पंडिता रमाबाई | Pandita Ramabai

माबाई की गणना उन भारतीय वीरांगनाओं में है जिन्होंने अथक परिश्रम और निःस्वार्थ सेवा से इस देश का सिर संसार में ऊंचा किया है। उनके जीवन में हमें गरीबी, अभागों की दुर्दशा, मूक सहनशीलता और अद्भुत दृढ़-चरित्रता की झांकियां मिलती हैं। यदि हम विचार करें तो हमें मालूम होगा कि प्रतिकूल परिस्थितियों में साहस के साथ संघर्ष करते रहना  ही महानता का मूलमंत्र है।

 

रमाबाई विख्यात समाज-सुधारक थीं। वह स्त्री-शिक्षा की उग्रसमर्थक और समाज में नारी की पूर्ण स्वतंत्रता की प्रचारक थीं। उन्होंने स्वयं अपने जीवन में इन बातों पर अमल किया और उनके लिए उम्र भर वीर सिपाही की तरह लड़ती रहीं।

 

रमाबाई का जन्म अप्रैल १८५८ में मैसूर राज्य में, जो उन दिनों मैसूर रियासत कहलाता था, पश्चिमी घाट के वन भूभाग में हुआ था। उनक पिता अनन्त शास्त्री डोंगरे विद्वान ब्राह्मण थे। वह स्त्री-शिक्षा के पक्षपाती थे। किंतु उनके कट्टर रूढ़िवादी कुटुम्बियों के सामने उनको एक न चली। अंत में लाचार होकर, अपने विचार के धनी विद्वान ने अपना घर छोड़ दिया और बन में कुटी बना कर रहने लगे। मंगलौर से तीस मील दूर गंगामूल नामक एक वन है। अनन्त शास्त्री ने इसी वन में अपनी कुटी बनाई थी। रमाबाई के एक भाई और एक बहन भी थे।

दुर्भाग्यवश जब रमाबाई केवल छः महीने की थीं तभी उनके पिता की सारी सम्पत्ति  नष्ट हो गई। वह विद्वानों और साधु-संतों की मेहनतदारी में बहुत धन व्यय किया करते थे। इसका यह नतीजा हुआ कि वह स्वयं निर्धन हो गए, उन्हें पत्नी तथा तीनों बच्चों के

साएक जगह से दूसरी जगह यात्रा करनी पड़ती थी | कितने ही वर्षों तक वह एक नगर से दूसरे नगर और एक गांव से दूसरे गांव घूमते रहे। कट्टर हिन्दू होने के कारण कितनी ही बार ऐसे भी अवसर आते थे कि दिन-दिन भर उनके मुख में एक ग्रास भोजन और एक बूंद पानी भी नहीं जा पाता था। इसका यह नतीजा हुआ कि शीघ्र ही अनन्त शास्त्री का स्वास्थ्य बिगड़ गया और वह कथावाचक का कठिन कार्य करने और कुटम्ब का पेट पालने में असमर्थ हो गए।

 

अपने माता पिता से रमाबाई ने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। उनकी माता लक्ष्मीबाई आदर्श पत्नी और माता थीं। उन्ही के सरल जीवन और उच्च विचारों से प्रभावित होकर रमाबाई ने बचपन में ही हिन्दू नारित्व का ऊंचा आदर्श सामने रखा था, जब रमाबाई को आयु केवल १२ वर्ष की थी तभी उन्हें लगभग २०००० श्लोक कंठस्थ थे । अपने माता-पिता के द्वारा उन्हें मराठी भाषा का भी अच्छा ज्ञान हो गया था। इसके बाद देशाटन के समय उन्होंने कन्नड, हिन्दी और बंगला भाषाएं सीखीं और अंत में जब वह १८८३ में इग्लैंड गई तो उन्होंने अंग्रेजी भाषा का भी अध्ययन किया संस्कृत विदुषी होने के कारण रमाबाई को पंडित और सरस्वती की उपाधियां प्राप्त हुईं।

 

१८७६-७७ के भीण अकाल में यह साहसी परिवार अत्यंत दयनीय दशा में पहुंच गया। उस समय का उल्लेख करते हुए स्वयं रमाबाई ने लिखा है, "वह दिन आया जब हम चावल का अंतिम दाना खा चुके थे और हमारे भाग्य में केवल फाका करके मर जाने के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रह गया था | हाय उस संकट-समय की लाचारी और घोर अपमान।" ह बड़ी मुसीबत का समय था। जब उन्हें कहीं भी आश्रय नहीं मिला तो यह छोटा सा परिवार जंगल में जाकर प्राण त्यागने पर मजबूर हो गया। पिता का शीध्र स्वर्गवास हो गया और उनके बाद पतिपरायण माता भी उनके पास चली गई। अब बच्चे अकेले इधर-उधर ठोकरें खाते घूमने लगे। कभी-कभी वे भूख से इतने व्याकुल हो जाते थे  कि जंगली फलों को छिलके और गुठली सहित समूचा निगल जाया करते थे। कभी-कभी शीत से प्राण रक्षा के लिए वह गड्ढों में जाकर सुखी बालू से अपने शरीर को ढकलेते थे | इस प्रकार तीन साल तक वह पैदल भटकते रहे और लगभग उन्होंने ४००० मील पैदल यात्रा की।

        

१८७८ में वे कलकत्ता जा पहंचे। रमाबाई ने अभागी दुखिया बहनों के लिए अपना जीवन अर्पण करने का निश्चय कर लिया था। उन्होंने जगह-जगह जाकर बाल-विवाह और  विधवाओं की दयनीय दशा के विरुद्ध भाषण देना आरंभ कर दिया। वह स्वयं एक पवित्र और दृढ़ चरित्र वाली महिला थीं। उनका संस्कृत का ज्ञान-भंडार काफी बड़ा था। वह प्राचीन सुशिक्षित हिन्दू नारित्व की प्रतीक थी। उनके भाषणों से बंगाल में एक हलचल-सी मच गई। जब वह भाषण देतीं तो शास्त्रों के प्रमाण देकर अपने मत को पुष्ट करती थीं। उनके मुख से संस्कृत के वाक्य सुन कर लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे । वह कहते थे कि यह तो सरस्वती का अवतार है। इस समय उनकी आयु २२ वर्ष की थी, वह पतली-दुबली और लड़की सी मालूम होती थी। उनका रंग गेहूंआ था और आंखें भूरी थीं।

 

किंतु अब भी रमाबाई की मुसीबतों का अंत नहीं हुआ था। कलकत्ता आने के कुछ दिन बाद ही उनके भाई का देहांत हो गया और अब वह संसार में अकेली ही रह गई । इसके छःमास पश्चात् उन्होंने श्री विपिन बिहारी मेधावी से विवाह किया। वह शुद्र जाति के एक वकील थे और कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. थे। दुर्भाग्यवश डेढ़ साल बाद ही हैजे में उनके पति की मृत्यु हो गई। अब वह और उनकी नन्हीं बच्ची मनोरमा फिर अनाथ हो गईं। अछूत जाति के पुरुष से विवाह कर लेने के कारण उनके कट्टरपंथी संबंधियों ने उन्हें अपने यहां आश्रय नही दिया। परंतु रमाबाई ने साहस नहीं छोड़ा और न विधवा का एकाकी दुःखपूर्ण जीवन बिताना ही स्वीकार किया। अब वह पूना चली गईं और उन्होंने स्त्री-शिक्षा के पक्ष में लेख लिखने और भाषण देने शुरू कर दिए। उन्होंने रानडे, केलकर

और भांडारकर जैसे महान नेताओं से भेंट की, जिन्होंने उनके मत की पुष्टि की और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया। अंत में उन्होंने आर्य महिला समाज नामक एक संस्था स्थापित की और सारे महाराष्ट्र प्रांत में उसकी शाखाए खोलीं।

 

१८८२ में अंग्रेजी शिक्षा आयोग (इंग्लिस एज्यूकेशन कमीशन) के सामने उन्होंने अपना ब्यान बदल दिया जिस में उन्होंने भारतीय नारियों की शिक्षा में सुधार करने पर बल दिया। कहा जाता है कि उनकी प्रार्थना महारानी विक्टोरिया के कानो तक जा पहुंची और लेडी डफरिन का स्त्रियों के लिए चिकित्सा-संबंधी आंदोलन इसी का परिणाम था |

            

अब उन्हें अपने में एक बहुत बड़ी कमी महसूस हुई और वह थी उनका अंग्रेजी का अज्ञान। इस कमी को पूरा करने के लिए वह १८८३ में इंग्लैंड गई वहां वह वेंटेज नामक स्थान पर सेंट मेरीज होम में रहीं। उन्होंने यहां ईसाई र्म अंगीकार कर लिया। इसके बाद चेल्टन्हेम के लेडीज कालेज में दो वर्ष तक संस्कृत की प्रोफेसर रहीं और तत्पश्चात चचेरी बहन श्रीमती आनन्दीबाई जोशी के निमंत्रण पर अमेरिका चली गई | अमेरिकन शिक्षा-प्रणाली का उनके मन पर बहुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने स्वयं किंडरगारटन की ट्रेनिंग पास की । यहां उन्होंने एक पुस्तक “दि हाई कास्ट हिन्दू वोमन” (उच्च जाति की हिन्दू नारी) लिखी, जिसमें उन्होंने हिन्दू महिलाओं के प्रति अनेक सामाजिक अत्याचारों की चर्चा की। अंत में वहां एक “रमाबाई ऐसोसिएशन” स्थापित हुआ जिसने उच्च हिन्दू जाति की विधवाओं के लिए भारत में एक विधवा आश्रम खोलने और दस साल तक उसके चलाने की गारंटी दी। इस प्रकार रमाबाई का स्वप्न कार्यक्रम में परिणत हो गया।

 

१८८९ में रमाबाई भारत लौटीं । उन्होंने विधवाओं के लिए शारदा सदन” स्थापित किया। रमाबाई के स्त्री शिक्षा संबधी चार विचार थे जिनको वह व्यवहार में लाना चाहती थीं। सबसे प्रथम वह अपनी पाठिकाओं को समाज की कुशल सदस्या बनाना चाहती थीं, इसलिए उन्हें वह आश्रम की अध्यापिका, धाय, गृहिणी, और मातृत्व की ट्रेनिंग देती थीं। दूसरी बात यह थी कि वह पाश्चात्य तौर तरीकों की नकल नहीं करना चाहती थीं बल्कि भारतीय संस्कृति बनाए रखना चाहती थीं। तीसरे वह आश्रम को उन अभागी स्त्रियों के लिए सच्चा घर बनाना चाहती थीं। उनकी चौथी इच्छा यह थी कि पाठिकाओं को फुसला कर ईसाई न बनाया जाए।

 

१८९७ में रमाबाई ऐसोसिएशन की अवधि समाप्त हो गई। वह फिर अमेरिका गई और फिर अपने कार्य में सफल हुई। अमेरिका से लौटकर उन्होंने मुक्ति में एक नई इमारत बनवाई और “कृपासदन” नामक एक और आश्रम खोला। उसमें अनेक अभागी विधवाओं और पतिता स्त्रियों को स्थान दिया गया और उन सब के लिए काम भी जुटाया गया। रमाबाई की पुत्री मनोरमा अमेरिका में स्कूल की उच्च शिक्षा समाप्त कर भारत लौट आई। बम्बई विश्वविद्यालय से उसने बी०ए० पास किया और कुछ समय पश्चात वह शारदा सदन के हाई स्कूल की प्रिंसिपल हो गई।

१९१२ में उन्होंने गुलबर्ग में एक ईसाई हाई स्कूल खोला जो खूब चल निकला। किंतु मनोरमा की कुछ ही वर्ष बाद मृत्यु हो जाने से रमाबाई को बड़ा धक्का लगा और वह अप्रैल १९२२ को परलोक सिधार गई।            

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