वी.एस. श्रीनिवास शास्त्री की जीवनी
V.S. Srinivasa Sastri Biography
श्रीनिवास शास्त्री का जन्म २२ सितंबर १८६९ में एक गरीब ब्राह्मण के घर हुआ था। उनका पूरा नाम वी.एस. श्रीनिवास शास्त्री था | उनके पिता का नाम वैदिक शंकरणरायन शास्त्री था | श्रीनिवास शास्त्री पढ़ने-लिखने में बहुत तेज थे। अपने विद्यार्थी जीवन में वह सदा सर्वप्रथम आते रहे। देशी और विदेशी खेलों में भी उन्होंने भाग लिया और काफी कुशलता भी दिखाई। एक मेघावी छात्र के रूप में वह बी.ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। फिर, एक-दो स्कूलों में अध्यापकी करने के उपरान्त १८९९ में वह मद्रास नगर में स्थित ट्रिप्लीकेन हिन्दू हाईस्कूल के हेडमास्टर नियुक्त हुए।
सन १९०७ में वह सर्वेण्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी में भर्ती हुए और सन १९१५ में गोपाल कृष्ण गोखले की मृत्यु के बाद उसके अध्यक्ष चुने गए। महात्मा गांधी का नाम भी इस सोसाइटी की सदस्यता के लिए आया था, लेकिन गांधी जी ने अपना नाम वापस लेकर बड़ी उदारता दिखाई। श्रीनिवास शास्त्री के शब्दों में – “महात्माजी के ओठों पर ताला लगाना देश के साथ विश्वासघात करना होता, क्योंकि सब लोग जानते थे कि गोखले और गांधीजी के विचारों में व्यापक अन्तर था।“
संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
पूरा नाम | वी.एस. श्रीनिवास शास्त्री |
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जन्म तारीख | २२ सितंबर १८६९ |
जन्म स्थान | वलंगिमान, तमिलनाडु |
धर्म | ब्राह्मण |
पिता का नाम | वैदिक शंकरणरायन शास्त्री |
कार्य | ट्रिप्लीकेन हिन्दू हाईस्कूल के हेडमास्टर, सर्वेण्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी के अध्यक्ष, मद्रास विधान परिषद् के मनोनीत सदस्य, केन्द्रीय विधान परिषद् के मनोनीत सदस्य, कौंसिल आफ स्टेट” में दमनकारी कानूनों रद्द करवाने में सफल, ब्रिटिश प्रिवी कौसिल के सदस्य, भारत सरकार के एजेंट जनरल, अन्नमलाई विश्वविद्यालय मद्रास के उपकुलपति |
मृत्यु तारीख | १७ अप्रैल, १९४६ |
मृत्यु स्थान | मलयपूर,मद्रास |
मृत्यु की वजह | सामान्य |
उम्र | ७७ वर्ष |
भाषा | हिन्दी,अँग्रेजी |
लेख | भारतीय नागरिक के अधिकार और कर्त्तव्य, गोपाल कृष्ण गोखले की जीवनी, सर फिरोजशाह मेहता की जीवनी, भारत में स्त्रियों के पद और अधिकार, कांग्रेस-लीग सुधार योजना, वाल्मीकि रामायण, श्रीनिवास शास्त्री के पत्र |
श्रीनिवास शास्त्री मद्रास विश्वविद्यालय के “फेलो”, मद्रास विधान परिषद् के मनोनीत सदस्य और केन्द्रीय विधान परिषद् के मनोनीत सदस्य रहे। इस अरसे में “रौलेट बिल” पर उन्होंने जो भाषण किया, उससे लोगों पर उनका प्रभाव बहुत बढ़ गया। दीनबन्धु एंड्रयूज के शब्दों में – “उसी दिन लोगों ने यह समझा कि इस सौम्य मूर्ति की तह में कितने जोरों से ज्वालामुखी भभक रहा है।“
अनुक्रम (Index)[छुपाएँ]
वी.एस. श्रीनिवास शास्त्री का जीवन परिचय
श्रीनिवास शास्त्री और सर्वेण्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी
भारतीय सुधार योजना, डोमोनियन स्टेटस और कौंसिल आफ स्टेट
श्रीनिवास शास्त्री पर दीनबंधु एंड्रयूज के विचार
श्रीनिवास शास्त्री पर महात्मा गांधी के विचार
सन १९१६ में लखनऊ में कांग्रेस का जो अधिवेशन हआ, उसमें भारतीय सुधार योजना तैयार की गई। उसे मुस्लिम लीग ने भी मंजूर किया। श्रीनिवास शास्त्री ने इस “कांग्रेस-लीग सुधार योजना” पर एक पुस्तक भी लिखी और देश के विभिन भागों में जाकर इस संबंध में आंदोलन किया। इसके अलावा, “डोमोनियन स्टेटस” पर भी उन्होंने एक बड़ा विद्वत्तापूर्ण लेख लिखा। जब भारत मंत्री अपनी प्रस्तावित सुधार योजना के विषय में भारतीय लोकमत का संग्रह कर रहे थे, उस समय श्रीनिवास शास्त्री ने मांटेग्यू चेप्सफोर्ड के प्रस्तावित सुधारों का समर्थन करना उचित समझा, क्योंकि उन्हें यह विश्वास हो गया था कि भारत मंत्री की प्रस्तावित सुधार योजना से ही भारत स्वराज्य की ओर प्रगति कर सकेगा फलत: जब उन्होंने मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार योजना के पक्ष में राय दी, तो कांग्रेस के उग्र दल से उनका मतभेद हो गया। इसी समय, १९१८ में बहुत से नर्म दल वाले नेताओं ने कांग्रेस छोड़ कर एक स्वतंत्र दल बनाया। उस समय श्रीनिवास शास्त्री का मत था कि नर्म दल वालों को कांग्रेस कदापि नहीं छोड़नी चाहिए। तदनुसार ही १९२० तक वह कॉंग्रेस के सदस्य रहे और इस विपरीत दशा मे भी बराबर इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि भारतीयों की आजादी पर जो बंधन लगाए गए हैं, वे हटाए जाएं और भारतीयों की स्वतंत्रता दिन पर दिन बढ़ती जाए इसी उद्देश्य से “कौंसिल आफ स्टेट” में (जिसके वह मनोनीत सदस्य थे) तमाम दमनकारी कानूनों को रद्द करवाने में वह सफल हुए।
सन १९२१ में श्रीनिवास शास्त्री और महाराज कच्छ भारत सरकार की ओर से इंपीरियल कांफ्रेंस में भेजे गए। तभी से उपनिवेशों में बसे हुए भारतीयों की दुर्दश की ओर श्रीनिवास शास्त्री का ध्यान गया और वह उनके कल्याण के लिए प्रयत्नशील हुए। उनकी दशा सुधारने के लिए उन्होंने जो काम किए, उनके कारण देश-विदेश में उनकी ख्याति हुई। लंदन में होने वाली ब्रिटिश साम्राज्य परिषद, जेनेवा के राष्ट्र संघ और ब्रिटिश साम्राज्य के स्वशासित उपनिवेशों में जाकर उन्होंने जो काम किए, उनके कारण भारत का मान, वास्तिव में बहुत बढ़ा। सन १९२१ मे वह ब्रिटिश प्रिवी कौसिल के सदस्य बनाए गए और लंदन नगर में उन्हें अपना “स्वतंत्र नागरिक” बनाया। १९२३ में उन्होंने प्रधान के रूप में केनिया के उस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया, जो लंदन स्थित औपनिवेशिक मंत्री से, भारतीयों पर प्रस्तावित बंधनों के विरोध में, परामर्श करने के लिए गया था। इस मण्डल में भारत के कई और सज्जन भी भेजें गए थे। इन सज्जनों में दीनबंधु एंड्रयूज भी थे। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा है कि – “इस अवसर पर श्रीनिवास शास्त्री ने भारत सरकार की ओर से भारतीय राजदूत का काम किया। भारत सरकार चाहती थी कि उपनिवेशों की विभिन्न जातियों में कोई भेद न किया जाए और भारतीयों को वही नागरिक अधिकार उन उपनिवेशों में प्राप्त हों, जो गोरों को प्राप्त हैं। लेकिन केन्या से गोरों का जो प्रतिनिधिमंडल आया था, उसका लंदन में बड़ा प्रभाव था। अत: भारतीयों की इस मामले में हार हुई, यद्यपि तीन बातों में से एक बात का फैसला ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के पक्ष में दिया और दो बातों का फैसला भारत के विरुद्ध हुआ। इस पर श्रीनिवास शास्त्री ने उस समय जो बात कही थी, उसकी गुंज भारत भर में फैल गई। श्रीनिवास शास्त्री ने उस अवसर पर कहा था कि यदि केन्या में हम हार गए, तो हर बात में हमारी हार होगी। उनका यह वाक्य उस समय प्रत्येक भारतीय की जुबान पर था।“
केन्या के विषय में इस फैसले का श्रीनिवास शास्त्री पर बड़ा गहरा असर पड़ा। यह कहना अत्युक्ति न होगा कि इस फैसले ने उनके राजनीतिक दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन कर दिया। सर वेलेनटाइन चिरोल ने (जो लंदन के प्रसिद्ध पत्र “टाइम्स” के औपनिवेशिक संपादक थे)लिखा है कि श्रीनिवास शास्त्री तभी से भारत को स्वराज्य देने की मांग करने लगे, क्योंकि इंग्लैंड की निष्पक्षता से उनका विश्वास एक दम हट गया ।
सन १९२५-२६ में भारत सरकार ने भारतीयों के विषय में दक्षिण अफ्रीका की सरकार से समझौता करने के लिए जो प्रतिनिधिमंडल भेजा, उसमें श्रीनिवास शास्त्री भी थे इस प्रतिनिधि मंडल ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार से जो समझौता किया, उसको कार्यान्वित करने के लिए भारत सरकार को एक ऐसे भारतीय की जरूरत पड़ी, जो दक्षिण अफ्रीका में भारत के एजेंट जनरल के पद पर नियुक्त किया जा सके। इस मामले में महात्मा गांधी से भारत सरकार से पूछा। गांधी जी ने भारत सरकार को लिखा कि इस काम को श्रीनिवास शास्त्री के अलावा कोई दूसरा भारतीय नहीं कर सकता। भारत सरकार ने महात्मा जी की इस सम्मति को मान लिया।
यह बात बहुतों को भविष्य में खटकेगी, जैसे अतीत में कई वर्षों तक बहुतों के दिलों में खटकती रही है, कि महात्मा जी के असहयोग आंदोलन का प्रबल विरोध करने पर भी श्रीनिवास शास्त्री और महात्मा गांधी में इतना घनिष्ठ प्रेम न केवल उस समय था, बल्कि दो में से एक के मरने के समय तक बना रहा। इस बारे में दो महानुभावों की सम्मति, जो इन दोनों से बखूबी परिचित थे, उल्लेखनीय है। दोनों के परस्पर घनिष्ठ प्रेम के पहले साक्षी हैं दीनबंधु एंड्रयूज, और दूसरे हैं स्वर्गीय महादेव देसाई, जो आजीवन महात्माजी के अनन्य भक्त, सेवक और शिष्य होने में ही अपना गौरव मानते थे।
दीनबंधु एंड्यूज का कहना है कि राजनीति में लोगों का इनसे मतभेद भले हो, किंतु उनकी नैतिक सच्चाई और ईमानदारी में किसी को कभी संदेह नहीं हुआ। एक अन्य लेख में भी दीनबंधु एंड्रयूज ने लिखा है कि गांधीजी ने कई स्थानों पर अपने इस विरोधी नेता के प्रति प्रेम और मित्रता का उल्लेख करते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
जब असहयोग आंदोलन अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया और गांधी जी को कारावास की लंबी सजा दी गई, तब गांधी जी में श्रीनिवास शास्त्री की श्रद्धा और अधिक बढ़ गई । इस सिलसिले में दीनबंधु एंड्रयूज ने एक घटना का भी उल्लेख किया है, जिससे श्रीनिवास शास्त्री के प्रति महात्मा जी के प्रेम और मैत्री पर काफी प्रकाश पड़ता है। कारावास के दिनों में डाक्टरों ने राय दी कि रोगग्रस्त गांधी जी की जान तभी बच सकती है, जब वह चीर-फाड़ (आपरेशन) के लिए रजामंद हो जाएं। आखिर, गांधी जी राजी हो गए। तब, आपरेशन के पहले, डाक्टरों ने महात्मा जी से पूछा कि वह अपने किस मित्र से मिलना और अपना अंतिम संदेश देना पसंद करेंगे। जो आपरेशन होने वाला था, वह इतना भयंकर था, कि डाक्टरों को भी आशंका थी कि शायद इस आपरेशन के दौरान गांधी जी की मृत्यु हो जाए। गांधी जी ने डाक्टरों को उत्तर दिया कि अंतिम भेंट के लिए श्रीनिवास शास्त्री बुलाए जाएं । तदनुसार ही, शास्त्री जी बुलाए गए और गांधी जी उनके साथ एकांत में कुछ देर तक बातें करते रहे।
इस संबंध में स्वर्गीय महादेव देसाई की गवाही का जिक्र करना भी आवश्यक है। शास्त्री- गांधी मैत्री विषयक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि इसकी व्याख्या की क्या जरूरत है। जाहिर है कि व्यापक मतभेद होते हुए भी उनका एक दूसरे के प्रति मान और स्नेह कभी घट नहीं पाया। महादेव भाई का कहना है कि शास्त्री जी और गांधी जी, दोनों ही सत्य के उपासक थे और सत्य के हजार पहलू होते हैं, इसलिए स्वाभाविक था कि दोनों में मतभेद होते। शास्त्री जी हर बात को तर्क की कसौटी पर कसते थे। उनका कहना था कि सब बातों को ठोक-बजा कर देख लो और उनमें जो ठीक जंचे, उसी को ग्रहण करो। इसके विपरीत गांधी जी का आदर्श था कि अनदेखी बातों का अंतिम प्रमाण श्रद्धा है। श्रीनिवास शास्त्री ज्ञेय बातों से आगे बढ़ने में झिझकते थे। दूसरी ओर, गांधी जी ज्ञेय से अज्ञेय की ओर निर्भयता से बढ़ते चले जाते थे, क्योंकि उनमें श्रद्धा थी, जो अदृश्य बातों का सबसे बड़ा प्रमाण है।
शास्त्री जी दक्षिण अफ्रीका में भारत सरकार के एजेंट जनरल १९२१ से लेकर जनवरी, १९२९ तक रहे। दक्षिण अफ्रीका में उनके सफल कार्य संपादन के उपलक्ष्य में वायसराय उन्हें “सर” की उपाधि से अलंकृत करना चाहते थे। पर इस आशय का प्रस्ताव जब उनके पास पहुंचा, तब उन्होंने बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया।
शास्त्री जी प्रथम और द्वितीय गोलमेज कांफ्रिंसो के सिलसिले में लंदन गए, लेकिन तीसरी कांफ्रेंस में वह नहीं बुलाए गए। उनको न बुलाने का कारण, सरकारी तौर पर, उनको अस्वस्थता बताया गया। लेकिन वास्तव में, तत्कालीन ब्रिटेन में अनुदार दल का बोलबाला था और भारत मंत्री भी अनुदार दल के ही एक सदस्य थे। अनुदार दल ने उन्हें बुलाना पसंद नहीं किया।
आगे चलकर, तत्कालीन भारत मैत्री ने जिन सुधारों का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, उसका शास्त्री जी ने घोर विरोध किया। उदाहरण के लिए, केंद्र में जो सुधार भारत मंत्री ने अपनी योजना में रखे थे, उन्हें देखकर श्रीनिवास शास्त्री ने कहा था कि इससे भारत आगे नहीं बढ़ेगा, वह तो बहुत पीछे चला जाएगा। देशी रजवाड़े भी केंद्र में सुधारों के लिए उत्सुक न थे | भारत सरकार ने अंत में यही तय किया कि केंद्र में कोई सुधार न हो और भारत के वायसराय और उसकी कार्यपालिका भी शक्ति तथा अधिकारों में कोई उलट-फेर न किया जाए | उधर, ब्रिटेन का अनुदार मंत्रिमंडल भी चाहता था कि भारत सरकार पर भारत मंत्री की सत्ता जितने दिनों तक बनी रह सके, उसे बनाए रखना चाहिए।
सन १९३५ में श्रीनिवास शास्त्री मद्रास के अन्नमलाई विश्वविद्यालय के उपकुलपति बनाए गए। फिर, १९३६ में वह भारत सरकार की ओर से मलय में बसे हुए भारतीय श्रमिकों की दशा देखने और सुधार लाने के उपायों का सुझाव देने के लिए भेजे गए। उन्होंने भारतीय श्रमिकों की दशा में सुधार लाने के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए। सन १९४० में अस्वस्थता के कारण श्रीनिवास शास्त्री ने अन्नमलाई विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद से इस्तीफा दे दिया।
भारत के बायसराय लार्ड विलिंगडन ने १९३२ में श्रीनिवास शास्त्री के केंद्र की तत्कालीन कौसिल के सभापति पद को स्वीकार करने का भी अनुरोध किया था, पर शास्त्री जी सहमत नहीं हुए थे। इसी तरह, १९३३ में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से रोड्स स्मारक व्याख्यानमाला में तीन व्याख्यान देने के लिए शास्त्री जी के पास निमंत्रण आया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। इस व्याख्यानमाला के अंतर्गत व्याख्यान देने के लिए उनके पास दो और निमंत्रण आए, लेकिन हर बार उन्होंने अस्वीकृति जताई।
सन १९४२ के “भारत छोड़ो” आंदोलन के समय उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि महात्मा गांधी आदि कांग्रेसी नेता ही देश के वास्तविक नेता हैं और ब्रिटिश सरकार को उन्हीं से राजनीतिक समझौता करना चाहिए। क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों के वह वैसे ही घोर विरोधी थे, जैसे महात्मा जी। महात्मा जी के समान ही उन्होंने भारत के प्रस्तावित बंटवारे (भारत और पाकिस्तान के दो स्वतंत्र राज्यों में बंटवारे) का भी घोर विरोध किया। उनकी राष्ट्रीयता इतनी तेज थी कि उन्होंने एक अवसर पर स्पष्ट रूप से कहा कि महाबुद्ध (द्वितीय) के बाद जो शांति सम्मेलन होगा, उसमें भारत के प्रतिनिधियों की हैसियत से महात्मा गांधी या नेहरू के स्थान पर चर्चिल(तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री) को बैठा देखने की अपेक्षा ईश्वर मुझे मौत दे, तो अच्छा हो।
श्रीनिवास शास्त्री ने तमिल में आत्मकथा भी लिखी है। उन्हें वाल्मीकि रामायण में बड़ी श्रद्धा थी। १९४४ में इस महाकाव्य पर उन्होंने तीस व्याख्यान दिए थे। ये तीस व्याख्यान पुस्तकाकार प्रकाशित हो गए | एक बार उन्होने कहा था की मैंने अपना सारा जन्म राजनीति मे पड़कर व्यर्थ ही बर्बाद किया यदि में रामायण का प्रचार करता, तो देश का सबसे अधिक कल्याण कर सकता था, क्योंकि देशवासी चरित्रवान होंगे, तो देश का कल्याण होने में देर नहीं लगेगी।
वह सिद्धांतवादी राजनीतिज्ञ थे। वक्ता के रूप में उनकी शक्ति अलौकिक थी। वह शब्दों के चयन के अपूर्व कलाकार थे। उचित शब्दों का ठीक स्थान कर प्रयोग करना उनकी विशेषता थी। पर इसके साथ ही, पत्र-लेखन कला में भी वह अद्वितीय थे। पत्र लिखते समय श्रीनिवास शास्त्री अपने दिल की बात साफ-साफ कह देते थे संसार के प्रसिद्ध पत्र लेखकों में उनकी गिनती है। उनके पत्रों को पढ़ने से यह सहज ही पता चल जाता है कि उनकी सहानुभूति छोटे- बड़ों के प्रति एक-सी थी।
गोपाल कृष्ण गोखले के बारे में मैसूर विश्वविद्यालय में शास्त्री जी ने तीन व्याखयान दिए थे। इस विश्वविद्यालय उपकुलपति ने व्याख्यानों की समाप्ति पर श्रीनिवास शास्त्री को धन्यवाद देते हुए उनकी बहुत ही प्रशंसा की थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय में भी “भारतीय नागरिक के अधिकारों” पर बोलने के लिए श्रीनिवास शास्त्री को आमंत्रित किया गया। इन दोनों ही विश्वविद्यालयों ने क्रमशः “गोखले” और “भारतीय नागरिकता” पर उनके व्याख्यानों को पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। ये व्याख्यान उनकी भाषा की सरलता और सादगी के ‘उत्कृष्ट संगम हैं।
“एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका” के एक संस्करण ने उन्हें भारत का सर्वश्रेष्ठ वक्ता कहा गया है। वस्तुतः जहां कहीं वह गए, अपनी प्रतिभा से उन्होंने भारतीयों का मान बढ़ाया। उन्हें ब्रिटेन के स्वशासित उपनिवेश वालों ने एक स्वर से प्रभावशाली, बुद्धिमान और सर्वश्रेष्ठ महापुरुष माना। श्रीनिवास शास्त्री के अलावा, कोई दूसरा भारतवासी नेता भारत के मान को विदेशों में इतना ऊंचा न उठा पाता। उनकी सौम्य मूर्ति, मधुर वाणी और निष्पक्षता विदेशियों के मन मिनटों में ही लुभा लेती थी। उनकी सफलता का सबसे बड़ा रहस्य था-उनकी ईमानदारी, सत्यप्रियता, निर्भीकता और निष्पक्षता। जिसके सामने दूसरों के सिर आप-से-आप झुक जाते थे।
श्रीनिवास शास्त्री ने अपने जीवन काल में अंग्रेजी भाषा में कई ग्रंथों की रचना की, जिनके नाम हैं – भारतीय नागरिक के अधिकार और कर्त्तव्य, गोपाल कृष्ण गोखले की जीवनी, सर फिरोजशाह मेहता की जीवनी, भारत में स्त्रियों के पद और अधिकार, कांग्रेस-लीग सुधार योजना, वाल्मीकि रामायण और श्रीनिवास शास्त्री के पत्र।
१७ अप्रैल, १९४६ को भारत की इस महान विभूति का महाप्रस्थान हुआ।
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