मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या | M. Visvesvaraya
ऐसे लोग कम ही होते हैं जिनको सौ वर्ष का जीवन मिलता हो और उनमें भी ऐसे लोग तो बहुत ही कम होते हैं जिनका दीर्घ जीवन देश और समाज की सेवा में बीतता हो।
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मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का जीवन परिचय
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का जन्म
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की शिक्षा
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के कार्य
कृष्णराज सागर बांध के निर्माण
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या, मैसूर का दीवान
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या को डॉक्टर व भारत रत्न की उपाधि
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की मृत्यु
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या भारत के ऐसे ही इने-गिने सपूतों में से थे। उनकी गणना देश के महान इंजीनियरों और प्रशासकों में होती रहेगी। उन्होंने आज से ५० वर्ष पहले मैसूर में बहुत बड़ा बांध कृष्णराज सागर बनवाया था और इस्पात तथा अन्य कारखाने खोले थे।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का जन्म
उनका जन्म १५ सितंबर १८६० को मैसूर राज्य के कोलार जिले में चिकवल्लपुर के पास मदनहल्ली नाम के एक गांव में हुआ था। कोलार जिला अपनी सोने की खानों के लिए प्रसिद्ध है । विश्वेश्वरय्या ने अपनी जन्मभूमि का नाम उज्ज्वल किया। जीवन की कसौटी पर वह खरे सोने की तरह चमके।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की शिक्षा
विश्वेश्वरय्या पढ़ाई-लिखाई में बचपन से ही बहुत तेज थे, लेकिन उनके मां-बाप बहुत निर्धन थे। वे विश्वेश्वरय्या के शिक्षा का खर्च नही उठा सकते थे, पैसे की कमी के कारण उनकी पढ़ाई में निरंतर बाधाएं आती रहीं। पर उन्होंने हिम्मत नही हारी। हाई स्कूल में प्रवेश करने के लिए उन्होने गांव से बंगलौर चले आए, उन्हें अपने रिश्तेदारों का सहारा लेगा पड़ा। वह कहीं पर रहते थे, कहीं पर सोते थे और ट्यूशन पढ़ाकर जैसे-तैसे खर्च चलाते थे | ऐसी पारिस्थितियोँ में विद्या प्राप्त करना कोई सरल काम नहीं है किंतु अपनी असाधारण लगन ने कारण विश्वेश्वरय्या बराबर सफल होते चले गए। जिन दिनों वह बी.ए. में पढ़ रहे थे, कालेज के प्रिंसिपल एक अंग्रेज़ सज्जन थे | वह विश्वेश्वरया के गुणों पर मुन्ध हो गए। उन्होने विश्वेश्वरय्या की सिफारिश करते हुए पूना के साइस कालेज के प्रिन्सिपल को चिट्ठी लिख दी | विश्वेश्वरय्या को इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला भी मिला और वजीफा भी। इस सविधा का विश्वेश्वरय्या ने पूरा-पूरा लाभ उठाया । उनका जो समय ट्युशन में नष्ट होता था उसे वह पढ़ाई में लगाने लगे। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दिनों में उन्होंने दो आदतें डाली, जिनको उन्होने जीवन भर नहीं छोड़ा | एक तो वह समय का कोई भी क्षण व्यर्थ नहीं खोते थे और दुसरे वह कार्यक्रम बनाकर अध्ययन और सभी काम करते थे | परिणाम यह हुआ कि इंजीनियरिंग की परीक्षा मे वह प्रथम आए।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के कार्य
विश्वविध्यालय की इंजीनियरी परीक्षा में प्रथम स्थान पाने के बाद वह २३ वर्ष की आयु मे सरकार के पी.डबल्यू.डी.(सार्वजनिक निर्माण महकमे) में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त हुए | विश्वेश्वरय्या बड़े तेजस्वी थे और आरंभ से ही कामो को अपनी अनोखी सूझबुझ के अनुसार करना चाहते थे। उन्हें जो पहला काम सौपा गया था | उसके संबंध मे सोच-विचार के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचे थे कि उसे वर्षांकाल में पूरा करना कठिन होगा और उस पर खर्च भी ज्यादा बैठेगा | अपनी यह सच्ची राय उन्होंने अपने बड़े इंजीनियर को लिख भेजी। इस पर उस इंजीनियर ने नाराज होकर उन्हें चेतावनी-भरा पत्र लिखा कि काम करने की शक्ति और आज्ञाकारिता में यह इंजीनियर अच्छा नहीं। इसे पढ़कर विश्वेश्वरय्या दंग रह गए । उन्होंने उस काम को आज्ञानुसार ही पूरा करने के लिए कमर कस ली और यद्यपि उन्हें ऐसा करने में बड़ी परेशानी उठानी पड़ी, फिर भी उन्होंने उस काम को समय पर पूरा कर डाला। अपनी कड़ी मेहनत, लगन और कार्य-कुशलता से वह शीघ्र ही अपने अधिकारियों की नजरों में ऊंचे उठने लगे। उनकी दिनों-दिन तरक्की होने लगी और वह एक के बाद एक ऊंचे पद पर काम करते चले गए। कई बार उन्हें कई ऐसे काम सौंपे गए जिनको अंग्रेज़ इंजीनियरों के वश से बाहर समझा गया | पानी पहुंचाने की व्यवस्था और जल-निकास के लिए नालियों का प्रबंध करने में विश्वेश्वरय्या ने विशेष योग्यता प्रदर्शित की थी। बंबई सरकार की नौकरी के दिनों में उन्होंने बंगलौर, पूना, मैसूर, कराची, बड़ोदा, हैदराबाद ग्वालियर, इंदौर, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, धारवाड़, बीजापुर आदि शहरों में पानी नल और नालियों की व्यवस्था की थी। इसलिए अदन बंदरगाह में पानी-नल लगाने और जल-निकासी के लिए नालियों का प्रबंध करने के लिए उनको विशेष रूप से भेजा गया था। कुछ अंग्रेज़ इंजीनियरों को यह बात पंसद नहीं आई कि उनके रहते एक भारतीय इंजीनियर को अधिक योग्य मानकर एक जिम्मेदार काम के लिए विदेश भेजा जाए। वे विश्वेश्वरय्या को नीचा दिखाने की कोशिश में रहने लगे। बढ़ते हुए मनमुटाव को देखकर विश्वेश्वरय्या चौबीस वर्ष तक बंबई सरकार की नौकरी करने के बाद स्वेच्छा से उससे अलग हो गए। उस समय वह सुपरिटीडंग इंजीनियर के पद पर थे।
कृष्णराज सागर बांध के निर्माण
विश्वेश्वरय्या की ख्याति सारे देश में फैल चुकी थी। बंबई सरकार की नौकरी से अवकाश लेकर वह यूरोप-भ्रमण कर रहे थे, कि हैदराबाद सरकार ने उन्हें विशेष सलाहकार इंजीनियर के पद पर अपने यहां बुला लिया। हैदराबाद रियासत में उन दिनों भयंकर बाढ़ आ चुकी थी और हैदराबाद के निजाम बहुत चिंतित थे। वह चाहते थे कि ऐसी आफत दोबारा न आने पाए। इस संबंध में उनकी निगाह विश्वेश्वरय्या पर ही जाकर टिकी थी। इससे विदित होता है कि विश्वेश्वरय्या की इंजीनियरी क्षमता में लोगों को कितना अधिक विश्वास हो गया था कुछ ही महीनों बाद मैसूर नरेश ने विश्वेश्वरय्या को मैसूर के चीफ इंजीनियर पद पर बुला लिया। इस पद पर काम करते हुए उन्होंने कावेरी नदी पर कृष्णराज सागर बांध बनवाया। यह बांध उस समय भारत का सबसे बड़ा बांध था। इस बांध को देखकर महात्मा गांधी ने भी विश्वेश्वरव्या की प्रशंसा की थी।
जहां कहीं कोई बड़ा बांध बनाया जाता है, वहां दूर-दूर तक लोगों को जल और बिजली की सुविधा हो जाती है। जल और बिजली प्राप्त होने से खेती और कल कारखाने पनपने लगते है भारत के स्वतंत्र होने पर देश की तीव्र प्रगति के लिए जल और बिजली की अनेक योजनाएं बनाई गई और कितने ही बांधों का निर्माण हुआ, किंतु योजनाएं बनाकर विकास करने का जो काम भारत में अब आकर शुरू हुआ, उसी को मैसूर में विश्वेश्वरय्या ने बहुत पहले कृष्णराज सागर बांध बनवाकर कर दिखाया| जल और बिजली की इस योजना से मैसूर की उन्नति का सूत्रपात हुआ।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या, मैसूर का दीवान
लगभग तीन वर्ष बाद विश्वेश्वरय्या को मैसूर का दीवान बना दिया गया। वह छः वर्ष तक मैसूर के दीवान रहे। इस बीच उन्होंने शिक्षा और उद्योगों का बड़ा विस्तार किया। उन्होंने मैसर में इंजीनियरी और टेक्नीकल शिक्षा का प्रबंध किया और मैसूर विश्वविद्यालय स्थापित किया। उन्होंने मैसूर का राज्य बैंक खोला और सीमेंट, कागज, साबुन आदि के नए उद्योग-धंधे स्थापित किए। मैसूर का प्रसिद्ध वृंदावन उद्यान भी उन्हीं का बनवाया हुआ है। भद्रावती में लोहा और इस्पात कारखाना खोलने का काम भी उनके समय में आरंभ हुआ था। बाद में दीवान के पद से अलग हो जाने पर इस कारखाने का प्रबंध बिगड़ने लगा। कारखाने का प्रबंध ठीक करने के लिए विश्वेश्वरय्या को विशेष रूप से बुलाया गया और कुछ ही समय में कारखाने को उन्होंने सुचारु रूप से चला दिया। कारखाने से पारिश्रमिक के रूप में उन्हें बहुत सा धन मिला, जिसे उन्होंने नई शिक्षा संस्थाएं खोलने के लिए दे दिया ।
जब वह कितने ही बड़े-बड़े पदों पर रहे, लेकिन उन्होंने अपने पद से कभी कोई लाभ नहीं उठाया। इतना ही नहीं उन्होने अपनी मां तक से यह वचन ले लिया था कि वह कभी किसी की सिफारिश नहीं करेगी ।
१९२२ में बंबई में देश के सभी राजनीतिक दलो का एक सम्मेलन बुलाया गया। इसमें गांधी, जिन्ना, मदनमोहन मालवीय और एम.आर. जयकर आदि बड़े-बड़े नेता शामिल हुए थे | विश्वेश्वरय्या को सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया था।
विश्वेश्वरय्या का एक और बड़ा काम बिहार राज्य में मोकामा में गंगा के पुल के निर्माण के संबंध में सलाह देना था। उन्होंने यह काम ९२ वर्ष की आयु में अपने ऊपर लिया और उसे बड़े उत्साह से पूरा किया। बनारस से आगे गंगा के रास्ते को समझने के लिए उन्हें मीलों पैदल भी चलना पड़ा | लेकिन एक बार जब उन्होंने काम को अपने ऊपर ले लिया तो फिर उसे पूरा करने के लिए उन्हें कोई भी कठिनाई बहुत बड़ी मालूम नहीं हुई।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या को डॉक्टर की उपाधि
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या को भारत रत्न
उनकी दीर्घकालीन सेवाओं के लिए कई विश्वविद्यालयों ने विश्वेश्वरय्या को डाक्टर की उपाधि देकर उनका सम्मान किया। भारत सरकार ने उन्हें १९५५ में “भारतरत्न” से विभूषित किया।
विश्वेश्वरय्या बड़े शांत, गंभीर और स्वाभिमानी व्यक्ति थे । उनकी आंखों में चमक और आकर्षण था। वह कामदार पट्टीवाला प्रसिद्ध मैसूरी साफा बांधते थे | सौ वर्ष की आयु में भी उनमें थकान का नाम नहीं था। वह बराबर काम में लगे रहते थे और काम के नए अवसर ढूंढ़ते रहते थे। कठिन परिश्रम को ही वह अपने दीर्घ जीवन का मूल रहस्य मानते थे। इसके अतिरिक्त वह इन तीन बातों को जरूरी समझते थे - मन में संतोष हो, खूब खुली हवा में रहा जाए और चित्त सदा प्रसन्न रहे।
विश्वेश्वरय्या अनेक बार विदेश गए और पश्चिमी देशों की विशेष रूप से अमेरिका और जापान की, उन्नति ने उनको बहुत प्रभावित किया | उन्होंने देखा कि इसके दो बड़े कारण है एक तो यह कि इन दोनों देशों में शिक्षा को बहुत महत्व दिया जाता है और दूसरे इन देशों के लोग बड़े परिश्रमी हैं। वह चाहते थे कि भारतवासियों में भी काम के प्रति वैसा ही अनुराग उत्पन्न हो। विश्वेश्वरय्या का कहना था कि बारह वर्ष की आयु से ही बालक को अपने पैरों पर खड़े होने की आदत डालनी चाहिए और यह सोचना चाहिए किं मुझे जो कुछ बनना है अपनी मेहनत और लगन से बनना है। वह अनुशासन कट्टर समर्थक थे। वह स्वयं जो कुछ करते थे, नियमपूर्वक योजना बनाकर करते थे।
देश की उन्नति भी वह योजना बनाकर कार्यक्रम के अनुसार करने के पक्षपाती थे। जीवन में सफल होने के लिए वह इस बात को जरूरी मानते थे किं परिस्थितियां चाहे अच्छी हों चाहे बुरी, धैर्य रखना चाहिए। अपने में विश्वास किसी भी स्थिति में नहीं खोना चाहिए।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का निधन
विश्वेश्वरय्या का देहांत १४ अप्रैल १९६२ को १०१ वर्ष की आयु में हुआ। उनके जीवन की कहानी उनकी दीर्घ आयु के अनुसार ही एक लंबी कहानी थी।
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