सुरेन्द्रनाथ बनर्जी | Surendranath Banerjee
सुरेद्रनाथ
बनर्जी
उन इने-गिने भारतवासियों में थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म (१८८५) के
पहले यह अनुभव किया कि वैध आंदोलन द्वारा इस देश के निवासियों को एक सूत्र में
बांधा जाए ताकि वे अपने आपको बंगाली, मद्रासी, मराठा
और पंजाबी आदि न कह कर भारतीय होने में अपना गौरव समझें। भारत को एक राष्ट्र बनाने
का श्रेय उन
मुट्ठी भर भारतीयों को है, जिन्होंने पहले-पहल यह स्वप्न
देखा कि प्रांत-विशेष के नागरिक न हो कर लोग अपने को भारत का नागरिक मानें और ऐसा
कहें। इस स्वप्न को सच्चा करने में तन, मन, धन
से सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
ने अपने जीवन के ५० वर्ष लगाए।
राजनीतिक क्षेत्र में भारतीय एकता की भावना
लुप्तप्राय थी, उसी को साकार करने में सरेन्द्रनाथ बैनर्जी
ने अपनी वाणी और लेखनी से काम लिया। सुरेन्द्रनाथ जैसे प्रभावशाली बोलने वाले
कांग्रेस मंच पर कम ही लोग हुए हैं। उनकी ओजस्विनि वाणी भारतीय एकता का जयघोष
थी।
जिस समय सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
ने भारत की राजनीतिक एकता का आंदोलन शुरू किया उस
समय (और उसके बाद भी कई वर्षों तक) इस देश में लाउड स्पीकर न थे। ऐसी दशा में
जिन बोलने वालों की वाणी दूर तक सुनाई देती थी उनकी कीर्ति देश में
फैल जाती
थी ।
सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
की आवाज तो मेघ-गर्जन के सामान गंभीर थी। जिस समय वह बोलते थे, सभा
में दूर-से-दूर बैठा हुआ व्यक्ति उन्हें आसानी से सुन सकता था।
सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
का जन्म नवम्बर १८४८
में हुआ था। उनके पिता का नाम डा० दुर्गाचरण
बैनर्जी
था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी०ए० की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद वह
इंग्लैंड गए और वहां आई०सी०एस० (इंडियन सिविल सर्विस) की परीक्षा में उत्तीर्ण हो
कर २३ वर्ष की आयु में सिलहट के
असिस्टेंट मजिस्ट्रेट के पद पर वह १८७१ में नियुक्त हुए। लेकिन कुछ ही दिनों बाद
नवयुवक सुरेन्द्रनाथ का सिलहट के जिला मजिस्ट्रेट से मतभेद हो गया। जिला
मजिस्ट्रेट की मातहती में सुरेन्द्रनाथ को काम करना पड़ता था। पद का लाभ उठा कर
उसने इन पर मुकदमा चलाने की सिफारिश की ।
इस पर सरकार की तरफ
से एक जांच कमीशन बैठा और उस कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर भारतमंत्री ने इन्हें १८७३
में नौकरी से बर्खास्त कर दिया।
अंग्रेजों के जातीय भेदभाव के कारण ही
सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
सरकारी नौकरी से निकाले गए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में एक श्री
ए०ओ॰ ह्यूम भी थे। वह अवकाश- प्राप्त आई०सी०एस० अफसर थे। उन्होंने एक लेख में
सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
के सरकारी नौकरी से निकाले
जाने का उल्लेख किया है। ह्यूम के अनुसार भारतवर्ष की अंग्रेजी नौकरशाही पद इस बात
की चेष्टा में रहती थी कि शाही नौकरी का भवन भारतीय के प्रवेश से दुषित
न होने पाए।
जब सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
ने भारतवासियों का विदेशियों द्वारा यह अपमान देखा तब उनसे रहा नही
गया। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने तब से भारतीय लोकमत को सजीव और सजग
करने की प्राण-पण से चेष्टा आरंभ की और जब तक वह जीवित रहे तब
तक उसी की धुन उन्हें लगी रही।
सुरेन्द्रनाथ को नौकरी से बर्खास्त होने बाद ५०
रुपया मासिक की पेंशन सरकारी खजाने से मिलने लगी। इससे उनको गुजर होना असंभव था।
इसलिए उन्होंने बैरिस्ट्री पास करके वकालत
करने का निश्चय किया सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी के जमाने में अंग्रेज सरकार भारतीयों को
बड़ी घृणा की दृष्टि से देखती थी और पद-पद पर उनका
अपमान करने से नहीँ चूकती थी। इसलिए सुरेन्द्रनाथ जैसे मेधावी भारतीय को भी
इंगलिस्तान वालो ने
इस आधार पर बैरिस्टर
की पदवी देने से इनकार कर दिया कि वह सरकारी नौकरी से बर्खास्त हो
चुके हैं। सुरेन्द्रनाथ अब तक अच्छी तरह समझ चुके थे कि अंग्रेज़ों के जातीय
भेद-भाव के किसी भी स्वाभिमानी भारतीय के लिए उन्नति के सब मार्ग बंद हैं।
ऐसी विषम
परिस्थिति में
जब आपत्ति पर आपत्ति आई तो उन्होंने यह संकल्प किया की अब
से वह अपनी सारी प्रतिभा अपने देशवासियों की जगाने में लगाएगे ताकि भारत का
लोकमत इतना प्रबल हो जाए कि भारत की अंग्रेज सरकार को भी उनके आगे झुकाने को विवश
होना पड़े। जो उद्देश्य उन्होंने उस समय अपने सामने रखा, उसी
के प्रयत्न में वह लग गए । इंग्लैंड में एक वर्ष रहकर उन्होंने देश-विदेश के
महापुरुषों की जीवनियों
का अध्ययन करना शुरू किया। विभिन्न देशों के इतिहासों को भी पढ़ा और इन देशों
की स्थितियों से भारत की अवस्था की तुलना करते हुए उन्होंने जो परिणाम निकाले, उन्हीं
का जीवन-भर पालन वह करते रहे ।
जब विलायत में उन्हें बैरिस्टरी भी नहीं मिली
तब सुरेन्द्रनाथ के सामने समस्या उठा की वह अपनी जीविका कैसे चलाएं। ऐसे मौके पर
बंगाल के प्रसिद्ध समाज सुधारक और शिक्षाशास्त्री श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने
उनकी कठिनाई हल की। ईश्वरचन्द्र ने मेट्रोपोलिटन
इन्स्टीट्यूट
में उन्हें २०० रुपये मासिक वेतन पर अंग्रेजी का प्रोफेसर नियुक्त कर लिया। कुछ दिनों
के बाद वह इस कालेज को छोड़ कर सिटी कालेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर होकर चले गए।
वहां उनको ३०० रुपये प्रति माह मिलने लगा। १८८२ में उन्होंने एक स्कूल खरीद लिया
जो बाद में “रिपन कालेज” हो गया| इस संस्था
का संचालन करने के साथ-साथ वह इस कालेज में पढ़ाते भी थे|
मेट्रोपोलिटन इन्स्टीट्यूट में अध्यापक होने
के समय ही से
उन्होंने विद्यार्थियों में काम करना आरंभ किया। सारे भारतवर्ष के नागरिकों को
राजनीतिक आंदोलन के लिए एक ही झंडे के नीचे लाने के अभिप्राय से वह “स्टूडेंट्स
एसोसिएशन” नामक संस्था के प्रमुख सदस्य बने और उस संस्था की ओर से उन्होंने सारे
भारतवर्ष का दौरा किया। इन्हीं दिनों इटली के प्रसिद्ध क्रांतिकारी मैजिनी और
चैतन्य महाप्रभु आदि पर बड़े उत्तेजक भाषण दिए जिससे उनकी ख्याति भारतवर्ष के
तरुणों में फैल गई । जिस समय सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
ने काम करना
शुरू किया उस समय उनकी धारणा थी कि विद्यार्थियों को राजनीति
में सक्रिय भाग लेना चाहिए। उस समय बंगाल के विशेषकर कलकत्ता के-विद्यार्थियों में
सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी की
लोकप्रियता बेहद बढ़ गई।
सुरेन्द्रनाथ की इच्छा थी कि भारतीयों के
राजनीतिक हितों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश में प्रबल जनमत तैयार किया जाए।
इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए श्री नंदमोहन बोस
नामक एक प्रतिभाशाली देशभक्त और उच्च दर्जे के बैरिस्टर के साथ
मिलकर सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने
इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की। यह संस्था, सुरेन्द्रनाथ
के शब्दों में, मध्यम वर्ग के अग्रेज़ी में
शिक्षित लोगों की संस्था थी, क्योंकि
ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन में तो बंगाल के जमीदारों
का बोलबाला पहले ही से था। इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की जरूरत इसलिए महसूस हुई
ताकि शिक्षित मध्यम वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व वह कर सकें ।
१८८५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म
हुआ और उसका प्रथम अधिवेशन बम्बई में हुआ। इस अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ भाग नहीं
ले सके। किंतु, अगले वर्ष कांग्रेस के दूसरे वार्षिक
अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ शामिल हुए और फिर तो १९१७ तक वह कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में करीब-करीब बराबर ही भाग
लेते रहे। दो बार सुरेन्द्रनाथ कांग्रेस के सभापति भी निर्वाचित हुए। पहली बार वह १८९५
में पूना की कांग्रेस के सभापति चुने गए। दूसरी बार वह १९०२ में अहमदाबाद में होने
वाली कांग्रेस के सभापति चुने गए।
भारतीय जनता को देश की सही हालत से परिचित
कराने और लोकमत तैयार के लिए सुरेन्द्रनाथ ने एक समाचार-पत्र निकालने की आवश्यकता
अनुभव की। इसी उद्देश्य से उन्होंने १८७९ में “बंगाली” नामक एक साप्ताहिक पत्र
खरीद लिया और स्वयं उसके सम्पादक बने। बाद में यह पत्र साप्ताहिक से दैनिक हो गया | इस
समाचार-पत्र के जरिए सुरेन्द्रनाथ ने बड़ी निर्भीकता से भारतीय जनता के हितों को
सामने रखा। उनके अग्रलेखों को जनता बड़े चाव से पढ़ती थी क्योंकि उनके लिखने की
शैली में लोग को वही आनंद मिलता था जो उनके भाषणों में होता था “बंगाली” पर १८८०
में यह कह कर मुकदमा
चला दिया गया कि उसमें प्रकाशित सम्पादकीय टिप्पणी में सुरेन्द्रनाथ ने अदालत का
अपमान किया है। सरकार को तो किसी बहाने की जरूरत थी । अदालत को मानहानि के सवाल पर
सुरेन्द्रनाथ को दो महीने के कारावास का दंड दे दिया गया। इस मुकदमे
ने सुरेन्द्रनाथ का नाम सारे देश में फैला दिया। लोगों को पता चल गया कि अंग्रेज
सरकार भारतीयों की आवाज को दबाने के लिए गलत-सही हर तरीके के उपयोग पर आमादा है।
सुरेन्द्रनाथ दो महीने की जेल काट कर बाहर आए और फिर समाचार पत्र का
सम्मादन करने लगे। अंग्रेज सरकार के अन्याय का मुकाबला करने का उनका निश्चय और भी
दृढ़ हो गया।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी १८८३
में पहली बार बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए। उनका
योग्यता की ऐसी धाक जमी कि वह फिर आठ वर्ष तक बराबर इस कौंसिल
के सदस्य चुने जाते रहे। उस जमाने में अंग्रेज सरकार की गैर-सरकारी कालेजों और विश्वविद्यालयों पर सरकारी प्रभाव स्थापित
करने की नीति थी। इस नीति के पीछे सरकार की यह मंशा थी कि कालेजो और
विश्वविद्यालयों में से पढ़कर निकलने वाले भारतीय तरुणों में राष्ट्रीय भावना
विकसित न होने पाए और वे ज्यादा-से-ज्यादा सरकार-परस्त हों। उस समय भारत के
वाइसराय लाई कर्जन थे। यह वही कर्जन थे जिन्होंने १९०५ से बंगाल को दो भागों में
विभाजित करने का
षड्यंत्र रचा था। लार्ड कर्जन ने एक विधेयक पास कराया, जिसका
उद्देश्य था कि कानून के जरिए गैर-सरकारी कालेजों और विश्वविद्यालयों में भारतीयों
का प्रभाव कम हो जाए और सरकारी प्रभाव बढ़े।
सुरेन्द्रनाथ ने सरकार की इस चाल को फौरन समझ
लिया। लार्ड कर्जन की इसी नीति का मुंह-तोड़ जवाब देने के लिए उन्होंने “रिपन
कालेज” को एक सार्वजनिक ट्रस्ट बना कर जनता को सौंप दिया बाद में ट्रस्ट ने डेढ़
लाख रुपये की लागत से रिपन कालेज की एक शानदार इमारत बनवाई और उसमें कई हजार छात्रों
को शिक्षा देने की व्यवस्था की गई।
इसी जमाने में बंगाल में राष्ट्रीय भावना और
प्रांतों की अपेक्षा उग्र थी और वहां की जनता में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध
राजनीतिक चेतना भी सबसे अधिक थी। बंगाल की जनता की शक्ति को कम करने के लिए
वाइसराय लार्ड कर्जन ने एक बहुत बड़ी चाल चली। उसने सोचा कि बंगाल प्रांत को दो
टुकडों में बांट दिया जाए और इसी नीति के अनुसार उसने १९०५ में बंगाल प्रांत को
विभाजित करके दो प्रांत बना दिए। इसी का नाम “बंग-भंग” है। सारे
देश में बंग-भंग के विरोध में प्रबल आंदोलन उठ खड़ा हुआ। जनता में असंतोष की आग भडक
उठी। बंग-भंग का विरोध करने के लिए देश के कोने-कोने में सभाएं हुई, जलूस
निकले और प्रदर्शन किए गए। सबसे ज्यादा प्रबल आंदोलन स्वयं बंगाल में हुआ। बंगाल
की जनता को अपने प्रात का अंग-भंग किया जाना भला कैसे सहन होता ? सबसे
आगे बढ़ कर सुरेन्द्रनाथ ने बंग-भंग विरोधी आंदोलन की बागडोर सम्हाली और पूरे ६
साल तक अंग्रेज सरकार से संघर्ष करते रहे। अंत में सरकार को मजबूर होकर प्रबल जनमत
के आगे घुटने टेकने पड़े और बंग-भंग का फैसला रद्द कर दिया गया। बंग-भंग के मामले
में उनको अंग्रेज सरकार का अन्याय इतना असहनीय हो गया कि उन्होंने पूरे 6
वर्ष तक यानी १९०५ से लेकर १९११ तक-सरकार के साथ पूरी असहयोग करने की नीति का पालन
किया। उन्होंने सरकारी कौंसिलों का भी बहिष्कार किया।
१९११ में बंग-भंग का कानून रद्द होने और
आंदोलन की सफलता के बाद सुरेन्द्रनाथ ने सरकार के खिलाफ अपनी बहिष्कार की नीति भी वापस
ले ली और पुनः सहयोग की नीति अपना ली। १९१३ में वह भारत की इम्पिरियल कौसिल के
सदस्य चुने गए। वह पूरे 7 वर्ष तक इस कौंसिल के सदस्य रहे
।
१९२१ में सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
को ब्रिटिश सरकार ने “सर” की उपाधि प्रदान की। अब वह सर सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी
हो गए। इसी वर्ष उन्हें बंगाल सरकार ने स्थानिक स्वशासन-विभाग का मंत्री नियुक्त
किया | इस
पद पर रहते हुए सुरेन्द्रनाथ ने जनहित के अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए।
अपने राजनीतिक जीवन के आरंभ से ही
सुरेन्द्रनाथ ने अपने कार्यक्रम के जो सिद्धांत निर्धारित किए थे उनका पालन वह अंत
तक करते रहे। उनका यह मत था कि भारत में सार्वजनिक आंदोलन वैधानिक हो और स्वराज्य
की ओर भारत की प्रगति धीरे-धीरे रचनात्मक हो। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में इसी
सवाल पर दो दल बन चुके थे-गरम दल और नरम दल ।
गरम दल वाले चाहते थे कि अंग्रेजों से भारत
को आजाद कराने के लिए बड़े कदम उठाने चाहिए। नरम दल वाले इस बात को स्वीकार नहीं
करते थे और वे चाहते थे कि वैध आंदोलन के द्वारा स्वराज्य की दिशा में
बढ़ा जाए। सुरेन्द्रनाथ नरम दल की बात को ठोस मानते
थे इसलिए जब १९०७ में सुरत में होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन में गरम दल वालों ने
विद्रोह से काम लिया, तब सुरेन्द्रनाथ ने नरम दल के
नेताओं का साथ दिया। १९१५तक वह कांग्रेस के केवल नरम दल वालों के वार्षिक
अधिवेशनों में भाग लेते रहे । १९१६ में गरम और नरम दल वालों का मिलन लखनऊ की
कांग्रेस में हुआ। लेकिन दोनों दलों का यह आपसी समझौता अधिक दिन नहीं चला। नवम्बर १९१८
में नरम दल वालों का बम्बई में अलग अधिवेशन हुआ। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी उसके सभापति
चुने गए। तब से नरम दल वालों का स्वतंत्र वार्षिक अधिवेशन होने लगा नरम दल के कुछ
नेताओं का यह विश्वास था कि उन्हें कांग्रेस को न छोड़ना चाहिए। उसी में रह कर
उनको अपने प्रभाव के बल पर कांग्रेस की गरम नीति में सुधार करने की चेष्टा करनी
चाहिए।
जब १९२०-२१
में कांग्रेस ने गांधीजी के नेतृत्व में सरकार के विरुद्ध देशव्यापी असहयोग आंदोलन
चलाया उस समय भी उन्होंने इस आंदोलन से अपने को अलग रखा। गांधीजी के असहयोग आंदोलन
के आरंभ
होते ही बंगाल और बंगाल के बाहर, विशेष रूप
से तरुणों की उनकी नीति में आस्था खत्म होने लगी। सुरेन्द्रनाथ ने जब देखा कि
बंगाली तरुण बम और गोली में अधिक विश्वास करने लगे हैं तब उन्हें दुख हुआ। जब १९२३
में सुरेन्द्रनाथ बंगाल लेजिस्लेटिव कासिल के लिए उम्मीदवार की हैसियत से खड़े हुए
तब उन्हीं नवयुवकों ने उनका विरोध किया। सुरेन्द्रनाथ सार्वजनिक चुनाव में हार गए।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने समय-समय पर इंग्लैड
की यात्रा की। पहले दो बार वह आई०सी०एस की परीक्षा देने और नौकरी से बर्खास्त होने
पर अपील करने के लिए विलायत गए लेकिन भारतीय राजनीति में वह जब से भाग लेने लगे तब
से उन्हें इंग्लैंड की चार या पाँच यात्रा करनी पड़ी। १८९७ में वह वैल्ची कमीशन
में बंगाल की ओर से गवाही देने गर थे १९०९ में ब्रिटिश-शासित देशों के पत्रकार
सम्मेलन में वह भारतीय पत्रकारों के प्रतिनिधि
की हैसियत से मनोनीत हुए। एक बार कांग्रेस की और से उन्हें
इंग्लैंड की यात्रा करनी पड़ी।
सुरेन्द्रनाथ ने लगभग ५० वर्ष तक भारत की सेवा
की। इनके उपकारों को न मानना या उनके प्रति अश्रद्धा का होना हमारी
कृतध्नता होगी | उन्हें
सार्वजनिक सेवा की ऐसी धुन थी कि प्रात: पुत्र मरा और उसी शाम को वह सार्वजनिक सभा
में शामिल हुए। इधर उनकी पत्नी का देहांत हुआ, उधर विशन
नारायण दर के कांग्रेस सभापति के आसन पर विराजने के प्रस्ताव को सुरेन्द्रनाथ ने पेश
किया। कभी घरेलू आपदाओं को उन्होंने अपने सार्वजनिक कार्य में बाधक नही
होने दिया ।
उनके विचार जितने उदाता थे, उतनी ही
सात्विक उनकी भाषा
भी होती
थी |