राम सिंह नामधारी | राम सिंह कूका | Ram Singh Namdhari | Ram Singh Kuka

[wpv-post-body][wpv-post-title][wpv-post-shortcode]

राम सिंह नामधारी | राम सिंह कूका | Ram Singh Namdhari | Ram Singh Namdhari

Ram Singh Biography | राम सिंह नामधारी जीवन परिचय

भारत का पहला स्वतंत्रता युद्ध १८५७ में शुरू हुआ था, किंतु पंजाब के सात लाख नामधारियों ने जो कूका और संत खालसा के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, देश को अंग्रेज़ों की दासता से छुटकारा दिलाने के लिए बहुत पहले ही युद्ध का बिगुल बजा दिया था। कूका बहुत ही वीर तथा साहसी व्यक्ति थे। उनकी शक्ति तथा बलिदानों से भयभीत होकर अंग्रेजों ने उनको समाप्त करने के लिए कोई कसर न छोड़ी थी। कई नामधारियों को तोपों से उड़ा दिया गया। कई वीरों को जेलों में ठूस दिया गया और बहुत से नामधारियों को देश निकाला भी दिया गया, किंतु उनके मन में जलती स्वाधीनता की अग्नि ठंडी न पड़ी। इन देशभक्त साहसी और मृत्यु से न डरने वाले नामधारियों के धार्मिक नेता गुरु रामसिंह थे, जिन्होंने देशवासियों को देश की खातिर मर मिटने की शिक्षा दी।

संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
राम सिंह कूका जीवन परिचय
पूरा नाम गुरु राम सिंह नामधारी
जन्म तारीख ३ फरवरी,१८१६
जन्म स्थान भैणी गांव, लुधियाना
पिता का नाम जस्सा सिंह
माता का नाम सदा कौर
पत्नी का नाम जस्सा कौर
धर्म पंजाबी
शिक्षा बिलगा गांव के एक संत,
माता के द्वारा
कार्य समाजसेवक,
स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी,
आनंद कार्य के स्थापक,
नामधारी पंत के स्थापक
मृत्यु तारीख २९ नवंबर १८८५
उम्र ६९ वर्ष

राम सिंह नामधारी का जन्म


रामसिंह का जन्म ३ फरवरी,१८१६ को पंजाब के प्रसिद्ध शहर लुधियाना से १६ मील की दूरी पर स्थित भैणी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम जस्सा और माता का नाम सदा कौर था। भाई जस्सा, जिन्हें गाव के लोग लक्खा कहकर पुकारते थे, गांव में बढ़ई का काम करके जीवन बिताते थे | रामसिंह अपने माता-पिता के बड़े पुत्र थे, इसलिए घर पर में उनका बहुत आदर मान था। उनके एक छोटे भाई थे और एक बहन थी, जिनका ब्याह रायपुर गांव के काबुल सिंह से हुआ था, निर्धन श्रमिको के घर की भाति कुटुंब के सब सदस्यों का आपस में अत्यंत प्यार था।

रामसिंह की माता बहुत ही मेहनती और धार्मिक प्रवृत्ति वाली स्त्री थी। वह घर का सारा काम-काज अर्थात खाना पकाना, आटा पीसना, गाय-बैलों को संभालना आदि स्वयं किया करती थी।

राम सिंह नामधारी की शिक्षा


पिता ने शिक्षा प्राप्ति के लिए रामसिंह को बिलगा गांव के एक साधू के पास भेजा, किंतु वह थोड़े समय तक पढने के पश्चात वापस अपने गांव में आ गए। उन्होंने बचपन में गुरुमुखी अक्षरों की वर्णमाला अपनी मां से पढ़ ली थी, उनकी माता को बहुत सी धार्मिक वाणियां तथा कहानियां याद थी। उन्होंने सब वाणियां रामसिंह को कंठस्थ करवा कर तथा रात के समय कहानियां सुना-सुना कर उनके मन में दृढ़ता, निर्भयता, श्रद्धा और भक्ति की भावनाएं पैदा कर दी थी।

इसे भी पढ़े :   टी एल वासवानी | साधु वासवानी | Sadhu Vaswani

राम सिंह नामधारी का विवाह


सात वर्ष की आयु में रामसिंह का विवाह घरोड़ गांव के एक बढ़ई साहबू की पुत्री जस्सा से हो गया। नौ वर्ष की आयु में वह घर के बहुत से कामों में अपने माता-पिता का हाथ बंटाने लगे। वह गाव से बाहर जाकर खुली हवा में ढोर चराते, कबड्डी, कुश्ती आदि खेलों में भाग लेते और अपनी सुरीली आवाज में लोक गीत गाते और गुरु वाणियां पढ़ते।

रामसिंह के बहनोई काबुल सिंह महाराज रणजीत सिंह की सेना में गोलंदाज थे। उन्होंने रामसिंह को भी सेना में भर्ती करवा दिया। तीन वर्ष बाद १८३९ में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में बहुत से सिख सरदार जागीरें पाकर अमीर बन गए और ऐश का जीवन व्यतीत करने लगे थे। दूसरे शब्दों में सिख लोग धार्मिक, राजनीतिक तथा सामाजिक पतन के शिकार हो गए थे और एक बार फिर उन कुरीतियों में फंस गए थे, जिनसे गुरु नानक और गुरु गोविंदसिंह आदि गुरुओं ने उन्हें निकाला था। यह हालत देखकर रामसिंह ने भविष्यवाणी की थी कि ये धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियां दूर न हुई तो शीघ्र ही सिख राज्य का अंत कर देंगी। उनकी यह भविष्यवाणी बहुत जल्द सत्य सिद्ध हुई। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद स्थिति अत्यंत चिंताजनक बन गई।

रामसिंह सैनिक जीवन में भी भजन किया करते थे, वह सदा ही भजन और सेवा कार्य में लगे रहते थे। उनकी धार्मिक भावना देखकर साथी उनको भाई रामसिंह कहकर पुकारने लगे। उनके साथियों पर भी भजन बंदगी का बड़ा असर पड़ा और उनकी रेजिमेंट का नाम भक्तों की रेजिमेंट प्रसिद्ध हो गया था।

एक बार वह सेना के साथ लाहौर से पेशावर जा रहे थे तो रास्ते में जब वह हजरों नामक कस्बे में पहुचे तो वहां पर वह और उनके पच्चीस-तीस साथी अपने सेना अधिकारी से आज्ञा लेकर प्रसिद्ध गुरु बालक सिंह के पास भजन बंदगी की दीक्षा लेने के लिए पहंचे। गुरु बालक सिंह ने रामसिंह का स्वागत करते हुए कहा कि मैं तो तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। अब मेरा कार्य तुम्हीं को करना होगा। उन्होंने रामसिंह को निष्काम सेवा की दीक्षा दी । बाद में रामसिंह ने गुरु बालक सिंह के आदेशानुसार निष्काम सेवा को अपना लक्ष्य मानकर धार्मिक तथा सामाजिक जागृति का महान कार्य शुरू किया।

जब दिसंबर १८४५ में सिखों और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ, तो रामसिंह से सेना की विजय प्राप्ति के लिए प्रार्थना करने को कहा गया। उस समय उन्होंने कहा कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सिख सेना की जीत नहीं होगी। इसके पश्चात जब रेजिमेंट ने लड़ाई में सम्मिलित होने के लिए “हरि के पतन पर डेरे डाले” तब भी उन्होंने ऐसी ही भविष्यवाणी की कि सिखों के भाग्य में हार लिखी है, क्यों मरने लगे हो। इसके बाद उन्होंने अपनी बंदूक सतलज नदी में फेंक दी और अपने गांव भैणी की ओर चल पड़े। गांव जाकर उन्होंने खेती आरंभ की और प्रभु भजन में भी व्यस्त रहने लगे।

इसे भी पढ़े :   राजा राममोहन राय | Raja RamMohan Rai

जब युद्ध में सिख सेना अंग्रेजों से हार गई तो सिख राज्य समाप्त हो गया| लाहौर दरबार की सेनाएं तोड़ दी गई। अंग्रेजों ने अपने राज्य को सशक्त बनाने के लिए अपने आज्ञाकारी तथा पिट्टुओं को नियुक्त करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पिट्ठुओं को जागीरें, सरकारी इमारतों के ठेके तथा अन्य सुविधाएं देकर पंजाब में अपने आपको बहुत शक्तिशाली बना लिया। रामसिंह पंजाब पर अंग्रेजों का अधिकार सहन न कर सके। उन्होंने अपने देशवासियों को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए अपने अनुयायियों में प्रचार शुरू कर दिया। उनके विचार में धार्मिक तथा सामाजिक पतन ही उनकी तबाही का कारण था, इसलिए बहुत सोच विचार के बाद उन्होंने यह तत्व निकाला कि देश की प्रगति और उन्नति के लिए विदेशी दासता से मुक्ति प्राप्त करना बहुत आवश्यक है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने ग्रामीण जनता को जागृत करने और सामाजिक जीवन को ऊंचा करने का कार्य आरंभ किया।

अंग्रेजों ने पंजाब पर अधिकार जमाने के बाद अपने ढंग के न्यायालय स्थापित किये, रेलें चलाई, तारघर और डाकखाने खोले। उन्होंने छोटी-मोटी नौकरियों के लिए कर्मचारी तैयार करने तथा इसाई धर्म का प्रचार करने के लिए मिशन स्कूल स्थापित किए, भारतीय माल के स्थान पर वे अग्रेज़ी माल तथा कपड़ा ले आए। इस प्रकार अंग्रेजों ने हर तरह से गुलामी की जंजीरें मजबूत कर दी। ऐसी कठिन स्थिति में गुरु रामसिंह ने पंजाब की जनता को अंग्रेजों की दासता से छुटकारा दिलाने के लिए वैशाखी के अवसर पर धार्मिक व सामाजिक शिक्षा का प्रचार शुरू किया, उन्होंने जनता की सेवा, परोपकार, स्वच्छ रहने, सच कहने और अच्छे कार्य करने की शिक्षा दी। उन्होंने कुरीतियों से बचकर सादा जीवन व्यतीत करने का भी उपदेश दिया।

आनंद कार्य


हमारे समाज में शादी-ब्याह पर बहुत अधिक और अपनी शक्ति से ज्यादा रुपया खर्च किया जाता है और कई बार तो लोग कर्ज लेकर समाज में अपनी झूठी प्रतिष्ठा बनाए रखते हैं। गुरु रामसिंह ने इस सामाजिक कुरीति को समाप्त करने के लिए “आनंद कार्य” शुरू किया। आनंद कार्य में जाति का भेद-भाव मिटाकर सीधे-सादे ढंग से विवाह किया जाता है। नामधारियों में आज भी यह प्रथा जारी है और इन विवाहों पर केवल सवा रुपया खर्च किया जाता है और नामधारी गुरु की उपस्थिति में सैकड़ों विवाह एक साथ किये जाते हैं।

गुरु रामसिंह और स्वतंत्रता युद्ध


गुरु रामसिंह स्वतंत्रता को भी धर्म का आवश्यक अंग मानते थे और नामधारियों का संगठन बहुत जोरदार हो गया था हमारे देश में महात्मा गांधी ने जो असहयोग आंदोलन इतने जोर से चलाया था उसको गुरु रामसिंह ने वर्षों पहले ही नामधारियों में प्रचारित किया था। उनके कुछ सिद्धांत थे – सरकारी नौकरी का बहिष्कार, सरकारी स्कूलों का बहिष्कार, सरकारी अदालतों का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार, ऐसे कानून मानने से इंकार जो अपनी आत्मा के विरुद्ध हों।

इसे भी पढ़े :   बाबा खड़क सिंह | Baba Kharak Singh

नामधारियों ने अपने गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलना अपना धर्म समझा। उन्होंने अंग्रेज़ी स्कूलों तथा अदालतों का बहिष्कार किया और सरकारी डाकखानों तक का बहिष्कार करके अपना डाक प्रबंध शुरू किया। इन लोगों ने देश को आजादी दिलाने के लिए केवल अपने देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी प्रयत्न जारी रखा।

गुरु रामसिंह की शिक्षा से पंजाब के लोग अत्यधिक प्रभावित हुए और शीघ्र ही लाखों आदमी उनके अनुयायी बन गए। इन लोगों के साहस वीरता और भारत को गुलामी से छुटकारा दिलाने के जोश से अंग्रेज़ सरकार घबरा उठी। उनको तरह-तरह के कष्ट दिए गए, यहां तक कि बहाने बना कर उन्हें तोपों से भी उड़ाया गया, मगर स्वतंत्रता के दीवाने अपने मार्ग से न हटे। गुरु रामसिंह के धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों से पुराने विचारों के सिख बहुत नाराज थे और वे उनका बहुत अधिक विरोध करते थे | यहां तक कि एक बार उन्हें दरबार साहब अमृतसर में प्रार्थना के लिए भी नहीं जाने दिया गया। उन लोगों का कहना था कि वह गुरु कहलाना छोड़ें, नामधारी बनाना बंद करें और पिछले कुकृत्यों के लिए एक लाख रुपया हर्जाना भरें। गुरु रामसिंह ने इन शर्तों को स्वीकार नहीं किया।

राम सिंह नामधारी की गिरफ्तारी और मृत्यु


एक बार मालेरकोटला में नामधारियों और एक कसाई के बीच मामूली से झगड़े के कारण सांप्रदायिक दंगा हो गया। कहा जाता है कि उनमें भाग लेने वाले ८० नामधारियों को बिना मुकदमा चलाए तोपों से उड़ा दिया गया।

अंग्रेज़ सरकार ने नामधारियों की बढ़ती हुई शक्ति से नाराज होकर और मालेरकोटला की घटना को बहाना बनाकर गुरु रामसिंह और उनके कुछ मुख्य अनुयायियों को इलाहाबाद भेज दिया। पश्चात उन्हें इलाहाबाद से रंगून भेज दिया। उन्होंने लगभग १४ वर्ष बर्मा में काटे और कहा जाता है कि २९ नवंबर १८८५ में उनकी मृत्यु हो गई।

वह अंत समय तक सत्पथ पर रहे और झुके नहीं। गुरु रामसिंह ने देश के अन्य कितने ही महापुरुषों की भांति जान लिया था कि सत्य ही सब धर्मों का सार है, नेकी ही मनुष्य का भूषण है, श्रम ही सुख का आधार है और त्याग ही हमारी सबसे बड़ी धरोहर है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *