स्वामी विवेकानंद | Swami Vivekananda

स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय

Swami Vivekananda Biography

आज से करीब १५८ वर्ष पहले १८६३ में १२ जनवरी के दिन कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में एक शिशु का जन्म हुआ था। मां-बाप ने नाम रखा नरेंद्रनाथ। पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एक मशहूर वकील थे और मां भुवनेश्वरी देवी बुद्धिमती तथा ओजस्वी महिला थीं। बालक पर माता-पिता, दोनों के चरिंत्र का प्रभाव पड़ा। यही बालक आगे स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए |

घरेलू शिक्षक के जरिए पहले-पहल पढ़ाई शुरू हुई। शुरू से ही नरेंद्रनाथ असाधारण प्रतिभावान थे। छात्र जीवन में वह विज्ञान, गणित, भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन और भाषा में तेज रहे। काव्य और संगीत से भी उनका गहरा प्रेम था । उन्होंने १८८४ में कलकत्ता के स्काटिश चर्च कालेज से बी.ए. पास किया। इसके बाद नरेंद्रनाथ ने कानून पढ़ना शुरू किया, पर बाद में जी न लगने के कारण कालेज छोड़ दिया।

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संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय
पूरा नाम नरेंद्रनाथ दत्त
जन्म तारीख १२ जनवरी, १८६३
जन्म स्थान कलकत्ता
धर्म हिन्दू
पिता का नाम विश्वनाथ दत्त
माता का नाम भुवनेश्वरी देवी
पत्नि का नाम अविवाहित
भाई / बहन ९ भाई व बहन
पिता का कार्य हाइकोर्ट के मशहूर वकील
माता का कार्य गृहणी
शिक्षा ललित कला उत्तीर्ण(१८८१),
बी.ए.(स्काटिश चर्च कालेज-१८८४)
कार्य सन्यासी बनकर मनुष्य
और देश की सेवा,
रामकृष्ण मिशन की स्थापना
आमतौर पर लिए जाने वाला नाम नरेंद्र,नरेन्द्रनाथ,
विरेश्वर,स्वामी विवेकानंद
मृत्यु तारीख ४ जुलाई १९०२
मृत्यु स्थान बेलुर मठ(कलकत्ता)
उम्र ३९ वर्ष
भाषा हिन्दी, अँग्रेजी, बांग्ला

कालेज छोड़ने के बाद ही उन पर एक मुसीबत टूट पड़ी। हृदय की गति रुक जाने से एकाएक उनके पिता की मृत्यु हो गई। पांच-छः सदस्यों का पूरा परिवार था, उसका सारा भार नरेंद्रनाथ के कंथों पर आ पड़ा।

उनीसवीं सदी का युग बंगाल तथा सारे भारत के पुनरुत्थान का युग रहा। बहुत दिनों की गुलामी के कारण भारतवासियों के जीवन में जड़ता, स्वार्थपरता, अशिक्षा तथा जातिभेद के अति-प्रचार, आपस में एक दूसरे के लिए घृणा तथा अलगाव आदि ने भारतीय समाज को खोखला कर दिया था। सबसे पहले राममोहन राय, फिर उनके बाद ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, देवेंद्रनाथ ठाकुर आदि कई विभूतियां सामने आई, जिन्होंने गिरे हुए समाज को फिर उसका गौरव दिलाने की चेष्टाएं कीं।

तीक्ष्ण बुद्धि वाले नरेंद्रनाथ की दृष्टि में देश की दुर्दशा बहुत अखरी। वह अध्ययन तथा मनन के आदी होते गए। उनका हृदय इतना कोमल था कि लोगों के दुख-दर्द की बात सुनकर आसू नहीं रोक पाते थे। एक दिन नरेंद्रनाथ बागबाजार में किसी को वेद पढ़ा रहे थे, तभी बंगला भाषा के महान नाट्यकार गिरीशचंद्र घोष वहां आ पहुंचे और बोले – “भाई नरेंद्र, वेद-वेदांत बहुत पढ़े हो। पर यह जो अपने देश में घोर हाहाकार मचा हुआ है, भूख और न जाने कितने महापाप समाज को खा रहे हैं, क्या इनको दूर करने का कोई उपाय वेद में लिखा है?”

फिर उन्होंने नरेंद्र को कई लोगों के दुख भरे किस्से सुनाए। नरेंद्र स्तब्ध होकर उनकी बातें सुनते रहे, फिर लोगों से आंसू छिपाने के लिए एकाएक वहां से उठकर चले गए। बाद में गिरीशचंद्र लोगों से कहा करते थे – “भाई, मैं नरेंद्र को साधु होने के कारण नहीं, पर दूसरों के दुख पर वह आंसू बहाता है, इसलिए उससे प्यार करता हूं।“

अनुक्रम (Index)[छुपाएँ]

स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय

स्वामी विवेकानंद का जन्म

स्वामी विवेकानंद की शिक्षा

संक्षिप्त विवरण(Summary)

बालक नरेंद्र और नाट्यकार गिरीशचंद्र घोष

नरेन्द्रनाथ और रामकृष्ण परमहंस

स्वामी विवेकानंद शिकागो भाषण

रामकृष्ण मिशन की स्थापना

स्वामी विवेकानंद की मृत्यु और कारण

स्वामी विवेकानंद का चरित्र विवरण

स्वामी विवेकानंद और हिंदू धर्म के चार आश्रम

स्वामी विवेकानंद के आदर्श

FAQ`s

उन दिनों तक रामकृष्ण परमहंस देव अपने सहज प्रेम और भक्ति के कारण सारे देश में पूज्य हो चुके थे। शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब, सब उनका उपदेश सुनने आया करते थे। नरेंद्रनाथ बाद में श्री रामकृष्ण के संपर्क में आए। वह रामकृष्ण के उपदेश सुनकर तरह-तरह के प्रश्न किया करते थे। प्रामाणिक सत्य के अलावा वह कुछ भी मानने के लिए तैयार नहीं होते थे। श्री रामकृष्ण हंसते थे और हंस-हंस कर उनके प्रश्नों का उत्तर देते थे। वह कहते थे – “नरेंद्र जैसा लड़का और एक भी नहीं है।“

अनेक दुविधाओं, संदेहों की दीवार पार कर नरेंद्रनाथ आध्यात्मिक जीवन की गहराई में डूब गए। उन्होंने घर-द्वार त्याग दिया और संन्यासी बनकर मनुष्य और देश को सेवा में अपना जीवन न्योछावर कर दिया। कहते हैं कि मृत्यु के तीन-चार दिन पहले रामकृष्ण ने अपनी सारी आत्मशक्ति नरेंद्र को सौंप दी थी और उन्हें अपने अलौकिक ज्ञान का उत्तराधिकारी बना दिया था। संन्यासी बनने पर नरेन्द्रनाथ का नाम बदलकर विवेकानंद हो गया।

१८८८ में विवेकानंद ने भारत भ्रमण शुरु किया, इसमें उन्हें बड़ा आनंद मिलता था। उन्होंने कलकत्ता से द्वारका तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक, सारे प्रसिद्ध स्थानों का भ्रमण किया |

१८९३ के सितंबर महीने में शिकागो में, “पार्लियामेंट आफ रिलीजंस” यानी सर्वधर्म सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन में शामिल होने के लिए स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका की यात्रा की। भारत की वाणी को विश्व के कानों तक पहुंचाने का यह पहला सुयोग मिला था। कई बाधा-विपत्तियां आईं, पर उनके रास्ते में कोई रुकावट नहीं टिक सकी। स्वामी विवेकानंद के शिकागो के भाषण सुनकर पश्चिम वाले बड़े प्रभावित हुए,उनके भाषण की पहले वाक्य – “मेरे अमेरिकन भाईयो और बहनो” कहते ही सारा मंच तालियो से गुंज उठा | उनके ओजस्वी भाषण सुनकर वे बड़े प्रभावित हुए और विश्व के कोने-कोने में विवेकानंद का नाम फैल गया। वह जहां भी गए, उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया ।

उस युग में “न्यूयार्क टाइम्स” में यह टिप्पणी निकली थी – “इस सर्वधर्म सम्मेलन में वह (विवेकानंद) निस्संदेह सबसे महान व्यक्ति थे। उनका भाषण सुनने के बाद महसूस होता था कि ऐसे ज्ञानी देश (भारत) में अपना मिशनरी भेजना कितनी बड़ी मूर्खता है।“ विवेकानंद की सफलता के कारण भारत में जोश उमड़ आया। पराधीन भारतीयों का खोया हुआ आत्मविश्वास जैसे फिर से लौट आया। अमेरिका से कोलंबो पहुंचने पर उनका शानदार स्वागत हुआ इसके बाद वह भारत लौट आए।

१८९७ की पहली मई को उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य जनता तथा देश की सेवा थी। आज तक भी इस संस्था के सेवाधर्म में कभी कोई दाग नहीं लग सका। देश की हर किस्म की मुसीबत में, महामारी, बाढ़, भूचाल, कुछ भी हो, भारत के कोने-कोने से रामकृष्ण मिशन के सन्यासी वहां आ पहुंचते हैं और काम करते हैं। देश के कोने-कोने में स्थित अस्पतालों, स्कूलों, आश्रमों की एकनिष्ठ सेवा गुरु रामकृष्ण तथा शिष्य विवेकानंद का पवित्र नाम याद दिलाती है।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना के करीब दो साल बाद विवेकानंद दुबारा अमेरिका गए और उन्होंने रामकृष्ण संस्था की वहां की शाखाओं का निरीक्षण किया। लौटते समय इंग्लैंड,फ्रांस,आस्ट्रिया,बलकान राज्य,ग्रीस, मिश्र तथा अमेरिका का भी भ्रमण किया।

विवेकानंद के जीवन के अंतिम दो वर्षों में से अधिकांश समय कलकत्ता के बेलुर मठ में बीता। सोलह साल के लगातार दौर और परिश्रम के कारण उनका स्वास्थ्य नष्ट हो गया था।

विवेकानंद का ४ जुलाई १९०२ को देहांत हो गया, केवल ३९ वर्ष को उम्र नें वह परलोकवासी हो गए, पर वह जो काम कर गए हैं, वह उनके जैसे एक महान कर्मयोगी के लिए ही संभव था।

विवेकानंद के चरित्र में जो सबसे अधिक प्रभावशाली बात थी, वह थी उनकी वीरता। उन्हें वीर संन्यासी कहा जाता है। शारीरिक तथा मानसिक, सभी दुर्बलताओं से उन्हें घृणा थी | एक बार एक लड़का धार्मिक उपदेश लेने उनके पास आया, तो उन्होंने कहा था – “पहले मैदान में आकर फुटबाल खेलो, शरीर से स्वस्थ और सबल होने के बाद गीता पढ़ना आत्मा को बलवान बनाने के लिए, सबसे पहले शरीर को बलवान बनाओ।“

विवेकानंद की वाणी में एक ऐसी ताकत पाई जाती थी, जो हर किस्म की कमजोर और जड़ता को दूर करने के लिए सदा जाग्रत रहती थी। एक बार किसी ने विवेकानंद से ब्रह्मज्ञान तथा मुक्ति का उपदेश मांगा। वह आदमी बड़ा ही निकम्मा और आलसी था। विवेकानंद ने उससे पूछा – “तुम झूठ बोल सकते हो ?”

उसने जवाब दिया – “नहीं”।

विवेकानंद बोले – “तो तुम्हें झूठ बोलना सीखना होगा। जानवर की तरह या लकड़ी अथवा मिट्टी जैसा जीवन बिताने से कहीं अच्छा झूठ बोलना है।“

उनका कहना था कि आलस्य को हर तरह से छोड़ना हमारा धर्म है। यदि हम मानसिक और शारीरिक दुर्बलताओं को दूर करने की कोशिश करें और उसमें सफल रहें तो बाद में शांति अवश्य मिलती है।

उनका यह भी कहना था कि हरेक अपना आदर्श लेकर उसी में जीवन सार्थक करे। दूसरों के आदर्श के पीछे दौड़ने के बजाय इसी में सफलता मिलने की अधिक संभावना है। हर आदमी सभी आदर्श नहीं अपना सकता, क्योंकि किसी भी समाज के सभी मनुष्य एक जैसा मन और शक्ति नहीं रखते। सभी को समझने की शक्ति सब में नहीं होती, इसीलिए हरेक के भिन्न-भिन्न आदर्श होने आवश्यक हैं। आदर्श जैसा भी हो, उसकी हंसी उड़ाने का अधिकार किसी को नहीं है। वेद-वेदांतों के अनुसार जीवन बिताना केवल वनवासी साधुओं के लिए ही नहीं है, घर-गृहस्थी में भी मनुष्य वेद की शिक्षा से कामयाब हो सकता है।

हिंदू धर्म के चार आश्रमों के विषय में उनका कहना था – “हिंदू शास्त्र के अनुसार धर्म के अलावा भी मनुष्य के कुछ खास कर्त्तव्य होते हैं। एक के बाद एक ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास, सभी में विभिन्न कर्त्तव्य होते हैं। उनमें कोई भी एक-दूसरे से बड़ा या छोटा नहीं है। जिन लोगों ने विवाह न करके धार्मिक कार्यों में जीवन अर्पित कर दिया है, उनका जीवन विवाहित व्यक्तियों के जीवन से किसी तरह कम नहीं है। सिंहासन पर बैठा राजा जैसा श्रेष्ठ और मान्य है, रास्ते में झाडू लगाता हुआ भंगी भी वैसा ही है। राजा को लाकर भंगी के काम पर लगा दो, देखा वह क्या करता है। भंगी को भी उठाकर सिंहासन पर बैठाओ, तो देखो वह राजकार्य कैसे करता है। सन्यासी गृहस्थों से श्रेष्ठ है, यह विचार व्यर्थ है।

विवेकानंद कहते थे कि भारत के लोगों ने लौकिक जीवन में नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जीवन के विषय में जरूरत से कहीं ज्यादा पाठ लिया है। भारतीय जीवन के ऐसे दृष्टिकोण के कारण भारत पाश्चात्य देशों के मुकाबले मे लौकिक जीवन के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा है।

उनका कहना था कि प्रचलित रीतियों या अनुष्ठानों का पालन करना ही धर्माचरण नहीं है। शास्त्रीय युक्ति और तर्क भी धर्म नहीं है। संसार तथा सामाजिक जीवन से प्राप्त सत्य और सुंदर को कार्यान्वित करना ही असली धर्म है ।

विवेकानंद के आदर्श में धर्म का मूल तत्व देश प्रेम और मानव प्रेम था, इसीलिए उन्होंने कहा – “आने वाले पचास सालों तक तुम केवल जननी जन्मभूमि की आराधना करो। तुम्हारा एक मात्र देवता स्वदेश और स्वजाति है केवल यही देवता जागृत है, उसके कान सर्वत्र हैं। वह सर्वव्यापी है। तुम लोग किस निष्फला देवता को ढूंढ रहे हो ? अपने सामने और अपने चारों ओर जो देवता देख रहे हो, क्या उसकी उपासना नहीं कर सकते ? जब तुम लोग इस देवता की उपासना कर सकोगे, तभी तुम में अन्य देवताओं की उपासना करने की शक्ति आएगी।“

नवयुग की मुक्ति चेतना की महानतम वाणी यही है कि एक की नहीं, बल्कि सब की मुक्ति, जाति की मुक्ति, देश की मुक्ति। धर्म तथा आध्यात्मिक जीवन को कर्म तथा सामाजिक जीवन से दूर समेट कर अकेले मोक्ष-लाभ का प्रयास व्यर्थ है यह बात विवेकानंद ने बार-बार दुहराई है – “जननी, मैं मुक्ति नहीं चाहता, तुम्हारी सेवा ही मेरा एकमात्र धर्म है, कर्म है।“

विवेकानंद ने आत्मकेंद्रित, कर्म विमुख मुक्ति के आदर्श को हटा कर उसमें क्रांति ला दी थी। उन्होंने मुक्ति को विश्वकेंद्रित और सक्रिय साधना का निर्देश दिया है। जब वह भाषण देने अमेरिका गए थे, तो वहां के समाज को खुब अच्छी तरह समझने की कोशिश की। वहां के यौवन, स्वतंत्रता, तेजस्विता को देखकर मुग्ध होकर कहा था – “लगता है, जैसे अमेरिका बिजली से भर गया है। वहां के लोग हर काम बिजली के जरिए करना चाहते हैं। मैं चाहता हूं कि हमारे देश के लड़के भी वहां जाकर बिजली के बारे में जानकारी प्राप्त करें और लौट कर उसे देश में काम में लाएं….. लोगों में काम करने की इच्छा। कोई किसी के सहारे नहीं है, बेटा बाप का या, बाप बेटे का सहारा नहीं चाहता, सभी अपनी रोटी कमा कर स्वतंत्र रहना चाहते हैं। वहां के लोग तेजस्वी हैं, हृष्ट-पुष्ट हैं, अच्छे खाते-पीते हैं, दीर्घायु भी हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता क्या है, यह अमेरिका जाने से स्पष्ट हो जाता है। काम, और काम, आत्मविकास, सभी बाधाओं को चूर-चूर करना-अमेरिका की हवा में मैंने यही चीज देखी है। हमारे मुल्क के नौजवानों में यह सब लाना ही पड़ेगा।

उन्होंने अमेरिका के जागृत नारी समाज की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि भारत के हर गांव में लड़कियों के लिए स्कूल होने चाहिए । इंग्लैंड में स्वामी विवेकानंद के भाषणों से प्रभावित होकर मिस मारगेरेट नोबेल कलकत्ता आकर सन्यासिनी बनी। विवेकानंद ने उनका नाम बदलकर निवेदिता रख दिया। निवेदिता ने भारत की स्त्रियों तथा जनता की सेवा में अपना जीवन निवेदित कर दिया था। यह कर्मयोगी गुरु की योग्य शिष्या थीं। भारत की स्वतंत्रता के लिए निवेदिता अखबारों में आग भरे निबंध लिखती थीं। जेल में बंद देशसेवकों के परिवारों की देखभाल करतीं, उनके लिए खर्च जुटातीं। घर-घर जाकर लड़कियों को बुलाकर उन्हें स्कूल में पढ़ाती थीं।


FAQ`s

Questation : स्वामी विवेकानंद का जन्म कब और कहा हुआ था?

Answer : स्वामी विवेकानंद का जन्म १२ जनवरी १८६३ मे कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था।

Questation : स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम क्या था?

Answer : स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था वैसे उन्हे घर मे विरेश्वर भी कहा जाता था|

Questation : स्वामी विवेकानंद के पिता का क्या नाम था?

Answer : स्वामी विवेकानंद के पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था और वे कलकत्ता हाइकोर्ट के मशहूर वकील थे |

Questation : स्वामी विवेकानंद के माता का क्या नाम था?

Answer : स्वामी विवेकानंद के माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था |

Questation : स्वामी विवेकानंद की पत्नि का क्या नाम था?

Answer : स्वामी विवेकानंद अविवाहित थे, उन्होने सम्पूर्ण जीवन विवाह नही किया था |

Questation : स्वामी विवेकानंद की शिक्षा

Answer : स्वामी विवेकानंद की घरेलू शिक्षक के जरिए पहले-पहल पढ़ाई शुरू हुई। शुरू से ही नरेंद्रनाथ असाधारण प्रतिभावान थे। छात्र जीवन में वह विज्ञान, गणित, भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन और भाषा में तेज रहे। काव्य और संगीत से भी उनका गहरा प्रेम था । उन्होंने १८८४ में कलकत्ता के स्काटिश चर्च कालेज से बी.ए. पास किया। इसके बाद नरेंद्रनाथ ने कानून पढ़ना शुरू किया, पर बाद में जी न लगने के कारण कालेज छोड़ दिया।

Questation : स्वामी विवेकानंद के गुरू कौन थे?

Answer : स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस और गुरु माँ माता भगवती देवी थी |

Questation : स्वामी विवेकानंद शिकागो सम्मेलन मे कब गए थे?

Answer : १८९३ के सितंबर महीने में शिकागो में, “पार्लियामेंट आफ रिलीजंस” यानी सर्वधर्म सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन में शामिल होने के लिए स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका की यात्रा की थी|

Questation : रामकृष्ण मिशन की स्थापना कब और किसने की?

Answer : रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानंद ने मई १८९७ को की थी और इस संगठन का उद्देश्य जनता तथा देश की सेवा था |

Questation : स्वामी विवेकानंद की मृत्यु कब और कैसे हुई?

Answer : स्वामी विवेकानंद की मृत्यु ४ जुलाई १९०२ को ३९ वर्ष की उम्र मे बेलुर मठ कलकत्ता मे लंबे समय तक बीमार रहने के कारण हुई थी |

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