कविता हिंदी में | Poem Kavita | बलिवेदिका

बलिवेदिका

( १)
ऐ भक्तों के मुक्ति-मार्ग की पूर्ति-सरलतासिक्त !
कभी-कभी क्यों बन जाती हो निज स्वभाव-अतिरिक्त ।
कि जिससे लाखों-लाखा लाल;
निगलता जाता काल कराल ।
गोदी होती है जननी की शून्य हाय ! तत्काल ।
बच रही अस्थि मात्र कंकाल ॥
विगत संज्ञा-सी अबला दीन;
विलखती यत्र-तत्र बेहाल ।
पिरोती मोती आँखों बीच
देख करुणा भी तेरी चाल ।
हृदय होता है चकनाचूर;
विश्व का देख रूप विकराल ।।

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( २ )
घर-के-घर प्राणी-विहीन बन बनते तुल्य मसान ।
कभी-कभी सम्पन्न कुटम-के कुटुम निछाबर जान ॥
देवि ! करते हैं सहसा हाय ।
अनोखी अहो ! तुम्हारी शान
देखा और सुना है कितने देश हुए वीरान ।
मर गये सुनते सुनते कान ॥
नवल नन्दन निकुज छवि पुंज;
काम था जिनपर अर्पित-प्राण ।
हुए भस्मावशेष वे आज;
हुए वे विस्मित स्वप्न समान ।
पैरम पापात्मा, परम-कृतन्घ्र ;
विश्व ने किया खूब ही मान ॥

( ३ )
कह सकता है, कौन कि तुमने खेले कितने खेले कितने खेल ?
खेले कितने मेल-जोल के औ कितने बे-मेल ?
यथा विद्युत्-प्रकाश प्रतिपत्ति;
रचाती रंग-बिरंगे चित्र ।
अस्ताचल-धावित दिनेश की किरणावली पवित्र
छितिज पर पड़कर चित्र विचित्र ॥
अखिल रंगों की रूप समष्ठि;
सृष्टि स्वरधनु की करती मित्र !
बदल कर त्योही पट-परिधान,
विविध विधि, चारु कुचारु चरित्र ।
सुमन के सतत खींचती देवि !
अहो रहती हो-अद्भुत इत्र ॥

( ४ )
पर कृतज्ञता मूर्तिवती-सी तुम हो देवि ! विशाल ।
मिट्टीके बदले देती हो सुठि सुमेर तत्काल ॥
शहीदों की लेकर के देह-
बनाती जो निसार संसार ॥
कितना आदर, मान, प्रतिष्ठा, गौरव का भंडार ।
किये तुमने उन पर न्योछार ॥
हुए वे निराकार-साकार ।
हुए वे त्रिभुवन-अंकित-अंक;
रमे रामेव सकल संसार ।
हुई सृष्टी उनका घर-द्वार;
हुए वे विश्वात्मा घर-द्वार ॥

( ५ )
अप्रगण्य-अनरण्य अवधपति कैसे होते आज ?
मातृ-भूमि की बलि-वेदी पर यदि न गिराते ताज ।।
पूछता कौन कहो हाँ आज ?
यदि न दशकंठ बाँह की खाज
मिटाता-रामचन्द्र के साथ बजाकर लोहा कठिन कठोर ।
यदि न करके झझा-झकझोर ॥
धनञ्जय का धन, धसकर शत्रु-
सैन्य-सरितेश महा घनघोर !
वीरगति किये न होता प्राप्त ;
कहाँ था उसे यहाँ तब ठौर ?
तोड़ दी होती कलम न व्यास;
महाभारत में उस पर और ॥

(६)
महिष महिनी आदि शक्ति-रूपिणी चंडिका तुल्य ।
झाँसी की रानी अरि-अम्बुद-झझासी बहु मुल्य ॥
पता अब कहीं न उसका, किन्तु;
कमी की चली गयी सुर-धाम !
कहाँ गयी वह मुति-द्वयी गोरा, बादल की पूत ?
भीम कर्मा वह सिंह-सपूत ।
भीम सीं कहाँ आज है हाय-,
शक्र सा समर सिंह अदभूत ?
हुआ कब का अपहृत बल-युक्त;
काल के हाथों-शक्ति प्रभूत !
हाथ मल-मल करके निरुपाय;
सहे हम बज्राघात अकूत ॥

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