माधवाचार्य | माधवाचार्य का जीवन परिचय | मध्वाचार्य जीवनी | माधवाचार्य की जीवनी | madhvacharya in hindi |

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माधवाचार्य | मध्वाचार्य | Madhvacharya

दक्षिण भारत के कन्नड़ प्रदेश में उड़ीपी नामक स्थान के पास
मध्यगेह
नामक एक ब्राह्मण रहता
था। उसके पास थोड़ी सी जमीन थी
, जिससे उसका
निर्वाह होता था। मध्य गेह बड़ा विद्वान था। उसकी विद्वता के कारण लोग उ
न्हे “भट्ट” कहते थे।

मध्यगेह की पत्नी वेदवती बड़ी सुशील और सुंदर थी। वेदवती के
एक लड़की और दो लड़का हुए। दुर्भाग्य से दोनों लड़के छोटी ही उम्र में मर गए।
मध्यगेह को इस बात की बड़ी चिंता
रहती
थी
| मध्यगेह और
वेदवती ने उड़ीपी के मंदिर में भगवान की पूजा की और वरदान मांगते रहे कि उनके एक
लड़का हो। ११९७ ईस्वी में दशहरे के दिन वेदवती ने एक पुत्र को जन्म दिया। पिता ने
उस लड़के का नाम वासुदेव रखा। आगे चलकर यही वासुदेव माधवाचार्य के नाम से भारत भर
में
प्रसिद्ध हुए ।

वासुदेव की बचपन की अनेक कहानियां आज प्रचलित हैं। एक घटना यह भी हैं कि वासुदेव जब  वर्ष के थे, तब एक दिन वह घर
से कहीं लापता हो गए। उन
के माता पिता
ने उन्हें बहुत ढूंढा, लेकिन उनका कोई पता न चला। दिन बाद अचानक मध्यगेह को खबर मिली कि उसका पुत्र वासुदेव तो उड़ीपी के मंदिर में हैं। भागते हुए
दोनों उड़ीपी पहुंचे । वहां भगवान अनंतेश्वर के मंदिर में मूर्ति के सामने भक्तों
की भीड़ लगी हुई थी। नन्हा वासुदेव सब उपस्थित लोगों को बता रहा था कि शास्त्रों
के अनुसार भगवान विष्णु की पूजा करने का सही तरीका क्या है। इस घटना के बाद तो इस
बात में कोई संदेह ही नहीं रह गया की वासुदेव साधारण बालक नहीं कोई अवतारी पुरुष
थे

इस घटना के कुछ समय बाद वासुदेव का यज्ञोपवित संस्कार हुआ
और वह गांव की पाठशाला में पढ़ने भेजे गए। वासुदेव खेलकूद
, कुश्ती लड़ने,  दौड़ने, कूदने और तैरने
में सबसे आगे रहते थे। उनकी बाल शरीर में इतनी ताकत थी कि लोग आश्चर्य करते हैं और
उन्हें
प्यार से “भीम” कहकर
पुकारते थे। वासुदेव की आसाधारण ताकत की वजह से ही शायद उन्हें पवनसुत का अवतार
कहां जाने लगा और बाद में लोग इस बात में विश्वास भी करने लगे।

लेकिन वासुदेव खेलकूद में
जहां आगे
थे वही वह पढ़ाई लिखाई
में
बहुत पीछे थे। अध्यापक ने
वासुदेव
को बहुत समझाया पर कुछ परिणाम
न निकला और
अंत में अध्यापक ने वासुदेव को समझा-बुझाकर रास्ते पर लाने
की सारी कोशिश छोड़ दी। वासुदेव की पाठशाला छोड़कर घर चले आए।

अब वासुदेव ने अपने आप ही विद्याभ्यास करना शुरू कर दिया और शीघ्र ही
वेदों और शास्त्रों का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया। तर्कशास्त्र और व्याकरण के तो
वह महापंडित थे।

पाठशाला छोड़ने के बाद से वासुदेव का मन वैराग्य की तरफ झुकने
लगा। उन्हें घर बसाने की कोई इच्छा नहीं थी। वह चाहते थे कि वेदों
, वेदांगो और
शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद धर्म का प्रचार करने में सारा जीवन लगाएं।
१५ वर्ष की अवस्था में उन्होंने अंतिम निर्णय किया
कि उन्हें संन्यास ले लेना चाहिए।

सन्यास लेने के लिए गुरु की आवश्यकता होती हैं। बहुत ढूंढने
के बाद अच्युतप्रेक्ष नामक एक संन्यासी से उनकी भेंट हुई
और इन्हे ही वासुदेव ने अपना गुरु
चुना।

लेकिन सन्यास लेने से पहले एक और चीज जरूरी थी और वह थी माता-पिता की आज्ञा। मध्यगेह और
वेदवती का यही एक लड़का था। इससे मध्यगेह और वेदवती बड़े दुखी हुए। उन्होंने
वासुदेव को यह कह कर सन्यास लेने की आज्ञा देने से इनकार कर दिया कि हमारे मरने पर
हमारा अंतिम संस्कार कैसे होगा
? पर वासुदेव सन्यास लेने का निश्चय कर चुके थे। अंत में उन्होंने
अपने
माता-पिता को कहा कि उनकी एक और पुत्र होगा। इसके कुछ ही दिनों
बाद वेदवती ने एक और पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम विष्णुतीर्थ रखा गया। छोटे भाई
की जन्म के बाद अब उन्हें कोई बंधन नहीं रह गया। उन्होंने बड़ी धूमधाम से सन्यास
की दीक्षा ली। सन्यासी होने के बाद ही उन्हें “पूर्ण प्रज्ञा” यह
“पूर्ण बोध “की उपाधि दी गई। लोग उन्हें वासुदेव की जगह पूर्णप्रज्ञा नाम
से पुकारने लगे।

अब अपने गुरु अच्युतप्रेक्ष के साथ मठ में ही रहने तथा
पूजा-पाठ और अध्ययन करने लगे। अच्युतप्रेक्ष वेदांत की बड़े भारी विद्वान थे।
पूर्णप्रज्ञा को भी वेद वेदांग और शास्त्रों की गहरी जानकारी थी। अब उन्हें वेदांत
का अध्ययन और उस पर विचार करने का मौका मिला। लेकिन कुछ ही समय बाद पूर्णप्रज्ञा
का गुरु से मतभेद रहने लगा। अक्सर अच्युतप्रेक्ष से उनकी बहस हो जाती। धीरे-धीरे
पूर्णप्रज्ञा की प्रतिभा निखरने लगी। आसपास उनकी योग्यता की चर्चा फैल गई
, आरंभ में अच्युतप्रेक्ष पूर्णप्रज्ञा के
तर्कों से सहमत नहीं होते थे
, लेकिन वह भी यह
मानने पर विवश हो गए की पूर्णप्रज्ञा के सोचने का तरीका बिल्कुल नया और अनोखा है
और उनके तर्कों में बड़ी जान है।

अच्युतप्रेक्ष ने उन्हें मठाधीश बनाया। इस प्रकार
पूर्णप्रज्ञा अनंतेश्वर मंदिर के मठ की सबसे ऊंची गद्दी पर बैठे । मठाधीश बनने के
साथ ही उनका नाम पूर्णप्रज्ञा से बदलकर आनंदतीर्थ या माधवाचार्य रख दिया गया। बाद
में उनका माधवाचार्य नाम ही सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।

शंकराचार्य का कहना था कि संसार में एक ईश्वर को छोड़कर और
जो कुछ भी हम देखते हैं वह सब झूठ है माया का खेल है। ईश्वर को केवल ज्ञान द्वारा
ही समझा और पाया जा सकता है। माधवाचार्य को शंकराचार्य की बात ठीक नहीं लगी।
उन्हें यह देखकर दुख हुआ कि शंकराचार्य के शिष्य जनता को सच्चे रास्ते से गुमराह
कर रहे हैं। उन्होंने मन ही मन तय किया कि देश भर में घूम-घूम कर लोगों को धर्म और
ईश्वर संबंधी अपना मत बताऊंगा।

इसी उद्देश्य से माधवाचार्य देशाटन के लिए निकल पड़े। सबसे
पहले वह दक्षिण भारत के
कुछ राज्यों में गए।
उनके साथ अच्युतप्रेक्ष और कुछ शिष्य भी थे।

उस जमाने में दक्षिण भारत कई छोटे-छोटे राज्यों में बैठा
था। वे आपस में अक्सर लड़ा करते थे। पर इन राज्यों के राजा विद्वानों का बड़ा आदर
करते थे। भरी सभा में जो विद्वान दूसरे मत या संप्रदाय की विद्वान को शास्त्रार्थ
में हरा देता था उसके मत और संप्रदाय को राजा
और प्रजा मान लेते थे।

सबसे पहले माधवाचार्य मंगलौर पहुंचे। यहां उन्होंने अपने
विरोधियों को शास्त्रार्थ में बड़ी आसानी से हरा दिया। मंगलौर से आगे बढ़कर वहां
तिरुवांकुर पहुंचे। तिरूवांकुर के राजा ने उनका बड़ा सम्मान किया और उन्हें दरबार
में शास्त्रार्थ करने के लिए निमंत्रित किया
, और उन्होंने राजा की बात स्वीकार कर ली। इसी समय
श्रृंगेरी मठ के मठाधीश विद्याशंकर भी तिरुवांकुर आ पहुंचे। श्रृंगेरी का मठ उन
चार मठों में से एक था
, जिसे शंकराचार्य
ने स्वयं स्थापित किया था। तिरुवांकुर के राजा के सामने दरबार में माधवाचार्य की
जीत हुई। इसके बाद माधवाचार्य अपने शिष्यों के साथ रामेश्वरम पहुंचे। यहां भी
शास्त्रार्थ में अपने विरोधियों को हराने के बाद वह श्रीरंगम गए और
वहा  से
उड़ीपी लौट आए।

माधवाचार्य के इस दौर का परिणाम यह हुआ कि दक्षिण भारत में
उनकी विजय का डंका
बजने लगा। लेकिन
शंकराचार्य के शिष्य को शास्त्रार्थ में हार बहुत खली। वे माधवाचार्य के दुश्मन बन
गए। उन्होंने जहां-तहां माधवाचार्य और उनके शिष्यों को सताना शुरू किया। लेकिन
इससे माधवाचार्य
घबराए नहीं।

उड़ीपी लौटकर माधवाचार्य ने भगवत गीता पर एक भाष्य लिखा और
वेदांत सूत्रों की व्याख्या करने का काम हाथ में लिया। इस प्रकार कई वर्षों तक
उड़ीपी में ही ठहरने के बाद माधवाचार्य ने उत्तर भारत का दौरा करने का निश्चय
किया।

उत्तर भारत में उस जमाने में मुसलमानों को काफी जोर था। कई
बार माधवाचार्य को मुसलमान सरदारों की जागीरो और इलाकों से गुजारना पड़ता था।
लेकिन सौभाग्य से माधवाचार्य उर्दू और फारसी दोनों भाषाएं भली-भांति जानते और बोल
भी सकते थे। वह मुसलमान सरदारों से उर्दू और फारसी में बात कर उन्हें प्रभावित कर
लेते थे। अतः उन्हें मुसलमानों के हाथों कभी किसी प्रकार हानि नहीं पहुंची।
माधवाचार्य का कहना था कि किसी मनुष्य के दिल में जगह बनाने के लिए यह जरूरी है कि
उससे उसकी ही भाषा में बातचीत की जाए।

उत्तर भारत में अनेक नगरों का भ्रमण करते हुए अंत में
माधवाचार्य हरिद्वार पहुंचे । इसी बीच वह कुछ दिनों के लिए हिमालय की गुफा में चले
गए। कई दिनों तक एकांतवास करने के बाद वह हरिद्वार लौट आए। इस बार लौटकर
माधवाचार्य ने पहली बार खुलेआम यह घोषणा की कि भगवान विष्णु की पूजा ही ईश्वर की
सच्ची पूजा हैं। यहीं उन्होंने वेदांत सूत्र की अपनी व्याख्या भी प्रकाशित की।

हरिद्वार से उन्होंने अपना भ्रमण शुरू किया। अब जहां कहीं
भी वह गए उन्होंने भगवान विष्णु की श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए लोगों से वैष्णव
संप्रदाय में शामिल होने और विष्णु की ही पूजा करने का आग्रह किया। उत्तर भारत से
लौटते समय वह कल्याण (हैदराबाद) में कुछ दिन ठहरे। कल्याण उन दिनों चालुक्य
साम्राज्य की राजधानी थी और वहां बड़े-बड़े विद्वान रहते थे।

कल्याण में माधवाचार्य का शोभन भट्ट नामक प्रसिद्ध विद्वान से
शास्त्रार्थ हुआ। शोभन भट्ट शास्त्रार्थ में हार गए। इस शास्त्रार्थ का बड़ा
जबरदस्त प्रभाव पड़ा। शोभन भट्ट के साथ ही हजारों व्यक्तियों ने वैष्णो धर्म की
दीक्षा ले ली। कल्याण से चलने के पहले माधवाचार्य ने शोभन भ
ट्ट को वहां के अपने मठ का प्रधान नियुक्त किया।

उड़िपी के निकट ही श्रृंगेरी का मठ था। माधवाचार्य का बढ़ता
हुआ प्रभाव श्रृंगेरी मठ के महंत को बुरा लगा। दक्षिण के अनेक राजा भी शंकराचार्य
के मतानुयायी थे। इस तरह उस महंत को राजाओं की भी सहायता प्राप्त थी। नतीजा यह हुआ
कि माधवाचार्य और उनके मत को मानने वालों के विरुद्ध तरह-तरह के अन्याय किए जाने
लगे।

श्रृंगेरी मठ का मठाधीश पद्मतीर्थ जानता था कि यदि माधवाचार्य को अपना मत
फैलाने का मौका मिला तो कुछ ही दिनों में सारी जनता वैष्णव हो जाएगी और फिर उसे
कोई पूछेगा नहीं इसीलिए उसने माधवाचार्य से बदला लेने की बात सोची। उसने अपने
अनुयायियों को मठ में इकट्ठा किया और उनसे कहा कि वे छोटे-छोटे दलों में सब जगह
घूमे और वैष्णव संतो को हर तरह से सताए।

इधर तो पद्मतीर्थ ने वैष्णव प्रचार को तो रोकने का यह इंतजाम किया और उधर उसने
माधवाचार्य के पुस्तकालय को नष्ट करने की योजना बनाई। पद्मतीर्थ ने सोचा कि अगर
माधवाचार्य के पुस्तकालय को नष्ट कर दिया

पद्मतीर्थ के कुछ दूत चुपचाप माधव की कुटिया पहुंचे और वहां
से बहुत से ग्रंथ उठाकर भाग गए। यह ग्रंथ उन्होंने बाद में एक जगह जमीन में यह
सोचकर गाड़ दिए कि उन्हें कोई खोज ना सकेगा। सौभाग्य से कुंबला के राजा जयसिंह
चालुक्य को माधवाचार्य के ऊपर श्रद्धा थी। जब माधवाचार्य ने राजा जयसिंह से मदद
मांगी तब उसने अपने कर्मचारियों की सहायता से दुष्टों का पता लगवाया। इस तरह
माधवाचार्य के चुराए ग्रंथ उन्हें मिल गए।

माधवाचार्य ने जिन विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित
करके अपने संप्रदाय में शामिल किया था
, उन्हें पंडित
त्रिविक्रम का नाम प्रमुख हैं। पंडित त्रिविक्रम शंकराचार्य के मतानुयायी थे
, परंतु उन्हें शंकर के धर्म से कुछ असंतोष हो
चला था। माधवाचार्य ने
 दिन के शास्त्रार्थ के
बाद पंडित त्रिविक्रम को परास्त कर दिया और उन्हें अपनी संप्रदाय में शामिल कर
लिया।

त्रिविक्रम की वैष्णव धर्म में शामिल होने की बात सुनकर
दूर-दूर के बहुत से लोग अपने आप वैष्णव होने लगे।

जिस समय माधवाचार्य जयसिंह के राज्य में भ्रमण कर रहे थे, लगभग उन्हीं दिनों उनके माता-पिता की मृत्यु
हो गई ।

अपने जीवन के अंतिम वर्ष माधवाचार्य ने कुमारधारा और
नेत्रवती नामक नदियों के
किनारे में शांतिपूर्ण
बैठकर ग्रंथ लिखने में व्यतीत किए । यही वह अपने शिष्यों को धर्म का प्रचार करने
और विरोधियों को शास्त्रार्थ में पराजित करने के लिए भेजते रहते थे।

माधवाचार्य ने कई मठों की स्थापना की। मृत्यु के पहले
माधवाचार्य ने अपने योग्य शिष्य पद्मतीर्थ को धर्म प्रचार का भार सौंप दिया और
उड़ीपी के कृष्ण मंदिर की देखभाल के लिए अपने आठ प्रमुख शिष्यो का एक मंडल स्थापित
किया। १२८६ ईस्वी में उन्होंने शांति पूर्वक ध्यान करते हुए अपनी देह त्याग दें।

उनके अनुयाई गोपी चंदन का तिलक लगाते हैं, लेकिन मध्य रेखा काली होती हैं जिसके बीच में
लाल बिंदु अंकित रहता है। शरीर के विभिन्न भागों में वे लोग चक्र अंकित करते हैं।
कन्नड़ में इ
स मत के मानने वालों
की संख्या बहुत अधिक हैं। माधवाचार्य ने
37 ग्रंथों की रचना की जिनमें दो प्रमुख माने जाते
हैं – ब्रह्म सूत्रों का भाष्य और उपनिषदों की टीका।

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