंने इस संबंध में एक निबंध लिखा, जिसको
रायल एशियाटिक सोसाइटी की शाखा में उन्होंने पढ़कर सुनाया। इस
क्षेत्र में उन्होंने असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। उनके लेख “इंडियन
टिक्वेरियन पत्रिका” में निकलने लगे। इन लेखों के कारण भांडारकर की कीर्तिं फैल
गई। १८७४ में लंदन में
हुई प्राच्य विद्या शास्त्रियों की अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित होने का
उन्हें निमंत्रण मिला। इसमें भाग लेने के लिए वह लंदन न जा सके, पर
उन्होंने नासिक के आसपास मिलने वाले शिलालेखों के संबंध में एक गम्भीर लेख
लिख कर भेजा दिया, जिसकी बड़ी प्रशन्सा की
गई और चारों
ओर से सम्मान और उपाधियों की झड़ा-सी लग गई। फ्रांसीसी इंस्टीट्यूट तथा सेंट
पीटर्सबग की इम्पीरियल अकादमी ने उन्हें अपना कॉरस्पांडिंग मेम्बर और वोहिमन
सोसाइटी आफ़ साइंसेज ने उन्हें अपना विदेशी मेम्बर बना लिया।
इसके बाद १८७६ में उन्होंने “मालती
माधव” पर
अपनी टीका प्रकाशित की| इसमे उन्होंने अपने गहरे अध्ययन, कुशाग्रबुद्धि
तथा आलोचना-शक्ति का ऐसा अच्छा परिचय दिया कि सभी देशों के विद्वान, उनका
लोहा मान गए। १८७७ में विलसन फाइलॉलोजी व्याख्यानमाला के पहले पांच भाषण देने का सौभाग्य
भी उन्हे प्राप्त
हुआ। बाद
में इन भाषणो को
रायल एशियाटिक सोसाइटी ने पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।
१८७९ में बम्बई सरकार ने भांडारकर को प्राचीन
संस्कृत लेखों के अन्वेषण-कार्य का अध्यक्ष नियुक्त
किया। यह कार्य उन्होंने अत्यंत कठिन परिश्रम से पूरा किया। जर्मनी के गांटिगन
विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टर आफ फिलासफी
की उपाधि दी और भारत सरकार ने उन्हें सी०आई०ई० का खिताब दिया। १८९३
में बम्बई विश्वविद्यालय ने उन्हें उपकुलपति नियुक्त किया और १९०४ में एल॰एल०डी०
की उपाधि दी, जिसके पाने वाले पहले भारतीय भांडारकर
ही थे। ऐडिनबरा विश्वविद्यालय ने भी उन्हें इस उपाधि से विभूषित किया।
डा० भांडारकर के अनेक शिष्यों एवं प्रशंसकों
की यह हार्दिक इच्छा थी कि उनकी सेवाओं के लिए उनकी स्मृति में कोई स्मारक तथा
प्राच्य विद्या अनुसंधान का एक केंद्र स्थापित हो। उनके शिष्यों तथा अन्य लोगों के
परिश्रम से यह काम पूरा हो गया । भांडारकर की 80वीं
वर्षगांठ के दिन “सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट” की
स्थापना हुई। इस अवसर पर डा० भांडारकर को एक अभिनंदन स्मारक ग्रंथ भी भेंट किया
गया|
भांडारकर ने लगभग ३०००
पुस्तकों की बहुमूल्य भेंट इस संस्था को उपहार में दी। इस संस्था की अखिल भारतीय
प्राच्य विद्या परिषद् के प्रथम अधिवेशन में उनको ही अध्यक्ष चुना गया। डाक्टर
सुखटणकर के नेतृत्व में इस संस्था द्वारा जो महाभारत का सटीक संस्करण प्रकाशित
किया गया, उससे भांडारकर और सुखटणकर तथा इस
संस्था का नाम और यश संसार में फैल गया।
डाक्टर भांडारकर के अनेक खोजपूर्ण निबंधों
में उनके “दक्कन
का प्रारंभिक इतिहास” लेख का विशेष स्थान है।
१९१३ में उनका वैष्णव, शैव
आदि धर्मों के बारे में एक ग्रंथ प्रकाशित हुआ। इससे उनके पूर्ण पांडित्य, लगन
और गहरे अन्वेषण का परिचय मिलता है। इसके बाद नारायण बापू जी उटगीकर ने उनके सभी
ग्रंथों एवं निबंधों का संकलन “समग्र भांडारकर ग्रंथ माला” में, चार
भागों में, अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित
किया।
उस समय भारत के बारे में विदेशों में कितनी
ही गलत बातें फैली हुई थीं उन्हें दूर करने के लिए उस समय तक किसी भारतीय के लिखे
हुए प्रामाणिक ग्रंथ का अभाव था। भांडारकर को यह बात बहुत खली। इसलिए उन्होंने
स्वयं परिश्रम करके प्राच्य विद्याशास्त्र का अनुसंधान किया। उन्होंने और अपनी
धारणाओं को भारतीय धर्म-ग्रंथ से प्रमाण देकर पुष्ट किया।
भांडारकर सदा सत्य का समर्थन करते थे इसमें
वह विदेशी शासक-वर्ग, जाति के विद्वानों से भी नहीं डरते थे उन्होंने ऐसे कई विद्वानों
को खुली चुनौती दी और अंत में उनसे अपनी भूल को स्वीकार करा लिया | कर्नल
एलिस ने प्रचार किया कि कृष्ण ख्रीस्त का ही भ्रष्ट रूप है और श्रीमद्भगवदगीता
बाइबिल का संस्कृत संस्करण है। भांडारकर ने पाणिनि काल के एक शिलालेख के आधार पर
इसका बड़ी योग्यता तथा सफलता के साथ खंडन कर दिया। भांडारकर ने पाश्चात्य
विद्वानों के यह सिद्ध करने के प्रयासों का कि
भारतीय ग्रंथ प्राचीन हैं, और भारतीय सभ्यता पाश्चात्या
सभ्यता से निम्न कोटि की है, अपने तर्को के
बल पर खंडन कर दिया।
भांडारकर के सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्यों
में प्राचीन संस्कृत पांडुलिपियों की उनकी लंबी खोज है। यह काम बम्बई सरकार ने १८७९
में आरंभ किया और इसमें डा० भांडारकर के सहयोगी डा० कीलहार्न, डा०
बूलर तथा डा० पीटर्सन जैसे प्रसिद्ध प्राच्य विद्या विशारद थे। भांडारकर ने स्वयं
जो कार्य किया उसका विवरण ६ जिल्दों में प्रकाशित किया गया है। उनमें कुछ विवरण
ऐसे हैं जो प्राचीन भारतीय इतिहास के संबंध में स्थायी महत्व के हैं। उन्होंने
बहुत से प्राचीन जैन हस्तलेख भी खोज निकाले और उनके आधार पर जैन दर्शन एवं साहित्य
संबंधी कितनी ही ऐसी बातों पर प्रकाश डाला जिनका ज्ञान उस समय नहीं के बराबर था।
उन्होंने पुरानी सड़ी-गली सामाजिक रूढियो के विरुद्ध आंदोलन चलाने में कोई कसर नहीं उठा रखी।
उन्होंने महिलाओं को शिक्षा देने का समर्थन किया और उन्होंने
स्वयं अपने घर से अमल शुरू किया | अपनी पौत्रियों को स्कूलों कालेजो
में पढ़ाया। फिर जब विधवा-विवाह को उन्होंने सही ठहराया, तो
केवल पुराने पंडितों से बहस ही नहीं की, बल्कि अपनी
विधवा पुत्री का पुनर्विवाह भी कर डाला।
इस प्रकार उन्होंने अपनी प्रतिभा और अपने
सत्य प्रेम का जीवन भर परिचय दिया। १४ जून १९२५ को
इस महापुरुष की मृत्यु हो गई।