हर्षवर्धन –Harshavardhana
भारत में हर्षवर्धन नाम का एक बड़ा प्रतापी राजा था। उसका
साम्राज्य सारे उत्तर में फैला हुआ था। उसकी सेनाओं ने पूर्व में गंजम से लेकर
पश्चिम में वलभी और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक के समूचे
प्रदेश को रौंद डाला था। कामरूप जिसे अब असम कहते हैं का राजा हर्ष का मित्र था वह
हर्ष की शक्ति का लोहा मानता था। और उसकी कोई भी बात नहीं टालता था। हर्ष ने दक्षिण भारत को भी जीतना चाहा
था। पर इसमें उसे सफलता नहीं मिली।
हर्ष के पिता का नाम प्रभाकर वर्धन था। प्रभाकर वर्धन का
राज्य छोटा था। दिल्ली से कुछ मील उत्तर पश्चिम में कुरुक्षेत्र का मैदान है। कहते
हैं कि इसी जगह महाभारत की लड़ाई हुई थी और पांडवों ने कौरवों को हराया था। इसी
कुरुक्षेत्र के आसपास का इलाका प्रभाकर वर्धन का राज्य था। थानेश्वर उस राज्य की
राजधानी थी। प्रभाकर वर्धन के लिए चैन से राज्य करना कठिन था, क्योंकि देश के उत्तर पश्चिम की ओर से हूणों
के हमले होते रहते थे।
लेकिन प्रभाकर वर्धन बड़ा समझदार था। उसने राज्य को मजबूत
बनाने का काम अपने ऊपर लिया और हूणों को दबाने के लिए अपने दोनों पुत्रों को भेज
दिया। बड़े भाई का नाम राज्यवर्धन और छोटे का नाम हर्षवर्धन था। एक बार दोनों भाई
हूणों का पीछा कर रहे थे। की खबर मिली कि सम्राट प्रभाकर वर्धन बीमार है। दोनों
भाइयों ने तय किया कि बड़ा भाई तो हूणों का सामना करें और छोटा भाई पिता की देखभाल
के लिए घर लौट जाए। हर्षवर्धन को घर पहुंचते ही पिता की मृत्यु का समाचार मिला।
सारे राज्य में शोक छा गया। किंतु हर्ष ने बड़े धीरज से काम लिया और शासन में किसी
तरह ढील नहीं आने दी।
जब राज्यवर्धन हूणों पर विजय प्राप्त कर घर लौटा तो दोनों
भाई बड़े प्रेम से मिले। छोटे भाई हर्षवर्धन ने राज्य की बागडोर बड़े भाई राज्यवर्धन
को सौंप दी।
किंतु राज्यवर्धन के भाग्य में सुख नहीं था। कन्नौज के राजा
ग्रह वर्मन के साथ उनकी छोटी बहन
राज्यश्री का विवाह हुआ था। एक दिन खबर आई की मालवा के राजा देव गुप्त ने ग्रह
वर्मन को लड़ाई में मार डाला है और राज्यश्री को बंदी बना लिया है।
राज्यवर्धन ने मालवा के राजा से बदला लेने के लिए तुरंत कुच
किया। लड़ाई में मालवा के राजा की हार हुई और उसने संधि का प्रस्ताव भेजा।
राज्यवर्धन ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लेकिन मालवा के राजा का दोस्त गौड देश का
राजा था। उसका नाम था शशांक। शशांक ने इसी बीच छल से राज्यवर्धन को मार डाला।
राज्यश्री किसी प्रकार भाग निकली और जंगलों में भटकने लगी।
राज्यवर्धन की मृत्यु के समय हर्ष की उम्र १६ वर्ष की थी। इस उम्र
में ही पूरे राज्य का भार उसके कंधे पर आ पड़ा। लेकिन हर्ष घबराया नहीं। अपने भाई
की हत्या का बदला लेने के लिए उसने फौरन ही एक फौज इकट्ठी की और मालवा के ऊपर
चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई में उसने मालवा के राजा देव गुप्त और गौड देश के राजा शशांक
दोनों को बुरी तरह हराया।
भाई की मौत का बदला लेने के बाद अब वह अपनी बहन राज्यश्री
को ढूंढने निकला। राज्यश्री किसी तरह भागती बचती विंध्य पर्वत के जंगलों में पहुंच
गई थी। अपनी बहन को ढूंढता हुआ हर्ष जिस समय विंध्य पर्वत के जंगलों में पहुंचा और इसके बाद राज्यश्री हमेशा हर्ष के साथ रही।
हर्ष अपने शत्रुओं का नाश कर अपनी बहन को साथ लेकर थानेश्वर
लौटा। कुछ दिनों बाद कन्नौज की प्रजा के कहने पर उसने कन्नौज को भी अपने राज्य में
मिला लिया। उसमें थानेश्वर के साथ-साथ कन्नौज को भी अपने राज्य की दूसरी राजधानी
बना लिया।
इसके बाद हर्ष अपने साम्राज्य के विस्तार की चिंता में
पड़ा। उसने हाथियों रथो और पैदल सैनिकों की एक बहुत बड़ी सेना संगठित की और पूरे ६ वर्षों तक युद्ध करता रहा। उसने कई राज्य जीते
पंजाब, बंगाल, कन्नौज, मिथिला (दरभंगा) और
उड़ीसा उसके साम्राज्य के अंग बन गए। दक्षिण में उसका राज्य विंध्य पर्वत तक फैल
गया। हर्ष ने दक्षिण भारत को जीतने की कोशिश की थी। लेकिन
विंध्य पर्वत को पार करने पर उसकी मुठभेड़ चालुक्य वंश के प्रतापी राजा पुलकेशिन द्वितीय
से हुई। इस युद्ध में हर्ष की पराजय हुई । इसके बाद हर्ष ने दक्षिण में साम्राज्य
विस्तार का इरादा छोड़ दिया। अब वह अपनी विशाल साम्राज्य की व्यवस्था करने के काम
में लग गया।
हर्ष ६०६ ई॰ में सिंहासन
पर बैठा था और ४२ वर्षों तक राज्य
करता रहा। उसका शासन काल भारत के इतिहास में बड़े वैभव का था। हर्ष ने समूचे उत्तर
भारत में एकता कायम की। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी देश की बड़ी उन्नति
हुई। हर्ष के दरबार के कवि बाण ने हर्षचरित नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें सम्राट हर्ष के जीवन और उस समय की हालत
की झलक मिलती हैं।
हर्ष का नियम था कि वह हर पांचवें वर्ष प्रयाग में गंगा और
यमुना के संगम पर दान करता था। इस अवसर पर वहां बड़ा भारी मेला लगता था। भारत भर
से हर धर्म और संप्रदाय के लोग दान लेने आते थे। संगम पर पाँच लाख व्यक्तियों के
ठहरने और खाने-पीने की पूरी व्यवस्था की जाती थी। यह दान ७५ दिनों तक चलता था। हर रोज हर्ष अपने सिंहासन पर
आकर बैठता और बारी-बारी से हर धर्म के साधु से दान पाते हैं। महीने भर के अंदर ही
हर्ष का खजाना बिल्कुल खाली हो जाता। एक बार तो यहां तक हुआ कि दान करते-करते हर्ष
ने अपने बदन के कपड़े और आभूषण उतार कर बांट दिए। हर्ष अपने इस दान के कारण प्रजा
में बड़ा प्रिय था। उसकी दान की यह कहानी भारत के कोने कोने में फैल गई थी।
हर्ष केवल योग्य और दयालु शासक ही नहीं था। वह बड़ा विद्वान
भी था और उसने अनेक नाटक लिखे थे। इसके नाम रत्नावली, प्रियदर्शिका और
नागानंद थे। उसके दरबार में कवि बाणभट्ट रहते थे जिन्होंने ‘कादंबरी‘ नामक प्रसिद्ध
कथा लिखी। अशोक ही की भांति हर्ष भी प्राचीन भारत का एक अत्यंत श्रेष्ठ और महान
शासक था।