सखाराम गणेश देउसकर | Sakharam Ganesh Deuskar

सखाराम गणेश देउसकर | Sakharam Ganesh Deuskar

उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ में देश के जिन महापुरुषों ने राष्ट्रीय जागरण तथा चेतना फैलाने का ऐतिहासिक कार्य किया, उनमें श्री सखाराम गणेश देउसकर प्रमुख है। महाराष्ट्रीय होते हुए भी उन्होंने बांग्ला तथा हिंदी भाषा तथा साहित्य के प्रचार-प्रसार का महान कार्य किया।

बंग-भंग के पूर्व बंगाल में स्वदेशी आंदोलन की चर्चा नहीं के बराबर थी। उस समय उन्होंने जनता में, विशेषकर युवकों में स्वदेशी का प्रचार किया। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था – देश की स्वतंत्रता। इस निमित्त उन्होंने एक ओर उस समय के क्रांतिकारी आंदोलन से संपर्क रखा, तो दूसरी ओर ग्रंथ रचकर और सभाओं में व्याख्यान देकर युवकों को जागृत किया

AVvXsEj6JZzW8DA B2Gc 06PvvRKJlV2ITHMgKNSZfJCxGajwLJETluTOx8L0iiEL7nCbdHEr7RQP Hhh1D1sC1QVDf31f7DE8IOFhmmMOyGrXESXdmrouEsvL9vTgnguFPj esnNgxGhkjgJUgOYVVQiFlVIpRhs INftS1JhtXIXgXPoy gvAaTmkmGjbw=s320

सखाराम गणेश देउसकर का जन्म


सखाराम गणेश देउसकर (Sakharam Ganesh Deuskar) का जन्म १७ दिसंबर १८६९ को हुआ था। आपके पिंता का नाम श्री गणेश देउसकर था। सखाराम गणेश देउसकर के पूर्वज महाराष्ट्र के थे, श्री सखाराम गणेश देउसकर बिहार के संधाल परगना स्थित करो गांव में रहते थे | उन्होंने कलकत्ता जाकर सार्वजनिक जीवन तथा राष्ट्रीय आंदोलन का कार्य अत्यंत निष्ठा के साथ आरंभ किया। कलकत्ता में छत्रपति शिवाजी का महोत्सव आरंभ करने का श्रेय इन्हें ही है। इस महोत्सव के माध्यम से उन्होंने युवकों में राष्ट्रीयता की भावना भरी।

सखाराम गणेश देउसकर के कार्य


लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में हजारों बंगाली युवकों को जीवन समर्पण करने की प्रेरणा उन्होंने ही दी। यही कारण था कि वह “बंगाल के तिलक” कहे जाते थे।

राष्ट्रीयता और देश सेवा की भावना के प्रसार-प्रचार में कलकत्ते की बुद्धिवर्धिनी सभा का विशेष स्थान रहा है। इसके अध्यक्ष श्री सखाराम गणेश देउसकर जी ही थे, उनके ही नेतृत्व और निर्देश में स्वदेशी तथा राजनीतिक जागरण में इस सभा का महत्वपूर्ण योगदान रहा। पत्र के संपादन, पुस्तक लेखन तथा क्रांतिकारी कार्यों में लगे रहने पर भी वह बुद्धिवर्धिनी सभा को निरंतर समय देते और उसका मनोयोगपूर्वक संचालन करते।

इसके सभी अधिवेशनों में उपस्थित होकर वह विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देते थे और नवयुवकों में ज्ञानवृद्धि के साथ ही उनमें देशभक्ति का मंत्र फूंकते थे | इस सभा में उन्होंने यह अनिवार्य नियम बना दिया था कि प्रत्येक सदस्य को किसी न किसी विषय पर भाषण करना है। आपका लक्ष्य था, कि सभी सदस्यों को अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिले। प्रत्येक अधिवेशन के लिए नया, विषय चुना जाता था, उसी पर विचार विनिमय और भाषण होते थे। श्री देउसकरजी स्वयं विचारणीय विषय को सरलता से समझा देते थे। इसका परिणाम यह होता था कि युवको की ज्ञानवृद्धि के साथ ही उन्हें राजनीतिक शिक्षा भी मिलती थी।

इस प्रकार राष्ट्रीय चेतना के प्रसार में देउसकरजी के नेतृत्व में संचालित बुद्धिवर्धिनी सभा का ऐतिहासिक योग रहा है। इसी सभा के माध्यम से स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार का कार्य हुआ। जिन दिनों विलायती वस्तुओं का व्यापक प्रसार था और स्वदेशी वस्तुएं नाम मात्र की थीं, उस समय बुद्धिवर्धिनी सभा में सब स्वदेशी वस्तुओं का संग्रह कर उसकी प्रदर्शनी की जाती थी | सभा में विलायती वस्त्र पहनने वाले युवकों को स्वदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने की प्रतिज्ञा कराई जाती थी। देउसकरजी स्वदेशी के भक्त थे और उन्होंने समाज में विशेषतः युवकों में स्वदेशी वस्त्र तथा वस्तुओं के व्यापार पर बल देकर उनमें राष्ट्रीयता का संचार किया।

सन् १९०५ में बंग-भंग के समय स्वदेशी आंदोलन आरंभ हुआ। इसके पूर्व ही बुद्धिवर्धिनी सभा के तत्वावधान में देउसकरजी ने कलकत्ता स्थित विशुद्धानंद सरस्वती मारवाड़ी विद्यालय में स्वदेशी प्रचार विषय पर पंडित दीनदयालजी शर्मा से भाषण कराया था, विदेशी वस्त्रों के व्यापारी मारवाड़ियों द्वारा संचालित विद्यालय-भवन नें स्वदेशी प्रचार पर व्याख्यान आयोजित करना अनोखी और अनहोनी बात थी। देउसकरजी दिन में परिवार के भरण पोषण के लिए कार्य करते थे। रात में युवकों का उध्बोधन करते और तदनंतर समय निकालकर राष्ट्रीय जागरण के निमित्त लेखन कार्य भी किया करते थे।

इस प्रकार उन्होंने नई पीढ़ी में शिक्षा के प्रति आकर्षण तथा विद्या का अनुराग उत्पन्न किया। महाराष्ट्रीय होते हुए भी देउसकरजी का बांग्ला भाषा तथा साहित्य पर असाधारण अधिकार था। वह उस समय बंगाल के सर्वाधिक प्रभावशाली बंगला पत्र “हितवादी” का संपादन करते थे। वह भारतीय इतिहास तथा राजनीतिं के प्रकांड विद्वान थे। तत्कालीन पत्रों की दलबंदी तथा सामाजिक कलह-क्लेश के बीच भी वह तटस्थ भाव से रहते थे वह बहुभाषाविद् थे। वह संस्कृत, बांग्ला तथा मराठी भाषा के पंडित थे। हितवादी का हिंदी संस्करण “हितवार्ता” के रूप में प्रकाशित हुआ और उनकी प्रेरणा से ही पंडित बाबूराव विष्णु पराड़कर इसके संपादक हुए।

हितवार्ता’ में तत्कालीन विद्वान लिखा करते थे। १९०७ में देउसकरजी ने विभक्ति का आंदोलन छेड़ा। उनका कथन था कि जब बांग्ला, मराठी आदि भाषाओं में शब्द के साथ विभक्ति मिलाकर लिखी जाती है, तो हिंदी में उसे अलग क्यो लिखा जाता है।

देउसकरजी ने इस आंदोलन में आचार्य महावीर प्रसाद द्रिवेदी से भी विचार विमर्श किया था। तत्कालीन समाचारपत्रों में विभक्ति विचार पर बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ। सभी प्रसिद्ध पत्रो में इसके पक्ष-विपक्ष में लेख प्रकाशित हुए। देउसकरजी की प्रेरणा के कारण ही “हितवार्ता” में सबसे अधिक लेख निकले। इसी में आचार्य पंडित गोविंद नारायण मिश्र ने विभक्ति विचार पर विद्वत्तापूर्ण लेखमाला लिखी, जिसमें देउसकरजी के विभक्ति मिलाकर लिखने के पक्ष का समर्थन और प्रतिपादन हुआ। पत्र संपादन के साथ ही वह सामाजिक गठन तथा राजनीतिक जागरण का महान कार्य करते थे। पुस्तक-लेखन द्वारा उन्होंने देश में जैसी वैचारिक क्रांति की, वह असाधारण महत्व रखती है।

सखाराम गणेश देउसकर की पुस्तके


“देशेर कथा” तथा “बाजीराव” जैसी राष्ट्र में क्रांति करने वाली पुस्तकें उन्होंने लिखीं। “देशेर कथा” ने न केवल बंगाल में अपितु संपूर्ण देश में पराधीनता के अभिशाप तथा विदेशी शासन और शोषण की ओर जनमत का ध्यान आकृष्ट किया। इस पुस्तक का लेखन तथा प्रकाशन उस समय हुआ, जब बंगाल का विभाजन नहीं हुआ था। जब देश की शोचनीय दशा थी और ध्यान देने वाले इने-गिने ही थे, उस समय सखाराम गणेश देउसकर इस क्रांतिकारी पुस्तक ने समस्त राज में नवजागरण तथा नवचेतना की लहर उत्पन्न कर दी। बंग-भंग के समय स्वदेशी आंदोलन आरंभ हुआ, तब इस पुस्तक का व्यापक प्रभाव पड़ा। यह कहना अनुचित न होगा कि स्वदेशी आंदोलन को इस पुस्तक से न केवल बल मिला अपितु उसकी मूल प्रेरणा भी प्राप्त हुई।

देउसकरजी प्रकट रूप से तो संपादक, लेखक, सामाजिक तथा राजनीतिक नेता थे, किंतु अंतरंग रूप में क्रांतिकारी भी थे। देश के तत्कालीन क्रांतिकारियों से उनका घनिष्ट संबंध था। सखाराम गणेश देउसकर कलकत्ता निवास क्रांतिकारियों का मिलन केंद्र था, जहां मध्य रात्रि तक प्रायः नित्य विचार-विमर्श हुआ करता था। यहीं क्रांतिदल की योजनाएं बनती और उनको कार्यान्वित करने के कार्यक्रम। उनका महर्षि अरविंद घोष तथा वारींद्र घोष से भी संपर्क था| यही नहीं, अनेक लोगों को क्रांतिकारी दल में आने की प्रेरणा उन्होंने ही दी।

१९०३ में काशी के कंपनी बाग में श्री विष्णु पराड़कर को क्रांतिदल की दीक्षा उन्होने ही दी थी। उनके अंतरंग साथी दिन में तो पत्रकारिता करते, किंतु रात्रि में क्रांति दल के कार्य में संलग्न हो जाते थे। इस प्रकार श्री सखाराम गणेश देउसकरजी भारत के गौरव थे।

सखाराम गणेश देउसकर की मृत्यु


सखाराम गणेश देउसकर का निधन २३ नवंबर १९१२ को ४३ वर्ष की अवस्था में हो गया। १९६९ में उनकी जन्मशती मनाई गई और उनकी स्मृति में पश्चिम बंगाल में विशेष समारोह आयोजित किए गए।

उन्होंने भारत और भारतीयता के अभ्युत्थान के लिए जीवन समर्पित कर दिया था हिंदी के प्रचार-प्रसार में भी उनका महान योग रहा है। हिंदी साहित्य सभा में वह जापान की जागृति विषय पर निबंध पाठ करते थे और देश के स्वतंत्र होने पर उसकी उन्नति और समृद्धि का स्वप्न देखा करते थे। वह लोकमान्य तिलक के सच्चे अनुयायी थे – श्री सखाराम गणेश देउसकर जैसे परम देशभक्त, त्यागी, अध्यवसायी और भविष्यद्रष्टा महापुरुष का जीवन हमें देश की एकता और उसके गौरववर्धन की प्रेरणा प्रदान करता है।

इसे भी पढ़े[छुपाएँ]

महादेव गोविन्द रानडे | Mahadev Govind Ranade

दयानंद सरस्वती | Dayanand Saraswati

रमाबाई रानडे | Ramabai Ranade

जगदीश चन्द्र बसु |Jagdish Chandra Basu

विपिन चन्द्र पाल | Vipindra Chandra Pal

बाल गंगाधर तिलक | Bal Gangadhar Tilak

भारतेन्दु हरिश्चंद्र | Bhartendu Harishchandra

पुरन्दर दास जीवनी | Purandara Dasa Biography

आंडाल | आण्डाल | Andal

हकीम अजमल खान |Hakim Ajmal Khan

आशुतोष मुखर्जी | Ashutosh Mukherjee

गोपाल कृष्ण गोखले | Gopal Krishna Gokhale

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *