श्री उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय । Upendranath Bandopadhyay

श्री उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय । Upendranath Bandopadhyay

अलीपुर पड़यन्त्र केस के प्रमुख पड़यन्त्रकारियो में श्री उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय भी थे । श्री उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय का जन्म सन् १८७९ की ६ जून को चन्दननगर में (चन्दरनगर) हुआ था । चन्दननगर में फ्रान्स का राज था | उनके पिता स्वर्गीय रामनाथ बनर्जी वैष्णव थे और उनकी माता शाक्त थीं ।

श्री उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय की शिक्षा


उपेन्द्र बाबू ने चन्दननगर में रहकर प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद ड्यूपले कालेज से एन्ट्रेन्स पास किया । फ्रेंच भाषा में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण उन्हें एक स्वर्ण पदक इनाम में मिला था । छात्रावस्था में वे बड़े ही चँचल थे और मास्टरों को खुब तंग किया करते थे । सन् १८९८ से १९०३ तक वे कलकत्ते के मेडिकल कालेज में डाक्टरी पढ़ते रहे । उन्होंने डफ कालेज में भी पढ़ाई की, उस समय वह विद्यार्थियों को केवल फ्रेच भाषा पढ़ा कर धनोपार्जन कर लेते थे । डफ कालेज से उन्हें बाइबिल की परीक्षा में छात्रवृत्ति भी मिली थी । बाइबिल के उत्तम विद्यार्थी होने पर भी उन्हें ईसाई-धर्म से बड़ी घृणा थी और वे हिन्दुओं के बीच में ईसाई पादरियो के विरुद्ध व्याख्यान आदि दिया करते थे ।

उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय और स्वामी विवेकानंद


इसी समय उन्हें स्थामी विवेकानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन करने का शौक हो गया । वे एक बार स्वामी विवेकानन्द से मिले भी थे और फिर उसके बाद स्वामी जी के मायावती (हिमालय) आश्रम में जाकर सन्यासी की तरह रहते थे मगर और भी भाई जाकर उन्हें वहाँ से ले आये । इसके बाद उपेन्द्र बाबू चन्दननगर लौटे और वहा के एक विद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे । साथ ही युवा विद्यार्थियों में राजद्रोह और क्रान्तिकारी विचार का प्रचार भी करने लगे। किन्तु नौ मास के बाद वे फिर घर से विदा हुए । उनके मित्र पंडित हषिकेश कांजीलाल साथ थे, जो बराबर उनके साथ रहे । वे पटना, बनारस, बरेली होते हुए फिर मायापुरी पहुचे और वहाँ शाखों का अध्ययन करने लगे ।

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किन्तु फिर उपेन्द्र बाबू का ध्यान मायावाद से हटकर कर्मवाद की ओर आया । वे एक सन्यासी के रूप में पंजाब का पर्यटन करने लगे । सन् १९०५ में वे लौटकर फिर अध्यापन-कार्य करने लगे, और विद्यार्थियों के दिमाग में क्रान्तिकारी भाव भरने लगे । एक वर्ष के बाद उन्होंने अध्यापन कार्य छोड़ दिया, और श्री अरविन्द के “वन्देमातरम्” पत्र में काम करने लगे । इसके बाद वे “युगान्तर” पत्र के सम्पादक हुए, और इस पत्र के द्वारा उन्होंने ज्वलन्त क्रान्तिकारी भावों का प्रचार करना आरम्भ किया ।

उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय को कालापानी की सजा


सन् १९०८ में वे वारीन्द्रकुमार के साथ कलकत्ते के मानिकतल्ला बगीचे में पकड़े गये । स्वर्गीय देशबन्धु चित्तरंजन दास ने उनकी जैसी अच्छी पैरी की थी, वह सर्व-सिद्धि है । श्री उपेन्द्र बाबू को आजन्म कालेपानी का दंड मिला था । उन्होंने मजिस्ट्रेट के सामने जो महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया था, उसमें कहा था,-“मैंने ख्याल किया, कि हिन्दुस्तान के कुछ लोग बिना धार्मिक भावों के कुछ न करेंगे, इसलिये मैंने साधुओं से सहायता लेनी चाही; पर वे काम न आये। इसके बाद मैं स्कूली लड़कों में क्रान्तिकारी भावों का प्रचार करने लगा । देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में गुप्त समितियाँ और शस्र आदि एकत्र करने का ध्यान हुआ । इसके बाद मैंने श्री वारीन्द्र, श्री उदलासकर और श्री हेम से भेंट की और इनके साथ काम करने लगा । हमारा उद्देश्य उच्च अधिकारियों को जैसे छोटे लाट मि. किंग्सफोर्ड आदि को मारने के लिये था ।“

श्री हृषिकेश कांजीलाल ने ११ मई सन १९०८ को मैजिट्रेट के सामने कहा था,-“मैं स्कूल में अध्यापन करता हूँ । चन्दननगर में श्री उपेन्द्र ने मुझे “युगान्तर” पत्र की कई प्रतियाँ दिखायीं; जिन्हें पढ़कर मुझे मातृभूमि को स्वतन्त्र करने का ध्यान हुआ । मैं स्कुल में मास्टरी करते हुए नवयुवकों को यह बताना चाहता थা, कि अंग्रेजो ने इस देश को धोखेबाज़ी और कूटनीति से विजय किया है ।

उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय का कालापानी की सजा पुरा करना


बारह वर्ष तक कालेपानी का दण्ड भुगतने के बाद उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय सन् १९२० के फरवरी मास में छूट कर आये । देश के लिये उन्होंने जो सेवाएँ और तपस्याएँ की है उसका वर्णन नही किया जा सकता हैं । इस बार वे “नारायण” और “बिजली” पत्रों में काम करने लगे । दार्शनिक विषयों की कई पुस्तके भी लिखी हैं । उपेन्द्रनाथ जी ने अपनी “द्वीपान्तरवास की कहानी” बहुत ही रोचक और मनोरंजक ढंग से लिखी है । उपेन्द्रनाथ जी कलाकरो के सुप्रसिद्ध इंग्लिश दैनिक पत्र “अमृत बाज़ार पत्रिका” के सम्पादकीय विमाग में भी कुछ दिनों के लिये काम किया और फिर इसके बाद अपना “आत्मशक्ति” (बँगला) साप्ताहिक पत्र भी निकाला, जिसकी बंगाल भर में खूब स्याति हुई ।

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उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय का विवाह


सन १८९७ में उपेन्द्रनाथ जी का विवाह हुआ था । सन् १९०६ में उनका ज्येष्ठ पुत्र श्रीमृपेन्द्र पैदा हुआ । उनकी स्त्री एक आदर्श हिन्दू महिला हैं, जो प्रियतम पति के निर्वासन-काल में एक संन्यासिनी की तरह रहती थीं । हाल में उन्हें एक दूसरा पुत्र हुआ है । उपेन्द्रनाथ ने सन् १९०५ में “भवानी मन्दिर” नाम की पुस्तक लिखी थी, जिसमें देश की स्वतन्त्रता के लिये आपने जनता को शक्ति की देवी काली की उपासना करने के लिये ज़ोर दिया था । उपेन्द्रनाथ जी ने इसमें लिखा था, कि इस कार्य में केवल ब्रह्मचारी युवकों को आगे बढ़ना चाहिये, जो अविवाहित रह कर त्यागी संन्यासियों की तरह सेवा-कार्य करें और काम पूरा होने पर, याने देश स्वतन्त्र होने पर वे विवाह करे । कान्तिकारियों के लिये लिखा गया था, कि वे सैनिक शिक्षा ग्रहण करें और वर्तमान रणनीति को अच्छी तरह जाने । वर्तमान रणनीति के लेखक श्री अविनाशचन्द्र भट्टाचार्य को सन् १९०७ में अलीपुर बमकेस में सात वर्ष सपिरश्रम कारावास का दंड मिला था । इस पुस्तक में देश को स्वतन्त्र करने के लिये अंग्रेजो से युद्ध करना आवश्यक बताया गया है । इसी के साथ बम बनाने की भी एक पुस्तिका थी, जिसका क्रान्तिकारी लोग अध्ययन किया करते थे । बम्बई में देशभक्त श्री सावरकर और लाहौर में भाई परमानन्द जी के यहाँ तलाशी लेने पर मिली थीं ।

उपेन्द्र नाथ बंदोपाध्याय का सम्पादन कार्य


उनका दूसरा शक्तिशाली पत्र “संध्या” था, जो बहुत ही लोकप्रिय था । इसके स्वतंत्रता सम्बन्धी लेख लोगों में उत्साह और साहस की बिजली फूँक देते थे । एक बार उसमें लिखा गया,-“हम पूर्ण स्वतन्त्रता चाहते हैं । देश की उन्नति उस समय तक नहीं होगी, जब तक फिरंगियों का अन्तिम निशान यहाँ से न मिटा दिया जायेगा । स्वदेशी प्रचार, विदेशी बहिष्कार आदि उस समय तक व्यर्थ हैं, जब तक उनके द्वारा हम अपनी पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता न प्राप्त कर सकें । फिरंगियो ने मेहरबानी करके हमें जो अधिकार दिये हैं, हम उनका तिरस्कार करते हैं और उन पर थूकते हैं । हम अपनी मुक्ति का ध्येय स्वयं प्राप्त करेंगे ।”

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“युगान्तर” और “स्वाधीन भारत” की हजारों प्रतियाँ गुप्त रूप से बाँटी गयी और उनका भीतर- ही-भीतर जनता में खूब प्रचार हुआ । “मुक्ति कोन पथे” नामक पुस्तक में “युगान्तर” के चुने हुए महत्वपूर्णा लेखों का संग्रह है । इसमें सैनिक तैयारियों और दल बढ़ाने के लिये बड़े ही ज़ोरदार लेख हैं । एक बार पाठकों को लिखा गया था,-“देशी सिपाहियों की सहायता प्राप्त करो, यद्यपि ये सिपाही पेट के लिये शासक शक्ति सरकार की सेवा करते हैं; पर आखिर वे भी तो खून मांस के मनुष्य हैं । वे भी सोचना-समझना जानते हैं उन्हें जब देशकी दुर्दशा समझायी जायेगी, तो वे उचित समय पर शस्त्रोसहित बहुसंख्या में क्रान्तिकारी दल में मिल जायेंगे… “

ऐसे ही ओजस्वी लेखों के कारण पत्र सरकार द्वारा बन्द कर दिये गये थे ।

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