[wpv-post-body][wpv-post-title][wpv-post-shortcode]
रायचंद भाई | श्रीमद राजचन्द्र | Shrimad Rajchandra
गांधीजी ने एक बार कहा था, “मैरे ऊपर तीन पुरुषों की सबसे अधिक छाप पड़ी है। वे हैं – टालस्टाय, रस्किन और रायचंद भाई। टालस्टाय की मैने कुछ पुस्तकें पढ़ी थीं और उनसे पत्र-व्यवहार भी किया था। रस्किन की पुस्तक अनटू दि लास्ट का मेरे ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा। उसका गुजराती नाम मैने सर्वोदय रखा है। रायचंद भाई से तो मेरा प्रगाढ़ परिचय था। हिंदू धर्म के बारे में मुझे जो शंकाएं होती थीं, उनके बारे में प्रायः रायचंद भाई से पत्र-व्यवहार करता था। उससे मेरी शंकाएं दूर हुई और मुझे शांति मिली। मुझे विश्वास हो गया कि जो कुछ मैं चाहता हूं, वह हिंदू धर्म में है।“
श्रीमद राजचन्द्र का जन्म
रायचंद भाई का जन्म १८६७ में कार्तिक पूर्णिमा के दिन ववाणिया नामक कस्बे में हुआ था। यह कस्बा सौराष्ट्र का एक छोटा-सा बंदरगाह है। उनके पिता का नाम रवजीभाई पंचाणभाई मेहता और माता का देवबाई था। रवजीभाई वैष्णव थे और देवबाई जैन। उनका बचपन का नाम रायचंद था, पर बड़े होकर श्रीमद्द राजचंद्र पड़ गया।
श्रीमद राजचन्द्र की शिक्षा
उनकी प्रारंभिक शिक्षा ववाणिया में ही हुई। अपने स्कूल में उनकी गिनती होशियार विद्यार्थियों में होती थी। उनकी स्मरण-शक्ति तेज थी, परंतु वह किताबी कीड़े नहीं थे शिक्षक जो कुछ पढ़ाते थे, वह उन्हें तुरंत समझ में आ जाता था। वह खेलकूद में भी भाग लेते थे। सब लोगों से वह प्रेम करना चाहते थे। उनकी इच्छा होती थी कि सब लोगों में भाईचारा हो। लोगों को लड़ते देखकर उन्हें दुख होता था।
ववाणिया में प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद आगे पढ़ने वह राजकोट चले गए थे। परंतु इस बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती कि उन्होंने अंग्रेजी का कितना अभ्यास किया।
बचपन में वह रोज सुबह दर्शन करने जाते थे। कथा भी सुनते थे। अवतारों के चमत्कारों की बाते सुनकर बड़े खुश होते थे। उन दिनों उन्होंने प्रवीण सागर नामक ग्रंथ भी पढ़ा था। उस समय भगवान में उनका विश्वास था। वह मानते थे कि बिना बनाए कोई पदार्थ नहीं बन सकता। बचपन से ही उनकी धर्म की ओर जो विशेष रुचि थी, वह उत्तरोक्तर विकसित होती गई। परंतु आगे चलकर जैन धर्म का यही विरोधी जैन धर्म का प्रसिद्ध आचार्य बन गया। जैन धर्म के सुधार और जैनियों की फूट को दूर करने के लिए उन्होंने वही काम किया, जो हिंदू धर्म के लिए आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ने किया था।
श्रीमद राजचन्द्र का साहित्य
उनकी साहित्यिक प्रतिभा के दर्शन भी बचपन में ही होने लगी थी । आठ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने कविता लिखनी शुरू कर दी थी। ११ वर्ष के होते-होते उनके लेख, निबंध, कविता आदि बुद्धि प्रकाश नामक पत्र में छपने लगे थे | कई निबंध प्रतियोगिताओं में उन्हें इनाम भी मिले। मोक्षमाला नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना उन्होंने साढ़े-सोलह वर्ष की उम्र में ही की थी।
सोलह वर्ष की उम्र में उन्होंने नियमित रूप से लिखना शुरू कर दिया और लेखक के रूप में वह प्रसिद्ध होने लगे। अब उन्हें लगने लगा कि ववाणिया का छोटा-सा कस्बा उनके लिए उपयुक्त कार्य-क्षेत्र नहीं है। इसीलिए वह मोरवी नामक नगर को चले गए। वहां शंकरलाल माहेश्वर नामक एक विद्वान रहते थे। वह अष्टावधान के प्रयोग किया करते थे। अष्टावधान का अर्थ यह है कि आठ क्रियाएं एक साथ की जाएं। पं. गटुलालजी भी अष्टावधान का प्रयोग किया करते थे। इस कारण ये दोनों विद्वान बहुत प्रसिद्ध हो गए थे। रायचंद भाई ने शास्त्रीजी को अष्टावधान करते देखा और अपनी अद्भुत स्मरण-शक्ति के बल पर उसे अपने मित्रों के सामने दोहरा कर दिखा दिया। फिर उसका प्रदर्शन उन्होंने सार्वजनिक रूप से भी किया। बाद में अवधान के प्रयोग उन्होंने जामनगर, बढवाण और बोवाद में भी किए। वह अवधानों का अभ्यास बढ़ाते-बढ़ाते शतावधानी हो गए, अर्थात १०० क्रियाएं एक साथ करने लगे। इस तरह उनकी ख्याति को चार-चांद लग गए। कवि और लेखक तथा विचारक के रूप में तो वह पहले ही प्रसिद्ध थे।
श्रीमद राजचन्द्र का विवाह
२१ वर्ष की उम मे उनका विवाह गांधीजी के परममित्र रेवाशंकर जगजीवन झवेरी के बड़े भाई पोपटलालजी की पुत्री झवकबाई के साथ हो गया ।
फिर वह मुंबई चले गए और मुंबई में जवाहारात का व्यापार करने लगे। इसी समय गांधीजी से इनका परिचय हुआ।
श्रीमद राजचन्द्र के कार्य
बाद में हीरे-मोती के साथ उन्होंने कपड़े का व्यापार भी शुरू कर दिया। फिर अनाज के व्यापार में भी हाथ डाला। रंगून में भी जवाहारात की एक दुकान खोल ली। वह बड़े व्यापार कुशल और साथ ही साथ ईमानदार भी थे।
उनका भोजन बहुत सादा था। जो मिलता था, उसी में संतोष कर लेते थे। उनकी पोशाक भी सादी होती थी – पहरण, अंगरखा, दुपट्टा, धोती और काठियावाड़ी पगड़ी। सफाई पर वह विशेष ध्यान देते थे। वह धीमे-धीमे चलते थे, माने सोच-विचार कर चल रहे हैं । उनके नेत्र तेजस्वी थे और उनसे एकाग्रता प्रकट होती थी। वह बड़े शांतचित्त और मधुर-भाषी थे। लोगों से मिलना जुलना वह बहुत पसंद करते थे।
दुकान मे वह एकाध धर्म-पुस्तक और एक कोरी कापी हर समय अपने पास रखते थे। जब भी उन्हें समय मिलता तो धर्म-पुस्तक पढ़ने लग जाते। ज्यों ही कोई विचार मन में आता फौरन कापी पर लिख लेते – कभी गद्य में, कभी पद्ध्य में।
श्रीमद राजचन्द्र का जैनियों के धर्मगुरु का स्थान प्राप्त
व्यापार के साथ-साथ वह धर्म-ग्रंथो का अध्ययन और मंथन भी करते रहते थे, हर वर्ष कुछ समय के लिए वह वन आदि दूर-स्थानों में जाकर मनन करते थे, ताकि कोई पहचान न पाए। इस पर भी लोग उनके उपदेश सुनने के लिए पहुंच जाते थे।
धीमे-धीमे उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ती गई और २१ वर्ष की अवस्था में ही उन्हें जैनियों के धर्मगुरु का स्थान प्राप्त हो गया था, तभी उनका नाम रायचंद भाई की जगह श्रीमद्द राजचंद्र पड़ गया। वह अपने विचार सरल भाषा में लोगों को समझाते, जिनका जनता पर बहुत प्रभाव पड़ता।
श्रीमद राजचन्द्र की मृत्यु
व्यापार और साधना के बोझ का असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ा और उनकी तबीयत खराब रहने लगी। स्वास्थ्य-सुधार के लिए वह अहमदाबाद, धरमपुर, राजकोट आदि स्थानों में रहे। ३२ वर्ष की उम्र में उन्होंने वानप्रस्थ लिया और अगले ही वर्ष केवल ३३ वर्ष की उम्र में उनका स्वर्गवास हो गया।
उनकी याद में ईडर, खंभात, अगास इत्यादि स्थानों में कई संस्थाएं स्थापित हुई। अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ के पुरातत्व मंदिर में श्रीमद राजचन्द्र ज्ञान भंडार की स्थापना हुई।
श्रीमद राजचन्द्र की पुस्तके
श्रीमद्द राजचंद्र ने कई पुस्तकें लिखी थीं। सबसे पहले उन्होंने स्त्रियो के लिए एक निबंध लिखा था, जो बाद में “स्वीनीति बोधक” के प्रथम खंड के रूप में छपा। इसमें गरबी-गीतों के माध्यम से स्त्रियो को शिक्षा दी गई है। उनकी दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक है – “पुष्यमाला”। इसमें १०८ विचार-कणिकाएं दी गई है। तीसरी रचना है – “मोक्षमाला” जो उन्होंने साढ़े-सोलह वर्ष की उम्र में ही लिख डाली थी । इसमें जैन धर्म के सिद्धांत सरल रूप में समझाए गए है | जैन आचार-विचार के बारे में भी इसमें बताया गया है। यह काफी बड़ी पुस्तक है। इसी बीच “भावना बोध” नामक एक छोटी-सी पुस्तक लिखी।
उनकी अगली पुस्तक का नाम है – “नेमिनाथ” । यह ५००० श्लोकों का एक काव्य है उनका सबसे बड़ा महत्वपूर्ण ग्रंथ है – “आत्म सिद्धि शास्त्र” । इसमें आत्मा के स्वरूप के बारे में जैन सिद्धांत समझाए गए हैं।
वह “वैराग्यविलास” नामक एक मासिक भी चलाते थे। उनकी चिट्ठियों का संग्रह “श्रीमद राजचंद्र ग्रंथमाला” में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने कई जैन धर्म-ग्रंथो का रूपान्तर भी किया। उनकी शिक्षाओं का सार “अपूर्व अवसर नी भावना” नामक एक कविता में है। इस कविता को गांधीजी की “आश्रम भजनावली” में भी स्थान मिला था।
इन पुस्तकों के कारण श्रीमद्द राजचंद्र का नाम नरसिंह मेहता, नंदशंकर, नवलराम, नर्मदाशंकर, मणिलाल जैसे प्रसिद्ध गुजराती लेखकों के साथ लिया जाता है।
श्रीमद राजचन्द्र के विचार
अंग्रेजी और संस्कृत न जानते हुए भी गुजराती भाषा में उन्होंने जिस सुंदर ढंग से अपने भाव व्यक्त किए और भक्ति साहित्य की रचना की, वह सचमुच आश्चर्य में डालने वाली बात है। उनकी भाषा सरल और शैली गंभीर थी। उनके अनुसार, जैन धर्म का मतलब यही है कि राग-द्वेष और अज्ञान चला जाए, जिसका राग-द्वेष और अज्ञान चला जाए, उसी का कल्याण होता है। लोहा पानी में तैरता भी नहीं है, दूसरे को तारता भी नहीं है। यही दशा अज्ञान की है। जिस ज्ञानी पुरुष के वचन से आत्मा ऊपर आती है, वही सच्चा मार्ग है। उसी को धर्म समझिए। समुद्र किसी का नहीं होता, इसी तरह धर्म भी किसी का नहीं होता। जिसके मन में सत्य और दया आदि होते हैं, उसी के मन में धर्म होता है। यह धर्म अनादि काल से चला आ रहा है। यही शाश्वत है। क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी चोर दिन-रात हमारी चोरी करते रहते हैं, परंतु उनका हमें पता ही नहीं चलता।
‘सक्षेप में, जैन धर्म अहिंसा, सत्य, एकता, दया, सत्वानुकंपा, सर्वप्राणीहित, परमार्थ परोपकार, न्याय नीति, आरोग्यप्रद आहारपान, निर्यासन, उद्यम आदि का बोध कराता है, और हिंसा, असत्य, चोरी, क्रूरता, स्वार्थपरायणता, अनीति, अन्याय, छलकपट, विरुद्ध आहार, विहार, विषय, लालसा, आलस्य, प्रमाद आदि का निषेध करता है।“
उनके समस्त जीवन में लालसा और सांसारिक सुखों का कोई स्थान नहीं था | यश और कीर्ति के पीछे वह कभी नहीं दौडे। वैरांग्यभावना और सरलता उनके जीवन के मुख्य गुण थे।
उनके अनुयायी तो यहां तक मानते हैं कि उन्होंने संपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था और वह 25वे तीर्थकर बन गए थे।