लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा | Lakshminath Bezbaroa
कुछ समय पहले तो असम के लोग देश से बिल्कुल कटे हुए थे। असम वालों को देश की जानकारी पंद्रहवीं शताब्दी में असम के महान पुत्र और वैष्णव संप्रदाय के महान संत और महापुरुष श्री शंकरदेव ने दी थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में यही काम किया असमिया भाषा के सबसे बड़े साहित्यकार श्री लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा ने ।
उन्होंने एक ओर शेष भारत का परिचय असम को कराया और दूसरी ओर असमिया भाषा को भी बहुत समृद्ध बनाया | उन दिनों असमिया भाषा की कोई पूछ नहीं थी। यहां तक कि प्राइमरी स्कूलों में भी बच्चों की शिक्षा का माध्यम असमिया भाषा नहीं थी। स्वयं बेजबरुवा ने भी स्कूल में बांग्ला भाषा ही पढ़ी थी।
किंतु बाद में उन्होंने असमिया भाषा को खुब बढ़ाया और उसे अन्य भारतीय भाषाओं की बराबरी में ले आए | गद्य हो या पद्य, दर्शन हो या व्यंग्य | सभी में हम उनकी लेखनी का चमत्कार देखते हैं। असमिया साहित्य का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसे उन्होंने समृद्ध न किया हो। असमिया भाषा और असम के पुनरुत्थान में उनका योगदान अमिट है।
अनुक्रम (Index)[छुपाएँ]
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा द्वारा भ्रमरंग की रचना
असमियां भाषा उन्नति साधिनी सभा की स्थापना
जोनाकी पत्रिका की स्थापना | जोनाकी युग
वैष्णव संतों की जीवनियां की रचना
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा की नाटक रचना
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा के लेख व निबंध
शलक्ष्मीनाथ बेजबरुवा के व्यंग व हास्य लेख
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा के बाल साहित्य
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा का जन्म
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा का जन्म १८ नवंबर १९६८ को पूर्णिमा के दिन हुआ था, उनका जन्म कुछ विचित्र परिस्थितियों में हुआ था। उनके पिता श्री दीनानाथ बेजबरुवा सरकारी मुंसिफ थे और उन दिनों उन्हें तबादले का हुक्म मिल चुका था और उन्हें बरपेटा जाना था, उस समय आने-जाने का साधन या तो बैलगाड़ी थी या नाव था | उनके पिता भी ब्रह्मपुत्र नदी सफर कर रहे थे। लक्ष्मीनाथ का जन्म इसी यात्रा के दौरान आहतगुरी नामक स्थान पर हुआ।
इसीलिए श्री लक्ष्मीनाथ अपने को मजाक में “जलष्ठ” (जल में पैदा होने वाला) और वाकी लोगों को “भूमिष्ठ” (भूमि पर पैदा होने वाला) कहते थे।
उनके पिता अच्छे-खासे पैसे वाले थे, परंतु कट्टर वैष्णव होने के कारण तड़क-भड़क को नापसंद करते थे। उनका बचपन बरपेटा में बीता, जो असम में वैष्णवों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। इसलिए बालक लक्ष्मीनाथ पर वैष्णव विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा। संयम और अनुशासन के गुण उनके जीवन के अभिन्न अंग बन गए, तभी उन्होंने स्वतंत्र चिंतन करना भी सीखा । क्योंकि उनके पिता का बराबर तबादला होता रहता था, इसलिए बड़े होने तक वह अन्य स्थानों के अतिरिक्त गुवाहाटी, तेजपुर और लखीमपुर देख चुके थे। वहां की हरी-भरी पहाड़ियों और मनोरम दृश्यों के चित्र उनके मन पर सदैव अंकित रहे। उनकी रचनाओं में इनकी खूब छाप रही ।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा की शिक्षा
उन दिनों क्योंकि असमिया भाषा में पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उनका विद्यारम्भ बांग्ला में हुआ। फिर वह शिवसागर के अंग्रेजी गवर्नमेंट हाईस्कूल में पढ़े। १८८६ में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की पढ़ाई के लिए वह कलकत्ता चले गए। दो वर्ष बाद उन्होंने सिटी कालेज कलकत्ता से इंटरमीडिएट और फिर रिपन कालेज, कलकत्ता से बी.ए. की परीक्षाएं पास की। उन्होंने कलकत्ता में ही एम.ए. और वकालत की परीक्षा की तैयारी भी शुरू की, परंतु वह ये परीक्षाएं दे नहीं सके।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा की विवाह
कलकत्ता में रहते हुए ही वह कुछ प्रसिद्ध बंगाली परिवारों और बंगाली साहित्यकारों के संपर्क में आए। १८९१ में उनका विवाह महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर की भतीजी प्राज्ञसुंदरी देवी से हुआ। इस विवाह संबंध से कलकत्ता के साहित्यिकों से उनका परिचय और घनिष्ठ हो गया। कुछ समय बाद उन्होंने इमारती लकड़ी का व्यापार शुरू किया और अस्थायी तौर पर उड़ीसा में संबलपुर में रहने लगे। वहां उनका परिचय उड़िया भाषा के लेखकों और कवियों से हुआ। इस तरह उन्हें अंग्रेजी, बंगला और उड़िया साहित्य का अनुशीलन करने का अवसर मिला।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा द्वारा भ्रमरंग की रचना
असमिया भाषा को उन्नत बनाने की लगन उनमें विद्यार्थी अवस्था से ही थी। इसलिए कालेज में पढ़ते समय १८८८ में ही उन्होंने अपने दो और मित्रों – हेमचंद्र गोस्वामी और चंद्रकुमार अग्रवाल के साथ मिलकर शेक्सपियर की “कामिडी आफ एरस” का अनुवाद “भ्रमरंग” के नाम से किया। इस अनुवाद के प्रकाशित होते ही असमिया के युवा लेखकों में हलचल मच गई। नाटक लिखने की नई तकनीक और नए विचारों का उन्हें पता चला।
असमियां भाषा उन्नति साधिनी सभा की स्थापना
अपनी इस सफलता से उत्साहित होकर इन मित्रों ने मिलकर २५ अगस्त १८८८ को “असमियां भाषा उन्नति साधिनी सभा” की स्थापना की। बेजबरुवा इसके पहले मंत्री बने । इस सभा ने असमिया भाषा के विकास, प्राचीन असमिया ग्रंथों के प्रकाशन और संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों के अनुवाद के साथ-साथ इस बात की भी चेष्टा की कि असमिया भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए और असमिया भाषा में पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित की जाए।
जोनाकी पत्रिका की स्थापना | जोनाकी युग
अगले वर्ष १८८९ में कुछ मित्रों ने मिलकर “जोनाकी” पत्रिका की स्थापना की। बेजबरुवा कई वर्ष तक इसके संपादक रहे। असमिया साहित्य में इस पत्रिका का स्थान बहुत ही ऊंचा है। इस पत्रिका की बदौलत बहुत से नए असमिया लेखक प्रकाश में आए और उन्होंने विविध विषयों पर असमिया भाषा में लिखना शुरू किया । असमिया साहित्य ने “जोनाकी” पत्रिका के प्रारंभिक वर्ष “जोनाकी युग” के नाम से प्रसिद्ध हुए है |
बांही पत्रिका शुरूआत
जोनाकी पत्रिका के बाद उन्होंने “बांही” (बांसुरी) नामक पत्रिका शुरू की, बीस वर्ष से भी अधिक समय तक वह इसे चलाते रहे । अपने उच्च साहित्यिक स्तर के कारण यह पत्रिका असमिया की सर्वोत्कृष्ट पत्रिका मानी जाती रही। वह आदर्श संपादक थे। अपनी ही पत्रिका में उन्होंने अपनी पुस्तकों की तीखी आलोचनाएं छापी । कई अन्य पत्रिकाओं में भी उन्होंने लिखा। असमिया के अतिरिक्त उन्होंने बांग्ला में भी लिखा।
वैष्णव संतों की जीवनियां की रचना
बेजबरुवा ने जीवनी लेखक के रूप में भी नाम कमाया। उन्होंने “श्री शंकरदेव” और “महापुरुष शंकरदेव और माधव” के नाम से दो प्रसिद्ध वैष्णव संतों की जीवनियां लिखीं। वैष्णव दर्शन के लिए वह प्रसिद्ध विद्वान थे | यहां तक कि बडौदा के महाराजा गायकवाड़ ने १९३३ में उन्हें वैष्णव मत के विभिन्न पहलुओं पर एक भाषणमाला देने के लिए बुलाया । यह भाषण इतने सीधे-सादे शब्दों में थे कि उनकी बड़ी प्रशंसा हुई और बड़ौदा के शिक्षा विभाग ने इन्हें पुस्तक के रूप में छपवाया । उनके दर्शन संबंधी लेखों का संग्रह “तत्वकथा” नाम से छप चुका है। इसके बाद उन्होंने “पदुम कुंवरि” नाम से एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा की नाटक रचना
उपन्यास की अपेक्षा नाटक लिखने की ओर उनका ध्यान अधिक गया। उन्होंने असम के अहोम काल की पृष्ठभूमि में तीन ऐतिहासिक नाटक लिखे – कबेलिमार(सूर्यास्त), जयमती और चक्रध्वज सिन्हा। इन नाटकों के माध्यम से बेजबरुवा ने जनता में देशभक्ति की ज्वाला प्रज्ज्वलित करने की चेष्टा की। इन नाटकों में मानव प्रकृति का चित्रण करने में उन्हें बहुत सफलता मिली। परंतु ऐतिहासिक नाटकों से भी अधिक ख्याति उन्हें मिली व्यंग्य और हास्य लेखक के रूप में। उनकी टक्कर का हास्य और व्यंग्य लेखक असमिया में कोई दूसरा नहीं हुआ। इसी कारण उन्हें असमिया का “रसराज” कहा जाता है। उनकी कई रचनाएं पढ़कर पाठक की हंसी रोके नहीं रुकती। जैसे नोमल, पाचनी, चिकरपति-निकरपति, कृपावर बरुवार, काकतर, तोपोला, ओभोतानी आदि।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा के लेख व निबंध
इसके अतिरिक्त उन्होंने सैकड़ों लेख और निबंध भी लिखे। इन रचनाओं में उन्होंने उन लोगों पर करारा व्यंग्य किया है जो समाज के आदर्शों के अनुसार चलने को तैयार नहीं होते। उन लोगों को उन्होंने विशेष रूप से अपना शिकार बनाया जो किसी भी नई चीज को बिना सोचे समझे, महज नया होने के कारण उसको अपना लेते हैं। जिन लोगों में विचार शक्ति नहीं होती परंतु जो समाज के नेता बनाना चाहते हैं, वे भी उनकी मार से नहीं बचे। उन लोगों को वह सहन नहीं करते थे, जो कहते कुछ और करते कुछ थे। वह दकियानूसी और पुरातनपंथी विचारों को भी नापसंद करते थे। यद्यपि उनका व्यंग्य बहुत तीखा होता था परंतु वह अपने पीछे कड़वाहट नहीं छोड़ता था। इसका कारण यह है कि बेजबरुवा किसी के विचारों से भले ही सहमत न हो, परंतु वह किसी से नफरत नहीं करते थे।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा के व्यंग व हास्य लेख
सामाजिक विषयों के अतिरिक्त उन्होंने शुद्ध साहित्यिक व्यंग्य और हास्य लेख भी लिखे। कुछ तो अपनी रचनाओं में वह ठेठ ग्रामीण भाषा का प्रयोग करते थे, कुछ बातचीत विचित्र रूप धारण कर लेती थी और परिस्थितियां ऐसी होती थी कि अनायास ही हंसी आ जाती थी।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा के बाल साहित्य
बाल-साहित्य के लेखक के रूप में भी बेजबरुवा काफी प्रसिद्ध हुए। बच्चों के लिए कहानी कहने का ढंग उन्हें खूब आता था। उनकी कुछ बालपयोगी पुस्तकें हैं – साधु कथार कुकी (कथा संग्रह), बूट़ी आइर साधु (दादी की कहानी), ककादेउता अरु नतिलोरा (दादा और पोता)। बच्चे उनकी पुस्तकें बड़े चाव से पढ़ते हैं। असमिया की नई कहानी के भी वह पिता कहे जाते थे उनकी “सुखी” और “जोन-बीरी” शीर्षक कथाओं से ही असमिया की नई कहानी शुरू हुई।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा के कविताए
उनकी कविताएं भी कई विषयों को लेकर हैं उनकी कई देशभक्तिपूर्ण कविताएं बड़ी लोकप्रिय हुईं जैसे – आमार जन्मभूमि, मोर देश, विह, बिन बैरागी, असम संगीत आदि। उन्होंने कई भक्ति-गीत और आध्यात्मिक गीत भी लिखे जैसे – महाप्रयाणर यात्री, मोर जीवन, अवशेष, प्रेम, शांति, आत्मबोध, मुख्य लक्ष्य, ईश्वर अरु भक्त आदि।
उनके गाथा-गीत और लोकगीत इतनी उत्कृष्ट कोटी के हैं कि असमिया साहित्य में वह अमर माने जाने लगे हैं ऐसे कुछ प्रसिद्ध गीतों के नाम हैं – घनबर अरु रतनी, रतनीर वेजार, निमाती कन्या।
कुछ कविताओं में उन्होंने प्रकृति वर्णन भी किया है। कुछ कविताएं भाव-प्रधान हैं। कुछ कविताओं में हास्य और व्यंग्य का भी पुट है। उनकी कुछ कविताएं तो बहुत अच्छे ढंग से गाई जा सकती हैं। उनकी कुछ प्रारंभिक कविताओं का संग्रह “कदमकली” नाम से प्रकाशिक हुआ है।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा का असम साहित्य सभा अध्यक्ष चुनना
सन् १९२४ वह असम साहित्य सभा के अध्यक्ष चुने गए। उनकी साहित्य सेवाओं के कारण उन्हें “साहित्य रथी” की उपाधि से विभूषित किया गया।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा का निधन
१९३७ में वह वापस असम लौट आए। कठिन परिश्रम के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था। २६ मार्च १९३८ को डिब्रूगढ़ में उनका स्वर्गवास हो गया।
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