नाना साहब का जीवन परिचय | नाना साहब पेशवा | Nana Saheb Peshwa

 %25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE%2B%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B9%25E0%25A4%25AC%2B%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25B6%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BE

नाना साहब पेशवा | Nana Saheb
Peshw
a


अठारह सौ सत्तावन में
भारतवर्ष में भयानक मारकाट मरची थी। इस मारकाट को अंग्रेज “
गदर” के नाम से पुकारते है। परंतु सच पूछिए तो यह स्वतंत्रता की
पहली लड़ाई थी। यह लड़ाई दिल्ली के आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह के नाम पर लड़ी जा
रही थी
, परंतु इसके
नेता नाना साहब पेशवा थे।

नाना को पेशवा बाजीराव
(द्वितीय) ने गोद लिया था । बाजीराव ने जून १८१८ में अंग्रेजों से एक संधि की थी।
उसके अनुसार उसने आठ लाख रुपया वार्षिक पेंशन के बदले में अपना सब राज्य और अधिकार
अंग्रेजों को सौंप दिया था और कानपुर के पास बिठूर में रहना स्वीकार किया था
, तब नाना के माता-पिता महाराष्ट्र में ही
रहते थे। वही वेणु नामक गांव में १८२४ में नाना का जन्म हुआ था
| नाना के पिता का नाम माधवराव नारायण भट्ट और माता का नाम गंगाबाई
था। अंग्रेजों के अधीन प्रदेश में इन्हें रहना पसंद न आया। इसलिए १८२७ में ये लोग
भी बाजीराव के संरक्षण में रहने के लिए बिठूर चले आए। उस समय नाना की उम्र केवल
ढाई साल की थी। देखने में यह बालक बहुत सुंदर और प्यारा लगता था। उसी वर्ष जून में
पेशवा बाजीराव ने इस बालक को गोद ले लिया और अपना दत्तक पुत्र घोषित कर दिया। इस
प्रकार गांव का यह बालक पेशवा की गद्दी का उत्तराधिकारी बना और उसी के अनुरूप उसका
लालन-पालन होने लगा।

धीरे-धीरे जब यह बालक बड़ा
हुआ और पेशवाओं के नेतृत्व में मराठों की उन्नति का इतिहास पढ़ा तब इसे बड़ा दुख
हुआ। कहां वे दिन थे जब पेशवा बालाजी बाजीराव के नेतृत्व में मराठों का राज अरब
सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक फैला हुआ था और अकेले बंगाल से १२ लाख रुपया
चौथके रूप में प्रतिवर्ष मिलता था और कहां ये दिन हैं कि पेशवा
बाजीराव बिठूर में केवल आठ लाख रूपया वार्षिक पेंशन के बदले अंग्रेजों के हाथ अपना
सारा राज-पाट छोड़े बैठे थे । कलंक का यह भारी टीका था जो उसके संरक्षक पिता
बाजीराव के मस्तक पर लग गया था। नाना ने अपने मन में ठान लिया कि वह प्राणों की
बलि देकर भी इस कलंक को दूर करेंगे
|

नाना के साथी थे, रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे। तीनों अंग्रेजों से लड़ने
और उन्हें देश से निकालने के उपाय सोचा करते थे।

पेशवा बाजीराव (द्वितीय) की १८५१
में मृत्यु हो गई। मरने से पहले वह अपनी संपत्ति और पेंशन की वसीयत नाना के नाम कर
गए। परंतु अंग्रेज सरकार ने नाना को पेशवा की पेंशन का हकदार नहीं माना। नाना को
पेंशन मिलती तब भी वह अंग्रेजों से बिना लड़े न रहते
, पेंशन बंद हो जाने से उनका क्रोध और भी बढ़ गया। वह पूरे
जोर से अंग्रेजों से लड़ने की योजनाएं बनाने लगे । परंतु वह जल्दबाजी नहीं करना
चाहते थे। इसलिए एक तरफ तो पेंशन के लिए लिखा-पढ़ी जारी रखी और दूसरी तरफ अपनी
तैयारी भी करते रहे ।

अपने वकील अज़ीमुल्ला को
उन्होंने अंग्रेज़ अधिकारियों के सामने अपना पक्ष रखने के लिए इंग्लैंड भेजा। उसके
हाथ उन्होंने जो पत्र भेजा उसमें लिखा था कि “बाजीराव ने अपनी गद्दी कंपनी को इस
शर्त पर सौंपी थी कि वह पेशवा को प्रतिवर्ष आठ लाख रुपये की पेंशन देगी। यदि यह
पेंशन स्थाई नहीं हो सकती तो इस गद्दी पर कंपनी का अधिकार भी सदैव नहीं रह सकता।
शर्तनामे को दोनों पक्ष माने
, यही नीति है। यह कैसे हो सकता है कि एक पक्ष शर्तनामे को
माने और दूसरा नहीं
?

इस पत्र का अर्थ यही था कि
पेंशन बंद हुई है तो नाना भी पेशवा के राज्य को वापस लेने के लिए लड़ेंगे। परंतु
अंग्रेज सोचते थे कि उनका राज्य बहुत मजबूत हो गया है और नाना उनका कुछ बिगाड़
नहीं सकेंगे। इसलिए इस पत्र पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया और उनकी अपील को ठूकरा
दिया।

परंतु नाना साहब पेशवा ने
इसकी कोई परवाह नहीं की और न वह हताश हुए। उन्होंने अपना वह ठाट-बाट बनाए रखा जो
पेशवा का होना चाहिए था। बिठूर में अपने महल में वह पेशवा की गद्दी पर दरबार लगाकर
इस तरह बैठते थे जैसे सर्वशक्तिमान हों। उनका महल सुसज्जित था उनके बैठने के कमरे
में छत्रपति शिवाजी
, बाजीराव
प्रथम
, माधवराव, नाना फड़नवीस जैसे राजनीतिज्ञों की तस्वीरें टंगी थीं | नाना साहब के मुकुट में हीरे जड़े रहते थे।
वह किम्खाब की पोशाक धारण करते थे। रत्न-आभूषणों से उनका शरीर जगमगाता था। उनका
रोबीला चेहरा और शेर के समान चमकीली आंखें देखकर अंग्रेज अफसरों का सिर अपने आप
उनके सामने झुक जाता था ।

पेशवा की इस गद्दी पर इस
प्रकार सज्जित होकर बैठे-बैठे वह सारे भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध गदर का पैगाम
भेज रहे थे
, मौलवियों और
पंडितों के द्वारा जनता में और अपने विश्वासी दूतों द्वारा उस समय के भारतीय
राजाओं में वह अंग्रेज सरकार के खिलाफ एक साथ उठ खड़े होने का भाव भर रहे थे। रोटी
और कमल का फूल विद्रोह के चिहन माने गए। गांव-गांव में ये चीजें दिखाई पड़ने लगीं।
जो यह रोटी पाता वह और रोटियां बनाकर दूसरों के पास भेजता। इसका अर्थ था
, मरने-मारने के लिए तैयार हो जाओ।

जब नाना साहब को विश्वास हो
गया कि सारा भारत विद्रोह करने के लिए तैयार है तब वह उसको आखिरी रूप देने के लिए
तीर्थयात्रा के बहाने स्वयं बाहर निकले। उनके साथ उनके वकील अज़ीमुल्ला भी थे। उस
समय आगरा के एक अंग्रेज जज
, मोरलैंड साहब उनसे मिलने आए। नाना ने उनका ऐसा स्वागत किया
कि वह जान न सके कि नाना के मन में क्या है और नाना क्या करने जा रहे हैं। अपनी इस
यात्रा में नाना साहब दिल्ली गए और बहादुरशाह से मिले। इस अंतिम मुगल बादशाह और
उसकी मलिका जीनत महल को तैयार किया कि वे ३१ मई को अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता
का झंडा फहरा दें। दिल्ली में सब प्रबंध ठीक कर वह अंबाला गए। अंबाला से लखनऊ
पहुंचे। लखनऊ की सड़कों पर उनकी सवारी निकाली गई। घुड़सवार
, ऊंट, पैदल जनता के साथ वह हाथी पर बैठकर निकले। विद्रोह के लिए
जनता इतनी उतावली हो रही थी कि उसी दिन चीफ कमिश्नर की बग्घी पर लोगों ने पत्थर
फेंके। लखनऊ से वह कालपी आए। यहां बिहार के विद्रेही नेता कुंवर सिंह से भेट की।
अप्रैल के अंत में वह बिठूर लौटे। स्वतंत्रता संग्राम ३१ मई को शुरू होना था
, परंतु भारतीय फौजें धीरज खो रही थीं। इसी
बीच उन्हें चरबी लगे कारतूस दिए जाने लगे
, जिन्हें दांत से खोलना पड़ता था। सिपाहियों ने यह समझा कि
यह उनका धर्म भष्ट्र करने की चाल है
, इससे वे और भड़के। वे ३१ मई की राह न देख सके। उन्होंने १०
मई को ही मेरठ में गदर शुरू कर दिया। वे अंग्रेजों के घर जलाने लगे और उन्हें
मारने-काटने लगे। इसके साथ ही दिल्ली
, लखनऊ और अंबाला में मारकाट शुरू हो गई।

कानपुर के अंग्रेज नाना साहब
को अब भी अपना दोस्त मानते थे। पैदल सिपाहियों का रुख देखकर उन्होंने नाना साहब से
मदद मांगी। नाना अपने ३०० सिपाहियों के साथ आए और सरकारी खजाना उनके सुपुर्द कर
दिया गया
, जिससे
उसकी रक्षा हो। नाना ने इतने गुप्त ढंग से विद्रोह का संगठन किया था कि अंग्रेज
उन्हें अब भी न पहचान सके। दिल्ली में विद्रोह
शुरू होने की खबर
आते ही कानपुर में भी विद्रोह शुरू हो गया। अंग्रेज अपनी स्त्री-बच्चों के साथ नावों
पर सवार होकर भागे। परंतु सिपाहियों ने इन नावों पर गोली चलानी शुरू कर दी। इस
मारकाट से बहुत कम अंग्रेज बचे। कानपुर में जब अंग्रेजी राज के सब निशान मिट गए तब
नाना साहब ने दरबार किया। उनके सम्मान में २१ तोपें दागी गईं। इस प्रकार अपने
बाहुबल से वह पेशवा की गद्दी पर बैठे।

परंतु समय उनके साथ न था। चारों तरफ से अंग्रेज फौजें उनकी
ओर बढ़ीं और उनकी ताकत घटती गई। उन्हें कानपुर छोड़ना पड़ा। लगभग साल भर तक वह
अंग्रेजों से लड़ते
,
नए-नए मोर्चे बनाते और पीछे हटते रहे। अंत में जब उन्होंने
समझ लिया कि पासा पलट गया है
, तब अपने बचे-खुचे सिपाहियों के साथ वह नेपाल के
जंगलों में चले गए और सदा के लिए गायब हो गए। फिर वह कहां पहुंचे और उनका क्या हुआ
, यह कोई नहीं जान
सका। इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि नाना साहब पेशवा सच्चे देशभक्त थे और
अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपने तन-मन-धन की आहुति दे दी थी। उनका यह
आदेश था कि अंग्रेज औरतों और बच्चों पर कोई हाथ न उठाए। उनका लक्ष्य था
, पहले तो
अंग्रेजों को भारत से निकालना और फिर भारतीयों का संयुक्त राज्य स्थापित करना।

अपने बलिदान से उन्होंने भारतीयों के दिलों में स्वाधीनता
के लिए ऐसी आग पैदा कर दी कि फिर वह किसी के बुझाए न बुझी ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *