ग्रह व उनकी वनस्पतियॉ | Planets and Their Plants

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ग्रह व उनकी वनस्पतियॉ

 हमारे ऋषियों ने ब्रम्हाड में विद्यमान असंख्य
आकाशीय पिण्डों में से नौ पिण्डों के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का विशेष अध्ययन
किया
, क्योंकि ये वजन व
दूरी के हिसा
से मानव जीवन पर
उल्लेखनीय प्रभाव डालने की क्षमता रखते हैं
, इन्हीं आकाशीय पिण्डों को ग्रह कहा गया। भारतीय
मान्यता में
वग्रह निंन्म हैं –  

सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु

यद्यपि सूर्य और चन्द्र क्रमशः तारा (Star) एवं उपग्रह (Satellite) हैं। राहु व केतु
की पिण्डीय पहचान स्पष्ट नहीं है
, अतः भारतीय मान्यता में इन्हें छायाग्रह माना
गया है।

प्राचीनकाल में ग्रहों के नकारात्मक प्रभावों के शमन के
लिये विभिन्न वैज्ञानिक पद्धतियाँ प्रचलित थीं
, जिनमें ध्यान, मणिधारण, उपचार एवं हवन आदि प्रमुख थेग्रहों की ऊर्जा का लाभ प्राप्त करने के लिए सम्बन्धि वनस्पतियों की जड़ों का प्रयोग भी सुझाया गया
था
|

इसी प्रकार ग्रह के कुप्रभावों से रक्षा हेतु वनस्पतियों को
यज्ञ में समिधा के रूप में प्रयोग किया जाता था
, यह निर्धारण निम्न प्रकार था |

सूर्य (मदार / श्वेत अर्क) Calotropis
Procera Br.

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सूर्य की वनस्पति श्वेत अर्क /
मदार है और इसकी रोपण दिशा मध्य है
|

मदार लगभग ४ से ८ फीट की ऊँचाई वाला झाड़ीनुमा “एसिलिपिडेसी” कुल का पौधा है। यह
दस्तावर है
, वात, कोढ़, खुजली, विष, व्रण, प्लीहा, गुल्म, बवासीर, कफ, उदररोग और मलकृमि
में लाभप्रद है। इसका फूल मधुर
, कड़वा, ग्राही और कुछ कृमि, कफ, बवासीर, विष रक्तपित्त, गुल्म तथा सूजन
को नष्ट करने वाला है। इसका दूध कड़वा
, गर्म, चिकना होता है |

गुरु (पीपल / गुह्पुष्पक) Ficus
religiosa L.

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गुरू की वनस्पति पीपल है और इसकी
रोपण दिशा उत्तर है
|

पीपल एक विशाल “मोरेसी” कुल का वृक्ष है। पीपल देर से पचने
वाला
, शीतल, भारी, कसैला, रूखा, वर्ण को शुभ करने
वाला और पित्त कफ व्रण तथा रक्तविकार को
ष्ट करने वाला है। गीता में भगवान् कृष्ण ने अस्वत्थः
सर्ववृक्षाणां (
वृक्षों में मैं पीपल
हूँ) कहकर सर्वश्रेष्ठ महिमा प्रतिपादित की है। इस
वृक्ष को अच्युतावास‘ (भगवान् विष्णु का

वास) भी कहा गया है।

 

बुध (अपामार्ग / चिरचिड़ा) Achyranthus
aspera L.

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बुध की वनस्पति अपामार्ग / चिरचिड़ा
है और इसकी रोपण दिशा उत्तर-पूर्व है
|

लटजीरा “अमरेन्थेसी” कुल का पौधा है । प्रसव वेदना के समय इसकी
ताजी जड़ महिला के पेट के पास बाँधने से प्रसव आसानी से व जल्दी हो जाता है।
व्रतों के अवसर पर महिलायें इससे दातून करती हैं। न्द्रिय कमजोरी एवं निःसन्तान दम्पतियों के लिए लाभकारी यह पौधा नेत्र रोगों में भी उपयोगी है।

 

शुक्र (गूलर / औदुम्बर) Ficus
glomerata Roxb.

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शुक्र की वनस्पति गूलर / औदुम्बर
है और इसकी रोपण दिशा पूर्व है
|

गूलर भी एक बड़ा “मोरेसी” कुल का वृक्ष है। गूलर शीतल, रूखा,भारी, मधुर, कसैला, वर्ण को उत्तम करने
वाला
, व्रण शोधक,पित्त, कफ तथा रक्त
विकार शामक है। सीधी बढ़त द्वारा आकाश (अम्वर) का लंघन करने के कारण
, इसका औदुम्बर नाम पड़ा। मान्यता है कि
प्राकृतिक तौर पर जहाँ यह वृक्ष होता है वहाँ नजदीक जमीन में जल की धारा बहती है
|

 

चन्द्र (ढाक / पलाश) Butea
monosperma Taub.

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चन्द्र की वनस्पति पलाश / ढाक
है और इसकी रोपण दिशा दक्षिण-पुर्व है
|

ढाक “लेगुमिनोसी” कुल का पौधा है। पत्तों से पत्तल व दोने नाये जाते हैं, लाख के कीड़े
पाले जाते हैं
, तने व जड़ों से रस्सी तथा
फूलों से रंग बनाया जाता है। इसके बीज उत्तम एवं आन्त्र कृमिहर औ
धि है। यह अग्नि दीपन करने वाला, वीर्यवर्धक, दस्तावर, गरम, कसेला, चरपरा, कड़वा, टूटे को जोड़ने वाला और व्रण, गुल्म, गुदा के रोग, संग्रहणी, बवासीर तथा कृमि
(
Round Worm) नाशक है।

 

मंगल (खैर / खदिर) Acacia
catechu Willd.

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मंगल की वनस्पति खैर है और इसकी
रोपण दिशा दक्षिण है
|

खैर का वृक्ष कम ऊँचाई वाला “फैबेसी” कुल का है। कत्थे के उत्पादन हेतु यह एकमात्र
वृक्ष है। खैर शीतल
, दाँतों को हितकारी, कड़वा,कर्सला और खुजली, खाँसी, अरुचि,भेद,कृमि, प्रमेह,ज्, ब्रण, श्वेतकुछ, सूजन, आम, पित्त, रुधिर विकार, पाण्डुरोग, कोढ़ तथा कफ को
नष्ट करता है। इससे यज्ञ का यूप (स्त
म्भ) बनाया जाता है, अतः इसे भी यूपद्रुम कहा जाता है।

 

राहु (दूब / दूर्वा) Cynodon
dactylon Pers.

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राहु की वनस्पति दूब / दूर्वा
है और इसकी रोपण दिशा दक्षिण-पश्चिम है
|

दूब घास “ग्रेमिनी” कुल का एक महत्त्वपूर्ण पौधा है। शीतल, कड़वी, कसैली और कफ, पित्त रुधिर
विकार
, विसर्प, तृषा, दोह तथा त्वचा
रोगों को नष्ट करती है। अपनी अत्यधिक जीवनी तथा विस्तार शक्ति के कारण यह धार्मिक
कर्मकाण्डों में प्रयोज्य है। पूजा में समय-समय पर दूब का प्रयोग हमें यह प्रेरणा
देने के लिए है कि हमें दूब की भाँति प्रतिकूलताओं से निराश
नही होना है |

 

शनि (शमी / छंयोकर) Prosopis
cenneraria L.

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शनि की वनस्पति शामी है और इसकी
रोपण दिशा पश्चिम है
|

शमी एक मध्यम ऊँचाई वाला “फैबेसी” कुल का वृक्ष है।
रोगों का शमन करने वाला होने के कारण इसका नाम शमी पड़ा। प्राचीन काल में यज्ञ के
लिए अग्नि पैदा करने में अरणि मन्थन में पीपल और शमी की लकड़ी की रगड़ से अग्नि
त्पन्न करते थे। इस वृक्ष की राख के प्रयोग से शरीर के अनचाहे बाल
हटाये जाते हैं।

केतु (कुश / कुसा) Desmostachya
bipinnata
Stapf.

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केतु की वनस्पति कुश है और इसकी
रोपण दिशा उत्तर-पश्चिम है
|

कुश घास भी “ग्रेमिनी” कुल का एक पौधा
है। कुश त्रिदोषनाशक (कफ
,पित्त और वात), मधुर, कसैला, शीतल, मूत्रकच्छ, पथरी, तृषा, वस्तिरोग, प्रदर तथा रुधिर
विकार नाशक है। हर धार्मिक कृत्य में कुश का प्रयोग किया जाता है
, इसमें चारों तरफ
पवित्रता लाने के गुण है। इसमें मन्युशमन (क्रोध कम करने ) के गुण माने
जाते है |

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