श्रीनिवास अय्यंगार की जीवनी
S. Srinivasa Iyengar Biography
उनीसवीं शताब्दी के अंत में और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत में ऐसी अनेक विभूतियों ने जन्म लिया, जो अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और नि:स्वार्थ सेवा के कारण देश में विशेष रूप से प्रसिद्ध हुए। ऐसे ही महापुरुषों में मद्रास के एस. श्रीनिवास अय्यंगार का स्थान काफी ऊंचा है।
संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
पूरा नाम | एस. श्रीनिवास अय्यंगार |
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जन्म तारीख | ११ सितंबर १८७४ |
जन्म स्थान | रामनाथपुरम (मद्रास) |
धर्म | हिन्दू |
पिता का नाम | शेषाद्री अय्यंगार |
पत्नि का नाम | रंगनायकी |
पिता का कार्य | वकील |
शिक्षा | प्रारम्भिक शिक्षा(मदुरै), बी०ए॰(प्रेसिडेंसी कालेज,मद्रास), बी०एल०(ला कालेज) |
कार्य | स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, वकालत, हिंदू ला नामक ग्रंथ में संशोधन और परिवर्तन, मद्रास के एडवोकेट जनरल, कांग्रेस के सदस्य, स्वराज पार्टी की स्थापना, |
मृत्यु तारीख | १९ मई १९४१ |
मृत्यु स्थान | मद्रास |
उम्र | ६७ वर्ष |
भाषा | हिन्दी, अँग्रेजी, तमिल |
श्रीनिवास अय्यंगार का जन्म ११ सितंबर १८७४ में मद्रास राज्य के रामनाथपुरम जिले में एक साधारण परिवार में हुआ। इनके पिता शेषाद्री अय्यंगार मामूली प्लीडर (वकील) थे। यद्यपि वह अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे, फिर भी अपनी व्यवहार कुशलता से अपने पेशे में यशस्वी हुए और उन्होंने बहुत धन भी कमाया। श्रीनिवास अय्यंगार ने कानून संबंधी ज्ञान अपने पिता से विरासत के रूप में प्राप्त किया।
श्रीनिवास अय्यंगार की प्रारंभिक शिक्षा मदुरै में हुई। बाद में वह मद्रास के प्रेसिडेंसी कालेज में भर्ती हुए, जहां से वह बी० ए० परीक्षा में पहली श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। फिर उन्होंने ला कालेज में कानून का अध्ययन किया और १८९८ में मद्रास से बी० एल० उपाधि ली।
बचपन से ही श्रीनिवास अय्यंगार में ऊंचा उठने की बड़ी लगन थी। उन दिनों कितने ही लोग उन्नत शिक्षा के लिए इंग्लैंड जाते थे। श्रीनिवास अय्यंगार की भी बड़ी इच्छा थी कि वह इंग्लैंड जाकर उच्च शिक्षा पाएं। लेकिन उनके पिताजी धार्मिक मनोवृत्ति के थे। इसलिए उन्हें विलायत जाने की अनुमति नहीं मिली।
श्रीनिवास अय्यंगार की शादी सुप्रसिद्ध वकील सर वी० भाष्यम अय्यंगार की पुत्री रंगनायकी के साथ हुई। तब से श्रीनिवास अय्यंगार अपने ससुर के जूनियर के रूप में वकालत करने लगे।
भाष्यम अय्यंगार बड़े प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति थे, उनको अंग्रेजी राज में मद्रास हाई कोर्ट के पहले भारतीय एडबौकेट जनरल होने का सम्मान प्राप्त हुआ था भाष्यम अय्यंगार की देख रेख में श्रीनिवास अय्यंगार को चमकने में अधिक समय नहीं लगा। वैसे विश्वविद्यालय का अध्ययन समाप्त करते ही श्रीनिवास अय्यंगार ने वकालत शुरू कर दी थी। थोड़े हो समय मे श्रीनिवास अय्यंगार की गणना उच्चकोटि के धुरंधर वकीलों में होने लगी | समय आने पर हिंदू ला नामक ग्रंथ में संशोधन और परिवर्तन करके उसका एक नवीन संस्करण प्रकाशित करने का काम उन्हें सौंपा गया। यह काम उन्हें इसलिए सौंपा गया था कि हिंदू धर्मशास्त्र में पारंगत होने के संबंध में उनकी ख्याति बहुत पहले ही फैल चुकी थी।
अपने पेशे में श्रीनिवास अय्यंगार अपने परिश्रम के बल पर मशहूर हुए। मुकदमों की जांच वह वड़ी बारीकी से करते थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। पैरवी करते समय वह पिछले कितने ही फैसलों के उदाहरण धड़ाधड़ पेश करते थे। मुकदमे संबंधी कागजों को एक बार पढ़कर हो वह मुवक्किलों से कह देते थे कि मुकदमे में सफलता मिलेगी या नहीं। कितने ही जूनियर वकील भी उनसे मिलकर मुकदमें की बारीकियां समझ लेते थे और बाद में अदालत में पैरबी करते थे।
श्रीनिवास अय्यंगार १९१६ में मद्रास के एडवोकेट जनरल नियुक्त किए गए। इस पद पर काम करते हुए उन पर देश की जागृति का प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे वह होमरूल लोग की हलचलों के साथ राजनीति की ओर आकर्षित होने लगे, इसके पूर्व ही वह उन सब हलचलों में भी दिलचस्पी लेने लगे थे जो कि सामाजिक सुधारों के संबंध में राममोहन राय के जमाने से ही चल रही थीं। प्रति वर्ष होने वाले कांग्रेस के अधिवेशनों में उनकी गतिविधियों का केंद्र सामाजिक परिषदें ही हुआ करती थीं।
जिन दिनों होम रूल लीग की कार्रवाइयां जोरों पर थीं, उसके कुछ समय बाद ही पंजाब में जलियांवाला कांड हुआ। जलियांवाला कांड की सारे देश में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी और इसके प्रमुख नेता थे महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू तथा स्वामी श्रद्धानंद आदि। श्रीनिवास अय्यंगार भी जलियांवाला कांड के फलस्वरूप असहयोगी बन गए। स्वतंत्रता प्रेमी होने के कारण अंग्रेज सरकार के दिए हुए एडवोकेट जनरल के पद से उन्होंने १९२० में इस्तौफा दे दिया। इसके बाद श्रीनिवास अय्यंगार कांग्रेस के सदस्य बन कर देश के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए। उस समय महात्मा गांधी इस आंदोलन के नेता थे। उनके मार्ग-दर्शन में असहयोग आंदोलन चल रहा था। असहयोग आंदोलन में श्रीनिवास अय्यंगार का विश्वास नहीं था। अहिंसा और खादी से बहुत कुछ हो सकेगा, इसकी उन्हें कम ही आशा थी वस्तुतः वह गरम दल वालों की राजनीति को सही समझते थे।
श्रीनिवास अय्यंगार को यह मान्य नहीं था कि कांग्रेस पूरी तरह गांधी जी के रास्ते पर चले। उनका ख्याल था कि ऐसा होने से एक राजनीतिक संस्था के रूप में कांग्रेस की शक्ति उतनी नहीं बढ़ सकती जितनी कि बढ़नी चाहिए। आगे चल कर उन्होंने बंगाल के नेता चित्तरंजन दास के साथ मिल कर स्वराज्य पार्टी स्थापित की। वह चाहते थे कि विधान सभाओं में जाकर अंग्रेज सरकार के दांत खट्टे किए जाएं। महात्मा गांधी से मौलिक मतभेद रखते हुए भी उन्होंने १९२० में अपनी सी० आई० ई० की उपाधि सरकार को लौटा दी थी। यह काफी साहस का काम था। इससे यह भी प्रकट होता है कि अपनी सूझ-बूझ के अनुसार कार्य करते हुए भी उनमें किसी तरह की कट्टरता न थी। अपनी खूब चलती हुई वकालत को भी उन्होंने इसी प्रकार छोड़ दिया था। श्रीनिवास अय्यंगार के स्वभाव की यह विशेषता थी कि जिस वस्तु को वह छोड़ना चाहते थे, उसे बिना लाग-लपेट के छोड़ देते थे। बाद में उन्होंने धारा सभा के निर्वाचन के लिए उम्मीदवार होने से इंकार कर दिया। वह अपना सारा समय कांग्रेस के काम में लगाने लगे थे उनकी कार्रवाइयों से मद्रास में जागृति की लहर फैल गई। उनके जुट कर परिश्रम करने का ही यह नतीजा था कि मद्रास में म्युनिसिपेलिटियों में कांग्रेस का बहुमत हो गया। इसी प्रकार केंद्रीय धारा सभा में मद्रास की ओर कांग्रेस का बहुमत स्थापित करने में उनका बड़ा हाथ था। वह स्वयं १९२३ में केंद्रीय धारा सभा के सदस्य चुने गए और मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में स्वराज पार्टी के डिप्टी लीडर हुए।
श्रीनिवास अय्यंगार १९२४ से १९३० तक केंद्रीय धारा सभा के सदस्य थे। उस समय के उनके ओजस्वी भाषण बहुत सराहे गए थे। सन १९२६ में वह कांग्रेस के गौहाटी अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। उस समय ही उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रतिपादन किया। तीन वर्ष बाद लाहौर कांग्रेस में पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य को बाकायदा स्वीकार कर लिया गया।
सन १९२८ में मद्रास में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसको सफल बनाने का श्रेय श्रीनिवास अय्यंगार को था। वही स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। शीघ्र ही श्रीनिवास अय्यंगार का कांग्रेस की नीति से मतभेद हो गया और उन्होंने कांग्रेस की कार्रवाइयों में भाग लेना बंद कर दिया। जब १९३० में सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ा गया तो वह कांग्रेस से अलग हो गए। राजनीति के क्षेत्र में उनको फिर से लाने की कोशिश कई मित्रों ने की। पर उनके प्रयत्न सफल नहीं हुए।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस से आपको बड़ी मित्रता थी सन १९३९ में जब बोस मद्रास पधारे थे, तब वह अय्यंगार जी के यहां ठहरे थे। श्रीनिवास अय्यंगार का देहांत १९ मई १९४१ में हुआ। श्रीनिवास अय्यंगार की देशभक्ति अनोखी थी। कितने ही देशभक्तों के परिवारों को उन्होंने खुले दिल से सहायता पहुंचाई।
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