फकीर मोहन सेनापति | Fakir Mohan Senapati

फकीर मोहन सेनापति | Fakir Mohan Senapati

हमारे देश में बोली जाने वाली अधिकांश भाषाएं बहुत प्राचीन हैं। भारत की इन प्राचीन भाषाओं में से उड़िया भाषा भी एक है जिसे संविधान में स्वीकार किया गया है। जिस प्रकार उत्तर भारत की अन्य भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, उसी प्रकार इस भाषा का मूल स्रोत भी संस्कृत है। उड़िया साहित्य ने गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में अच्छी उन्नति की है। जिन महान साहित्यिकों ने उड़िया भाषा को विकसित करने में अपना योगदान किया है, उनमें फकीर मोहन सेनापति का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है।

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फकीर मोहन सेनापति की शिक्षा


फकीरमोहन सेनापति की शिक्षा अधिक नहीं हुई। उच्च प्राथमिक स्तर तक अध्ययन करने के पश्चात उनका पढ़ना-लिखना बंद हो गया, जैसा कि हमारे देश में धनाभाव के कारण कितने ही प्रतिभा-संपन्न विद्यार्थियों के साथ होता है किंतु ऐसा अल्प शिक्षित व्यक्ति भी अपने दृण संकल्प, परिश्रम और निष्ठा के द्वारा जीवन में सर्वांगीण सफलता प्राप्त कर सकता है। उड़ीसा के एक महान सपूत फकीर मोहन सेनापति ने भी अपने जीवन में यह चरितार्थ करके दिखा दिया।

फकीर मोहन सेनापति का जन्म


उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य भाग तक भारत के पूर्वी अंचल में समुद्र तट पर एक प्रसिद्ध बंदरगाह तथा वाणिज्य-व्यापार का कंद्र था, बालेश्वर। यह उड़ीसा का एक प्रमुख शहर था। इसी शहर में १४ जनवरी १८४३ में फकीर मोहन सेनापति का जन्म हुआ था। फकीर मोहन के पिता एक धनाढ्य व्यक्ति थे | शहर के मध्य भागे में उनका एक बहुत बड़ा बगीचा था, जिसके बीच में एक सुंदर भवन था। उस भवन का नाम था – शांतिकानन। फकीर मोहन अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थे। इसलिए उनका लालन-पालन बड़े लाड़-चाव से हुआ, किंतु यह सुख उनके भाग्य में अधिक काल के लिए न था। डेढ़ वर्ष की आयु में फकीर मोहन अपने माता-पिता को खो बैठे। छोटी अवस्था में माता-पिता की मृत्यु हो जाने से इस अनाथ बालक का पालन-पोषण करना एक बड़ी समस्या हो उठी। फकीर मोहन की दादी ने जो कि उस समय तक जीवित थीं, उनकी देखभाल की।

उस समय उड़ीसा में मराठा घुड़सवार सैनिकों का बहुत अत्याचार था। लोग उनको बर्गी कहते थे और उनसे अत्यंत भय खाते थे। समय-समय पर मध्य भारत से वहां आते और चौथ वसूल करके चलते बनते। जब अंग्रेजों ने उड़ीसा में पदार्पण किया, तब जाकर कहीं मराठा बर्गियों का यह अत्याचार समाप्त हुआ | लेकिन अंग्रेज़ लोगों ने जब अपने पैर जमा लिए तो उनके अत्याचार भी किसी रूप में कम नहीं थे। फकीर मोहन की बाल्यावस्था में उनकी समस्त पैतृक संपत्ति अंग्रेजों ने हथिया ली और उनको निराश्रित होकर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर होना पड़ा। शिक्षा समाप्त कर वह रुग्णावस्था में इधर-उधर घूमने लगे। फरकीरमोहन को जीवन में कितना कठिन संग्राम करना पड़ा | यह इससे स्पष्ट है कि कई बार उनको घरेलू नौकर की तरह बर्तन तक मांजने पड़े थे।

लेकिन अपनी असाधारण लगन और उन्नति करने की कामना के बल पर वह समस्त प्रतिकूल परिस्थितियों और बाधाओं को पार कर एक बहुमुखी प्रतिभासंपन्न व्यक्ति के रूप में विकसित हुए। फकीर मोहन सेनापति एक साथ कवि, गल्प-लेखक, उपन्यासकार, संपादक, प्रकाशक और महान देशप्रेमी थे। गरीबी और पिछड़ेपन के वातावरण में पलकर भी वह आधुनिक विचारों और सुधार आंदोलनों की ओर आकृष्ट हुए। उन्होंने उड़ीसा में छापेखाने की स्थापना की। फकीरमोहन ने अपने आत्मचरित्र में लिखा है कि जिस दिन बालेश्वर में इस छापेखाने का काम शुरू हुआ, उस दिन हजारों लोग मशीन को देखने के लिए इधर-उधर से इकट्ठे हो गए थे। लोगों को छापाखाना देखकर ऐसा ही कौतूहल हुआ जैसा किसी समय नई-नई रेल चलने पर हुआ था। सेनापति ने स्वयं एक पत्रिका का संपादन किया और इस पत्रिका के जरिए जनता के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित किया।

जनता के मन में नई चेतना जागृत कर निराशा और शोषण से लोगों को मुक्त करना उनके जीवन का व्रत था। वह ८० वर्ष तक जीवित रहे। उनका यह दीर्घ जीवन समाज-सेवा में बीता और इस प्रकार उड़ीसा वासियों के लिए वरदान सिद्ध हुआ। फकीर मोहन सेनापति के दो विवाह हुए थे। दुर्भाग्य से उनकी दोनों पत्नियां जीवित नहीं रहीं। शोक-विह्वल होकर उन्होंने कुछ विरहगीत लिखे जो उड़़िया भाषा में बहुत लोकप्रिय है।

फकीर मोहन के आत्मचरित से हमें उनके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का तथा उनकी कार्यकुशलता का परिचय मिलता है। फकीर मोहन की योग्यता से मुग्ध होकर अनके तत्कालीन महाराजाओं ने उनको अपने-अपने राज्य में दीवान के पद पर नियुक्त किया था और सेनापति ने भी अपना कर्तव्य पूरी सफलता के साथ निभाया था। केंदुझर नामक एक रियासत में उन्हें वास्तव में एक सेनापति का कार्य संभालना पड़ा था। जिस समय सेनापति केंदझर राज्य के दीवान थे, उस समय भुइयां नामक आदिवासी लोगों ने एक ज़बरदस्त विद्रोह किया। उस विद्रोह का दमन करने के लिए महाराजा ने फकीर मोहन सेनापति को सेना की एक टुकड़ी के साथ विद्रोहियों से लड़ने भेजा था। जंगल में छिपे हुए विद्रोहियों ने अचानक आक्रमण करके महाराजा के समस्त सैनिकों को परास्त कर डाला और फकीर मोहन को बंदी बना लिया, लेकिन फकीर मोहन सेनापति ने जंगल से गुप्त संवाद भेज कर महाराजा को विद्रोहियों के केंद्र के बारे में सारी बातों की सूचना दी और तुरंत अधिक संख्या में सेना मंगवाई।

इसके बाद विद्रोही आदिवासियों के साथ सरकारी सेना की जोरदार लड़ाई हुई और इस लड़ाई में विद्रोही नेता सहित सभी आदिवासियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस घटना से फकीर मोहन की ख्याति बढ़ गई। फकीर मोहन सेनापति ने राज्य की आमदनी को बढ़ाया, दूसरे राज्यों से विवाद निपटाया तथा राजाओं के व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं को हल किया था।

फकीर मोहन सेनापति का साहित्य


उस समय राजाओं के दरबार में कवियों और साहित्यकारों का बड़ा आदर था। अपनी साहित्य-सेवा के लिए भी फकीर मोहन को राज दरबार में उच्च स्थान प्राप्त था। तब तक उड़ीसा में अंग्रेजों की कार्रवाइयों का जोर चला ही था। विदेशी शासकों ने भी नई शिक्षा संस्थाएं आरंभ की थी, जिनमें मातृभाषा की घोर अवहेलना की जाती थी | अपनी मातृभाषा की मर्यादा की रक्षा करने के लिए फकीर मोहन सेनापति ने स्वयं कदम उठाया था और उड़िया भाषा में कई पाठ्य पुस्तकों की रचना की। उन्होंने मूल संस्कृत से रामायण, महाभारत, उपनिषदों, हरिवंश पुराण तथा श्रीमद्भगवद्गीता का उड़िया भाषा में अनुवाद किया। सेनापति की लिखी हुई कहानियां भी उड़िया भाषा में अत्यंत प्रसिद्ध हैं।

फकीर मोहन ने आम जनता की भाषा में साहित्य की सृष्टि की और उसमें व्यंग्य तथा हास्य रस का संचार किया था। उन्होंने साहित्य के जरिए जनता के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखा और साधारण लोगों को उन्नति करने के लिए हमेशा प्रेरित किया। समाज के जीवन में प्रचलित अनेक कुसंस्कारों तथा अंधविश्वासों को दूर करने की भी उन्होंने कोशिश की थी। अपने उपन्यासों में फकीर मोहन सेनापति ने सामाजिक जीवन के समस्त पहलुओं का वर्णन किया था और जनता की जड़ता को दूर करने के लिए अनेक संदेश दिए थे। उनके दो उपन्यास “छः माण आठ गुंठ” (साढ़े छःएकड़ जमीन) और “लछमा” अत्यंत प्रसिद्ध है। अपने उपन्यासों में सेनापति ने ग्रामीण जीवन का जो वर्णन किया है, वह इतना रोचक है कि उसको पढ़ते हुए पाठक उसी में मग्न हो जाता है।

इसी प्रकार फकीर मोहन सेनापति के एक और प्रसिद्ध उपन्यास “लहमा” में १८वी सदी में उड़ीसा में मराठा शासन की, बर्गियों के साथ मुसलमानों के संघर्ष की और तात्कालिक सामाजिक जीवन की झांकी देखने को मिलती है। यह ऐतिहासिक उपन्यास है। इसका कथानक भी अत्यन्त हदयस्पर्शी है।

फकीर मोहन सेनापति एक उच्च कोटि के लेखक थे। उनकी साहित्यिक प्रतिभा आज भी हमे प्रेरणा देती है। वह वास्तव में आधुनिक उड़िया साहित्य के जनक ये। उनकी साहित्य सेवा का उद्देश्य जनता को एक नई चेतना देना और दासल से मुक्त करना था। उनकी रचनाओं से देशप्रेम और मानव प्रेम के संदेश मिलते हैं।

फकीर मोहन सेनापति की मृत्यु


१४ जून १९१८ में उनका स्वर्गवास हुआ। बालेश्वर स्थित उनका जन्म स्थान शाति-कानन आज भी एक पवित्र स्थान माना जाता है।

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