केशवसुत | कृष्णाजी केशव दामले | Keshavsut

केशवसुत | कृष्णाजी केशव दामले | Keshavsut

तमिल भाषा में जो स्थान सुब्रह्मण्यम भारती का है और हिंदी में भारतेंदु का | वहीं मराठी के केशवसुत की गणना उन महान कवियों में की जा सकती है, जो पुरानी लीक पर न चलकर अपना रास्ता स्वयं बनाते है। उन्होंने पुराने रीति-रिवाजों, पुरानी परंपराओं और पुरानी काव्य-शैली को तोड़कर नए प्रयोगों द्वारा तथा नए छंदों की रचना कर मराठी कविता को एक नई दिशा दी। यह वह समय था जब पश्चिम के प्रभाव से भारत में भी राष्ट्रीय जागरण की भावना चारों और व्याप्त थी।

Keshavsut

केशवसुत का जन्म


उनकी जन्म-तिथि तथा जन्म-स्थान के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है, परंतु इस बात से सभी सहमत हैं कि उनका जन्म १८६६ में हुआ। एक स्थान पर केशवसुत ने अपना जन्म स्थान “वलणे” लिखा है। वलणे महाराष्ट्र के दोपाली जिले में है। केशवसुत का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ। उनके पांच भाई तथा छः बहने थी। उनका विवाह १५ वर्ष की छोटी आयु में चितले परिवार की रकिगणी बाई से हुआ जिसकी आयु कुल आठ वर्ष की थी। कहा जाता है कि पति-पत्नि दोनों संकोची और लज्जालु थे।

केशवसुत बचपन से ही जरा दुर्बल और चिड़चिड़े मिजाज के थे। दुर्बलता के कारण वह दौड़-धूप और अम-साध्य खेलों में भाग नहीं लेते थे। वह बहुत कम बोलते थे, उनकी रुचि लंबे-लंबे रास्तों पर अकेले धूमने तथा एकांत में बैठकर प्राकृतिक दृश्यों को देखने में थी | वह भीड़-भाड़ से दूर रहना चाहते थे। उनकी इस आदत के कारण उनकी माता उन्हें सिरफिरा कहा करती थी।

केशवसुत अत्यंत गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। उन्हें अपना ढिंढोरा पीटने से चिढ़ थी, यहां तक कि उन्हें अपनी फोटो खिंचवाना भी पसंद नही था। यही कारण है कि आज उनका कोई प्रामाणिक चित्र उपलब्ध नहीं है तथापि लोगों का कहना है कि उनका गोरा मुखमंडल विचारपूर्ण और तेजस्वी दिखाई देता था। उनके माथे पर सदा ही आड़ी-तिरछी लकीरें और बल पड़े रहते थे।

केशवसुत की शिक्षा


उनका बचपन और शिक्षा काफी कष्टमय रही। उन्होंने २४ वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास की। इतनी बड़ी अवस्था में मैट्रिक पास करने का कारण यह था कि वह दो बार फेल हो गए। विदेशी भाषा अँग्रेजी में उन्हें पर्याप्त अंक नहीं मिले। दूसरे वह बहुत धीमे-धीमे लिखा करते थे। तीसरे, वह कविता के अत्यधिक रसिक थे। एक बार तो वह काव्य चर्चा में ऐसे डूबे रहे कि परीक्षा-भवन में जाना ही भूल गए।

मैट्रिक के बाद केशवसुत आर्थिक संकट के कारण पढ़ाई जारी नहीं रख सके, वह नौकरी की तलाश में बंबई पहुंचे। ऊंची डिग्री न होने के कारण नौकरी मिलने में कठिनाई हो रही थी इस पर भी वे स्वाभिमानी इतने थे कि किसी उच्चवर्गीय मित्र से नौकरी दिलवाने के लिए कोई सहायता नहीं लेना चाहते थे। अंत में उन्हें दादर में न्यू इंग्लिश स्कूल में अध्यापक का कार्य मिल गया परंतु यहां आय इतनी कम थी कि कई बार उन्हें उसकी पूर्ति ट्यूशन करके करनी पड़ती । उनकी इच्छा के विरुद्ध जब उनका स्थानांतरण कराची कर दिया गया तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।

बंबई में अध्यापक के रूप में उनका संपर्क तीन नवयुवक साहित्यकारों-काशीनाथ रघुनाथ मित्र, भांगले और गोविंद बालकृष्ण कालेलकर से हो गया। इस संपर्क से केशवसुत को काव्य रचना में रस आने लगा। शीघ्र ही बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध बंगला उपन्यास “आनंद मठ” का मराठी अनुवाद “आनंदाश्रम” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के “वंदे मातरम्” गीत में भारतमाता के लिए प्रयुक्त “सुजला और सुफला” विशेषणों को केशवसुत ने अपनी कविता “कवितेचे प्रयोजन” में प्रयुक्त किया।

धीरे-धीरे उन पर राष्ट्रीयता का रंग अधिक गहरा होता गया और वह बंबई में आर्य समाज, प्रार्थना समाज और गिरजाघरों में व्याख्यान सुनने जाने लगे थे | इतने में बंबई में महामारी के फैल जाने के कारण उन्हें बंबई छोड़ने पर विवश होना पड़ा।

फलतः केशवसुत बंबई छोड़ कर खानदेश चले गए। वहां उन्होंने १८९८ में सरकारी एस.टी. सी. परीक्षा पास की और १९०१ में फैजपुर में मुख्याध्यापक के पद पर नियुक्त हुए।

खानदेश में केशवसुत की मैत्री प्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि विनायक जनार्दन करंदीकर से हुई दोनों में सामाजिक अन्याय और राजनैतिक दासता के विरुद्ध विद्रोह की समान भावना थी। यहां केशवसुत को पढ़ने के लिए पर्याप्त सामग्री मिली, परंतु अपने स्वतंत्र विचारों के कारण अधिकारियों से उनकी नहीं पटी और उन्होंने स्थानांतरण के लिए आवेदन दे दिया। अप्रेल १९०४ में उनको धारवाड़ हाई स्कूल में मराठी अध्यापक बनाकर भेजा गया।

केशवसुत की मृत्यु


धारवाड़ से वह पत्नी तथा पुत्र सहित अपने बीमार चाचा हरी सदाशिव दामले से मिलने हुबली गए। वहां १९०५ में प्लेग के कारण उनकी मृत्यु हो गई। उस समय उनकी आयु केवल ३९ वर्ष की थी। इस प्रकार न तो उनको दीर्घ जीवन मिला, न काव्य रचना की सुविधाएँ।

केशवसुत की रचनाए


कहा जाता है कि केशवसुत ने बचपन से ही काव्य रचना आरंभ कर दी थी, परंतु उनकी प्रारंभिक कविताएं प्राप्य नही है। उनकी जो पहली रचना प्रकाश में आई, वह “रघुवंश” के एक अंश का अनुवाद है जो १८८५ के आस-पास का है। इस समय की उनकी कविता को देखकर लगता है कि उन पर संस्कृत का काफी प्रभाव था और वह भारतीयता के उपासक थे, किंतु विद्रोह का स्वर भी उनमें बचपन से ही स्पष्ट था। स्कूल में पढ़ते समय वह अपने शिक्षक के दुर्व्यवहार से बहुत दुखी हुए। उन्हें यह कदापि सहन नहीं हुआ कि शिक्षक डंडे के बल पर शिक्षा देना अपना मूल मंत्र समझे। उनके मन में इस दूषित शिक्षा पद्धति और सामाजिक बुराई के प्रति जो रोष उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने “बच्चे को मारने वाला शिक्षक” नामक कविता में इस प्रकार प्रकट किया है |

केशवसुत प्रकृति को एक जड़ वस्तु न मानकर उसे प्रेरणादायिनी शक्ति मानते थे जब वह इस भीड़-भाड़ से भरे संसार से ऊब जाते तो वह एकांत प्रकृति की गोद में निकल जाते, जहां पर उन्हें शांति और संतोष मिलता। प्रकृति को लेकर उनकी दो कविताएं बहुत महत्वपूर्ण है – वर्षा के प्रति तथा दिवाली। ‘वर्षा के प्रति’ एक छोटी-सी कविता है परंतु इसे पढ़कर कालिदास के ‘ऋतुसंहार’ की याद ताजी हो जाती है।

केशवसुत ने अपनी प्रेम-प्रधान कविताओं में संस्कृत की श्रृंगार वर्णन शैली और प्राचीन मराठी कविता की रीति शैली को नहीं अपनाया। उनकी प्रेम कविताएं शुद्ध सात्विक प्रेम की कविताएं हैं। उनकी कविताओं का पाठ करते हुए किसी भी समय संकोच का अनुभव नहीं होता। उनके मुख्य विषयों में बच्चे तारे, पुरानी स्मृतियां, देहाती लड़के तथा मयूरासन और ताजमहल भी आते हैं।

केशवसुत ने कुल १३२ कविताएं रचीं। इनमें २५ अनुवाद हैं- चार संस्कृत से और शेष अंग्रेजी से। उन्होंने विचार प्रधान कविताएं अधिक लिखीं।

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