श्रीनिवास रामानुजन का जीवन परिचय | श्रीनिवास रामानुजन बायोग्राफी | श्रीनिवास रामानुजन की खोज | srinivasa ramanujan in hindi
हाल में ही रामानुजन जन्म शताब्दी मनायी गई थी । इस तथ्य से ही स्पष्ट हो जाता है कि रामानुजन कितने महान गणितज्ञ थे । उनके द्वारा दिए गये संख्याओं के सिद्धांत किसी से छिपे नहीं हैं । इनके जीवन की एक बड़ी ही दिलचस्प घटना है ।
श्रीनिवास रामानुजन की प्रतिभा
जब ये छोटे थे तो इनके अध्यापक गणित की कक्षा ले रहे थे । अध्यापक ने ब्लैकबोर्ड पर तीन केलों के चित्र बनाये और विद्यार्थियों से पूछा कि यदि हमारे पास तीन केलें हों और तीन विद्यार्थी हों तो प्रत्येक बच्चे के हिस्से में कितने केले आयेंगे ? सामने की पंक्ति में बैठे हुए एक विद्यार्थी ने तपाक से उत्तर दिया, “प्रत्येक विद्यार्थी को एक केला मिलेगा । अध्यापक ने कहा, “बिल्कुल ठीक”
जब अध्यापक भाग देने की क्रिया को आगे समझाने लगे तभी एक कोने में बैठे एक बच्चे ने प्रश्न किया, “सर, यदि कोई भी केला किसी को न बांटा जाये तो क्या तब भी प्रत्येक विद्यार्थी को एक केला मिल सकेगा ।
इस बात पर सभी विद्यार्थी ठहाका मार कर हंस पड़े और कहने लगे कि क्या मूर्खतापूर्ण प्रश्न है ।
इस बात पर अध्यापक ने अपनी मेज जोरों से थपथपाई और बच्चों से कहा कि इसमें हंसने की कोई बात नहीं है । मैं आप लोगों को बताऊंगा कि यह विद्यार्थी क्या पूछ रहा है । अध्यापक ने कहा कि बच्चा यह जानना चाहता है कि यदि शून्य का शून्य से विभाजित किया जाये तो भी क्या परिणाम एक ही होगा ।
विद्यार्थी ने जो प्रश्न पूछा था इसका उत्तर ढूंढने के लिये गणितज्ञों को सैकड़ों वर्षों का समय लगा था | इस प्रश्न को समझाते हुए अध्यापक ने कहा कि इसका उत्तर शून्य ही होगा ।
कुछ गणितज्ञों का दावा था कि यदि शून्य को शून्य से विभाजित किया जाये तो उत्तर शून्य ही होगा, लेकिन कुछ का कहना था कि उत्तर एक होगा । इस प्रश्न का सही उत्तर खोजा था भारतीय गणितज्ञ भास्कर ने, जिन्होंने सिद्ध करके दिखाया था कि शून्य को शून्य से विभाजित करने पर परिणाम अनन्तता (Infinity) होगा ।
इस प्रश्न को पूछने वाला विद्यार्थी था श्रीनिवास रामानुजन, जो अनेक कठिनाइयों के बावजूद भी बहुत महान गणितज्ञ बना ।
श्रीनिवास रामानुजन का जन्म
तमिलनाडु में २२ दिसंबर १८८७ को जन्मे इस बालक के पिता एक कपड़े की दुकान पर एक छोटे से क्लर्क थे । धन के अभाव में उचित शिक्षा की सुविधायें इन्हें नहीं मिल पाईं । जब वह केवल १३ वर्ष के थे तभी इन्होंने लोनी द्वारा रचित विश्व प्रसिद्ध ट्रिगनोमेट्री को हल कर डाला था । जब वे मात्र १५ वर्ष के थे तब उन्हें जार्ज शूब्रिज कार (George Shoobridge Carr) द्वारा रचित एक पुस्तक “Synopsis of Elementary Results in Pure and Applied Mathematics” प्राप्त हुई ।
इस पुस्तक में लगभग ६ हजार प्रमेयों (Theorems) का संकलन था । उन्होंने इन सारी प्रमेयों को सिद्ध करके देखा और इन्हीं के आधार पर कुछ नयी प्रमेय विकसित कीं ।
श्रीनिवास रामानुजन की शिक्षा
सन् १९०३ में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से छात्रवृत्ति प्राप्त की । लेकिन अगले वर्ष ही यह छात्रवृत्ति उनसे छीन ली गई क्योंकि वे दूसरे विषयों में पास न हो पाये । इसका कारण था कि वे गणित को ही अधिक समय देते थे और इस कारण दूसरे विषय उपेक्षित रह जाते थे । उनके परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने से उनके पिता को गहरा धक्का लगा । जब उनके पिता ने देखा कि यह लड़का सदा ही संख्याओं से खिलवाड़ करता रहता है तो उन्होंने सोचा कि शायद यह पागल हो गया है । उसे ठीक करने के लिये पिता ने रामानुजन की शादी करने का निश्चय किया और जो लड़की उनके लिये पत्नी के रूप में चुनी गई वह थी एक आठ वर्षीय कन्या जानकी ।
श्रीनिवास रामानुजन के कार्य
इसके पश्चात् उन्हें नौकरी की तलाश थी । उन्हें केवल अपने भोजन के लिए ही पैसे की आवश्यकता नहीं थी बल्कि उससे भी ज्यादा आवश्यकता थी गणित का काम करने के लिए कागजों की । पैसे के अभाव में उनकी स्थिति यहां तक पहुंच गई कि वे सड़कों पर पड़े कागज उठाने लगे । कभी-कभी तो वे अपना काम करने के लिये नीली स्याही से लिखे कागजों पर लाल कलम से लिखते थे । बहुत प्रयास करने पर उन्हें मुश्किल से २५ रुपए माहवार की क्लर्क की नौकरी मिली । अंत में कुछ अध्यापकों और शिक्षा-शास्त्रियों ने उनके कार्य से प्रभावित होकर उन्हें छात्रवृत्ति देने का फैसला किया और उन्हें मई १९१३ को मद्रास विश्वविद्यालय ने ७५ रुपए माहवार की छात्रवृत्ति प्रदान की। यद्यपि इस छात्रवृत्ति को प्राप्त करने के लिए उनके पास में कोई डिग्री नहीं थी । इन्हीं दिनों रामानुजन ने अपने शोध कार्यों से सम्बन्धित एक पत्र कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विख्यात गणितज्ञ जी.एच. हार्डी (G.H. Hardy) को लिखा । इस पत्र में उन्होंने अपनी १२० प्रमेय प्रो. हार्डी को भेजी थीं । हार्डी और उसके सहयोगियों को इस कार्य की गहराई परखने में देर न लगी। उन्होंने तुरन्त ही रामानुजन के कैम्ब्रिज आने के लिए प्रबन्ध कर डाले और इस प्रकार १७ मार्च, १९१४ को रामानुजन ब्रिटेन के लिए जलयान द्वारा रवाना हो गये ।
रामानुजन ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अपने आपको एक अजनबी की तरह महसूस किया । ठंड सहन करना उनके लिये काफी कठिन था । दूसरा ब्राह्मण होने के कारण वे शाकाहारी थे, इसलिए उन्हें अपना भोजन भी स्वयं बनाना पड़ता था । इन सब कठिनाइयों के बावजूद भी वे गणित के अनुसंधान कार्यों में लगे रहे। प्रो. हार्डी ने उनमें एक अभूतपूर्व प्रतिभा देखी । उन्होंने संख्याओं से सम्बन्धित अनेक कार्य किये । उनके कार्यों के लिए २८ फरवरी, १९१८ को उन्हें रॉयल सोसाइटी का फैलो घोषित किया गया । इस सम्मान को पाने वाले वे दूसरे भारतीय थे । उसी वर्ष अक्तूबर के महीने में उन्हें ट्रिनिटी कालेज का फैलो चुना गया । इस सम्मान को पाने वाले वे पहले भारतीय थे ।
बीजगणित (Algebra) में रामानुजन द्वारा किये गये कुछ कार्य विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ यूलर (Eular) और जेकोबी (Jacobi) की श्रेणी के रहे हैं । जब रामानुजन इंग्लैंड में अपने अनुसंधान कार्यों में लगे हुए थे तभी उन्हें क्षय रोग (T.B.) ने ग्रसित कर लिया । इसके बाद उन्हें भारत वापिस भेज दिया गया । उनका रंग पीला पड़ गया था और वे काफी कमजोर हो चले थे । इस अवस्था में भी वे अंकों के साथ कुछ न कुछ खिलवाड़ करते रहते थे ।
श्रीनिवास रामानुजन का निधन
इसी रोग के कारण २६ अप्रैल, १९२० के भारत के इस महान गणितज्ञ का मद्रास के चैटपैट (Chetpet) नामक स्थान पर देहांत हो गया ।
एक गणितज्ञ होने के साथ-साथ श्रीनिवास रामानुजन एक अच्छे ज्योतिषी और अच्छे वक्ता थे । वे ईश्वर, शून्य और अनन्तता जैसे विषयों पर ओजस्वी भाषण दिया करते थे । रामानुजन के कोई संतान नहीं थी। उनकी यादगार में भारतवर्ष में गणित के लिये रामानुजन पुरस्कार की स्थापना की गई और रामानुजन इंस्टीट्यूट बनाया गया । यह विश्वविद्यालय की देख-रेख में आज भी काम कर रहा है।