सी.वाई. चिन्तामणि | C. Y. Chintamani
“कुछ लोग जन्म से बड़े होते हैं, कुछ को परिस्थितियां बड़ा बना देती हैं और कुछ मेहनत से बड़े बनते हैं।“
चिंतामणि तीसरी श्रेणी के लोगों में से थे। बहुत गरीब घर में जन्म लेकर भी उन्होंने न केवल भारत में बल्कि संसार भर में नाम बनाया |
सी.वाई. चिन्तामणि का जन्म | सी.वाई. चिन्तामणि की शिक्षा
सी.वाई. चिंतामणि का जन्म १० अप्रैल १८८० में विजयनगरम् में हुआ था। पंद्रह वर्ष की अवस्था में, १८९५ में, उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और उनके बाद १८९७ में एफ.ए. की परीक्षा में बैठे, परंतु राजनीति में फंसे रहने के कारण असफल हुए। उधर घर की हालत खराब थी, सो आगे पढ़ाई नहीं चल सकी और उन्हें कालेज छोड़ना पड़ा। इस प्रकार वह बी.ए. की डिग्री तो हासिल नहीं कर सके, पर अध्ययन इतना अधिक किया कि बड़े-बड़े लोग उनकी योग्यता देखकर चकित रह जाते थे।
उन्होंने शेक्सपियर तथा दूसरे प्रसिद्ध अंग्रेज साहित्यकारों की अधिकांश पुस्तकें पढ़ डाली थी और अंग्रेजी भाषा पर विशेष अधिकार प्राप्त कर लिया था। वह पुस्तकें केवल पढ़ते नहीं थे, बल्कि उन्हें समझते भी थे और आवश्यकता पड़ने पर उनसे लाभ उठाते थे। लेख लिखना तो उन्होंने १४ वर्ष की अवस्था से ही शुरू कर दिया था ।
सी.वाई. चिन्तामणि के कार्य
घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी, इसलिए कालेज छोड़ते ही उन्हें रोजी कमाने की चिंता हुई। उन्होंने “इंडियन हेरल्ड” नामक पत्र को ३०० रुपये में खरीद लिया और केवल १८ वर्ष की उम्र में उसके व्यवस्थापक, संवाददाता तथा संपादक बन बैठे। चिंतामणि शुरू से ही बड़े सिद्धांतवादी, ईमानदार, साहसी और कर्तव्यपरायण थे। “इंडियन हेरल्ड” खरीदने के लगभग एक साल बाद की एक घटना है। विजयनगरम् में एक नाटक कंपनी चल रही थी। रोज सैकड़ों आदमी उस कंपनी के नाटकों को देखकर अपना मन बहलाते थे। उनमें कुछ मनचले युवक भी थे, जो केवल नाचनेवालियों की अदाएं देखने जाते थे। नाटक कंपनी ने लोगों का यह रुख देखा, तो कुछ वेश्याओं को नाटक में रखना शुरू कर दिया उन वेश्याओं का अभिनय-कला से कोई मतलब न था, वे सिर्फ अपने हाव-भाव से दर्शकों का मन लुभाती थी।
चिंतामणि यह अनाचार न देख सके। उन्होंने अपने पत्र “इंडियन हेरल्ड” में इस संबंध में कठोर टिप्पणी प्रकाशित कर दी। नतीजा यह हुआ कि कुछ सरकारी अधिकारी बिगड़ उठे। उन्होंने उन पर मानहानि का मुकदमा चलाने की धमकी भी दी। बात यहीं तक रह जाती, तो गनीमत थी। उन नाचनेवालियों के कुछ साथियों ने चिंतामणि को पीटा भी। पर इन सबके बावजूद चिंतामणि अपने सिद्धांत पर अटल रहे। उन्होंने न तो अधिकारियों की नाराजगी की परवाह की और न उन गुंडों से डरे। पूरे जोर से वह उसका विरोध करते रहे।
कुछ समय बाद चिंतामणि विजयनगरम् से मद्रास चले गए और वहां लगभग दो साल तक महान पत्रकार श्री सुब्रह्मण्यम अय्यर के अधीन काम करते रहे। उन्हें अपना गुरु मानते थे। पर चिंतामणि का वास्तविक कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश बना। १९०२ में वह वहां गए और फिर जीवन भर वहीं जमे रहे। सौभाग्यवश वहां उनकी भेंट स्वर्गीय पं. मदनमोहन मालवीय से हुई, जिन्होंने पहली ही नजर में ताड़ लिया कि मुसीबतों का सताया हुआ यह युवक बहुत प्रतिभाशाली है। अतः उन्होंने उन्हें अपने पास रख लिया और “लीडर” नाम के एक पत्र का प्रकाशन शुरू किया।
चिंतामणि और ए.एन. गुप्त उसके संयुक्त संपादक बनाए गए। पर कुछ समय बाद ही गुप्तजी “लीडर” छोड़कर चले गए और सारे का सारा बोझ चिंतामणि पर आ पड़ा। वह भी मेहनत से कब चूकने वाले थे, जी-जान से काम में जुट गए। उस समय किसी-किसी दिन तो उन्हें अठारह-अठारह घंटे तक काम करना पड़ता था । इसका नतीजा यह हुआ कि उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। फिर भी, उन्होंने परवाह न की। पर जब बीमारी बहुत बढ़ गई और उन्होंने छुट्टी मांगी तब मालवीयजी को उनकी बीमारी का पता चला। उनकी बीमारी की बात सुनकर मालवीयजी की आंखों में आंसू भर आए और उन्होंने कहा, “अब दो ही मार्ग हैं। या तो “लीडर” का काम करते हुए चिंतामणि को मार डालना, या उन्हें छुट्टी देकर “लीडर” की अकाल मृत्यु करना।”
पर “लीडर” से अधिक कीमती चिंतामणि की जान थी। सो उन्हें छुट्टी दे दी गई और वह विशाखापत्तनम् चले गए। उनके जाते ही “लीडर” की बिक्री घटने लगी और वह घाटे में चलने लगा। फिर, एक बार तो यह भी फैसला कर लिया गया कि “लीडर” को कुछ समय बाद बंद कर दिया जाए। पर ठीक समय पर चिंतामणि वापस लौट आए और “लीडर” बच गया।
चिंतामणि बेधड़क होकर सरकार की आलोचना करते थे, इसलिए सरकार “लीडर” के नाम से ही घबराती थी। १९२७ की अपनी रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश की सरकार ने लिखा था – “लीडर प्रांतीय सरकार के खिलाफ प्रचार करता है और सरकार के पास कोई ऐसा साधन नहीं है, जिससे वह इस पत्र के आक्षेपों का उत्तर दे सके।“
सी.वाई. चिन्तामणि अग्रलेख कैसे लिखते थे, इस बारे में उनके सुपुत्र श्री सी.एल.आर. शास्त्री ने एक बार “त्रिवेणी” में लिखा था :
“उन्हें संपादकीय कुर्सी पर बैठा देखकर बड़ा हर्ष होता है। सारा कार्यालय शांत है। डाक छूटने में बस, घंटा-सवा घंटा की देर है और “लीडर” अभी तक तैयार नहीं हो पाया है। शायद कोई महत्वपूर्ण समाचार अभी तक नहीं आया । चिंतामणि जी अंतिम मिनट तक अपने अग्रलेख के विषय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। पर अब एक सैकेंड की भी देर नहीं की जा सकती। चिंतामणिजी अपनी कलम हाथ में लेते हैं। फिर क्या है? एक के बाद दूसरा कागज उनके हाथ से निकलता जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कोई मशीन काम कर रही है। फोरमैन पास ही खड़ा हुआ है और भाग-भाग कर कंपोजीटरों को कागजों की स्लिप देता जाता है। ज्यों ही चिंतामणिजी अपनी अंतिम स्लिप उसे देते हैं, शेष लेख के प्रूफ उनके पास हाजिर हो जाते हैं। प्रूफ देखने के तो वह विशेषज्ञ हैं ही। क्या मजाल कि उनकी तीक्ष्ण दृष्टि से कोई गलती छूट जाए। भूलों को सुधारते-सुधारते वह एकाध नया वाक्य भी जोड़ते जाते हैं। यदि थोड़ा भी बिलंब हुआ, तो चिंतामणि का चेहरा क्रोध से लाल हो जाता है और वह सीधे प्रेस विभाग चल देते हैं। किसकी हिम्मत है कि उनके क्रुद्ध चेहरे की ओर देख सके। सभी लोग दनादन अपने काम में लगे हुए हैं। चिंतामणिजी की उपस्थिति से घंटों का काम मिनटों में हो जाता है। “लीडर” वक्त पर डाक से रवाना हो जाता है और उस दिन सब अपनी-अपनी खैर मनाते हैं। झुंझलाते हुए चिंतामणि और प्रसन्नमुख चिंतामणि, दोनों ही समान रूप से आकर्षक हैं।”
चिंतामणि की स्मरण शक्ति आश्चर्यजनक थी। वह किसी के मुंह से सुनी हुई बात को कभी नहीं भूलते थे। वह अच्छे वक्ता भी थे, चुटकुलों का प्रयोग तो वह बहुत ही खूबी के साथ किया करते थे। एक बार उन्होंने महात्मा गांधी से कहा था, “महात्माजी, इस आंदोलन में “सत्य” तो केवल आपके हाथ रहेगा और “आग्रह” आपके शिष्यों के ।”
जिन दिनों इस बात पर विचार हो रहा था कि उत्तर प्रदेश की राजधानी इलाहाबाद बने या लखनऊ, तब श्री चिंतामणि ने हरकोर्ट बटलर से कहा था – “लखनऊ के मुकाबले में इलाहाबाद वैसा ही है, जैसे अवध चीफ कोर्ट के मुकाबले में इलाहाबाद हाई कोर्ट, “इंडियन डेली टेलीग्राफ” के मुकाबले में “लीडर” पंडित गोकरणनाथ मिश्र के मुकाबले में पंडित मदनमोहन मालवीय और गोमती के मुकाबले में गंगाजी ।”
चिंतामणि को रिश्त देना तो असंभव था। उनके घोर विरोधी भी उनकी ईमानदारी की दाद देते थे। एक बार कोई महाराजा उन्हें कुछ रुपये देने लगे । चिंतामणि ने तुरंत कह दिया, “जनाब, हमारे ‘लीडर’ की ऐसी परंपरा नहीं है।”
जब सी.वाई. चिन्तामणि “इंडियन डेली मेल” के संपादक थे, तब बंबई में मजदूरों की हड़ताल हुई। इस समय उन्होंने अपने पत्र में एक लेख लिखकर हड़तालियों का पक्ष लिया और उनकी मांगों को जायज बताया। “इंडियन डेली मेल” के मालिक श्री पेटिट थे, जिनके कई कारखाने भी थे । श्री पेटिट ने श्री चिंतामणि से लीपा-पोती करने के लिए कहा, परंतु उन्होंने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया और नौकरी से इस्तीफा दे दिया। अब पेटिट ने मनाने के लिए उन्हें १०,००० रुपये का चैक देना चाहा, पर उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। पेटिट उनकी इस ईमानदारी और स्वाभिमान को देखकर चकित रह गए।
सन् १८९८ से लेकर १९४१ तक, अपने ४३ वर्षीय संपादकीय जीवन में, चिंतामणि अपने सिद्धांतों पर अटल रहकर कार्य करते रहे। १९१६ से १९२३ तक और १९२७ से १९३६ तक वह उत्तर प्रदेश की लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य रहे। १९२१ से १९२३ तक वह उत्तर प्रदेश के शिक्षा मंत्री भी रहे। चिंतामणि उदार दल के नेता थे, और उदार दल प्रदेश में कभी लोकप्रिय नहीं रहा। अतः, यदि वह चाहते तो किसी और राजनीतिक दल में शामिल होकर ऊंचे से ऊंचे पद तक पहुंच जाते। पर उन्होंने एक क्षण के लिए भी ऐसा नहीं सोचा। यदि साइमन कमीशन के दिनों में वह सरकार से समझौता करने को तैयार हो जाते, तो ब्रिटिश सरकार उन्हें कोई बड़ा पुरस्कार अवश्य दे देती। पर कोई भी प्रलोभन उन्हें अपने पथ से डिगा नहीं सका।
सी.वाई. चिन्तामणि के राजनीतिक गुरु
श्री गोपालकृष्ण गोखले को वह अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।
सी.वाई. चिन्तामणि की पुस्तके
चिंतामणि ने पत्रकारिता को तो गौरवान्वित किया ही, कई पुस्तकें भी लिखी। उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं- (1) इंडियन सोशल रिफार्म, (2) स्पीचेज एंड राइटिंग्ज आफ सर फिरोजशाह मेहता (3) इंडियन पोलिटिक्स सिन्स दि म्यूटिनी, आदि।
सी.वाई. चिन्तामणि की मृत्यु
चिंतामणि प्रथम कोटि के पत्रकार, विधिवेत्ता और राजनीतिज्ञ थे। देश की आजादी और गरीब दुखियों का कष्ट निवारण, यही वे दो बातें थीं, जिसके लिए आजीवन प्रयत्न करते रहे। इन दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सदा अपनी शक्ति-भर जुटे रहने वाले भारत-भूमि के इस लाड़ले पुत्र का १ जुलाई १९४१ में स्वर्गवास हुआ।