पजहस्सी राजा | Pazhassi Raja

पजहस्सी राजा | Pazhassi Raja

दक्षिण भारत में १८५७ के स्वाधीनता संग्राम से भी बहुत पहले जिन महान योद्धाओं ने अंग्रेजों से लोहा लिया था, उनमें केरल वर्मा पजश्शि राजा का नाम चोटी पर आता है । वह केरल सिंह के नाम से विख्यात थे। अंग्रेजों का मुकाबला उन्होंने सचमुच शेर की तरह ही किया। वयनाड की बीहड़ पहाड़ियों में उन्होंने अंग्रेजों का डटकर सामना किया और उन्हें नाकों चने चबवा दिए।

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पजहस्सी राजा का जन्म


केरल वर्मा पजहस्सी राजा कोट्टयम् राजवंश के छोटे राजकुमार थे । कोट्टयम् केरल के मलाबार इलाके में है। उनका जन्म १७६० में हुआ था। उन दिनों अंग्रेजों का सितारा बुलंदी पर था। दक्षिण भारत में उनके पांव जमने लगे थे। भारत के राजाओं की फूट का लाभ उठाते हुए, वे एक के बाद एक स्थानों पर छल-बल और कपट से अधिकार जमाते जा रहे थे। वे प्रजा का खून चूसते थे। किसानों से बहुत ज्यादा मालगुजारी वसूल की जाती थी। वे भारतीय राजाओं को मालगुजारी वसूल करने का काम सौंप देते थे और खेती करने वाले किसानों की रत्ती भर भी परवाह न करते थे ।

पजहस्सी राजा और टीपू सुल्तान


धीरे-धीरे वे मालगुजारी की रकम बढ़ाते गए, जिससे किसानों के धैर्य टूट गया और वे उनका विरोध करने लगे। इसी के साथ एक और घटना भी हो गई थी। टीपू सुलतान के विरुद्ध युद्ध में केरल वर्मा ने अंग्रेजों की सहायता की थी और बदले में अंग्रेजों ने उन्हें यह वचन दिया था, कि हम कोट्टयम की मालगुजारी एकत्र करने का काम आप को सौंपेंगे, पर बाद में अंग्रेज अपने वायदे से मुकर गए। इसलिए लोकप्रिय राजकुमार केरल वर्मा ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और जनता ने भी उनका पूरा-पूरा साथ दिया। यह विद्रोह १७९३ से १७९७ तक चला। उन्होंने कोट्टयम में मालगुजारी जमा करना बंद कर दिया|

ईस्ट इंडिया कंपनी का षड्यंत्र


ईस्ट इंडिया कंपनी के कमिश्नरों ने विद्रोही राजकुमार को दबाने की भरपूर चेष्टा की पर जनता के विरोध के कारण उन्हें सफलता न मिली और अंग्रेजों को मजबूर होकर मालगुजारी की वसूली का काम मुल्तवी करना पड़ा। इसके अतिरिक्त केरल वर्मा ने ऐसे बहुत से व्यक्तियों को आश्रय दिया, जिन्हें अंग्रेजों ने राजद्रोही घोषित किया हुआ था। इन बातों से अंग्रेज बड़े कुपित हुए और उन्होंने सेना की एक टुकड़ी पजश्शि भेजी ताकि वहां जाकर राजा को गिरफ्तार कर लाए |पर राजा वहां से बचकर भाग निकले। अंग्रेजी सेना की टुकड़ी महल को तहस-नहस करके लौट आई।

इसके बाद राजा पर अंग्रेजी फौज का दबाव दिनों-दिन बढ़ता गया। इसलिए वह वयनाड की बीहड़ पहाड़ियों में छिप गए। वहां उन्होंने छापामार युद्ध की नीति अपना ली। वयनाड की पहाड़ियों में ही राजा ने अपने शौर्य और अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया। अंग्रेज उन्हें वहां कभी भी सच्चे अर्थों में पराजित न कर सके ।

सन् १७९६ के लगभग राजा ने सहयाद्रि पर्वत के कुट्टियाडि घाट नामक एक दर्रे की पूरी तरह नाकाबंदी कर दी। मजबूर होकर अंग्रेजों को राजा से सुलह करनी पड़ी। राजा को फिर पजश्शि लौटने दिया गया पर वहां कंपनी के अधिकारियों से उनकी फिर खटपट हो गई। राजा फिर वयनाड की अपनी चिरपरिचित पहाड़ियों में लौट गए। इसके बाद अंग्रेजों से कई बार राजा की झड़पें हुई, जिनमें बहुत से अंग्रेज मारे गए । अंत में अंग्रेजों को वयनाड छोड़कर मैदानों को चले जाना पड़ा।

सन् १७९७ में अंग्रेजों ने फिर कर्नल डो और लेफ्टी मीले के नेतृत्व में राजा पर हमले किए परंतु पजश्शि राजा के नेतृत्व में नायर और कुरिच्चिया आदि जाति के लोगों ने डटकर मुकाबला किया और अंग्रेजों को असफल होकर लौट जाना पड़ा। तब से आज तक केरल के घर-घर में पजश्शि राजा की वीरता की कहानियां सुनी-सुनाई जाती हैं।

पजहस्सी राजा और अंग्रेज़ो के बीच सुलह समझौता


१८ मार्च १७९७ को तो राजा ने मेजर कैमेरन की ११०० आदमियों की सेना को भयंकर क्षति पहुंचाई और उनमें से अधिकांश व्यक्ति मौत के घाट उतार दिए गए। जब अंग्रेजों ने देखा कि वह पजश्शि राजा को हरा नहीं सकते तो उन्होंने फिर से सुलह-समझौते का मार्ग अपनाया। बंबई का गवर्नर स्वयं मालाबार गया और राजा से एक समझौता किया। राजा के लिए ८००० रुपये वार्षिक की पेंशन स्वीकार की गई।

वास्तव में अंग्रेज केवल एक चाल चल रहे थे। चार वर्ष बाद उन्होंने चुपचाप वयनाड पर कब्जा जमाने की सोची। परंतु राजा बड़े स्वाभिमानी थे। वह यह कभी भी सहन नहीं कर सकते कि उनके अधिकारों का उल्लंघन हो और जनता के हितों की बलि चढ़ाई जाए। इसलिए राजा फिर अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए, उन्होंने घोषणा की कि वयनाड मेरी निजी संपत्ति है और अंग्रेज उस पर अधिकार नहीं कर सकते । जनता ने भी अपने राजा का समर्थन किया वहां रहने वाले सभी जातियों के लोग जैसे नायर, कुरिच्चिया और यहां तक कि मुसलमान मोपला लोग भी राजा के पीछे थे। जातिगत और धार्मिक मतमेद भुला दिए गए। लोगों में देशभक्ति की अपूर्व भावना का संचार हुआ। ऐसी थी राजा की लोकप्रियता ।

पजश्शि राजा ने अपने लोगों को छापामार युद्ध की कला सिखाई और उन्हें लंबी लड़ाई के लिए तैयार किया। अंग्रेजों ने भी अपनी पूरी तैयारी की मालाबार और मैसूर स्थित अंग्रेजी सेनाओं के लिए एक जबर्दस्त आदमी सेनापति चुना गया उसका नाम था सर आर्थर वेलजली (बाद में उसी ने नेपोलियन बोनापार्ट पर विजय प्राप्त की थी और उसी को ड्यूक आफ वेलिंगटन की उपाधि दी गई थी।) वेलजली ने एक सुनियोजित ढंग से पजश्शि के मजबूत ठिकानों पर हमला करना शुरू किया। उसने वहां पर सड़कें बनवाई, किले बनवाए और सामरिक महत्व के ठिकानों पर नाकाबंदी की। वहीं से अंग्रेजी सेना की टुकड़ियां परजश्शि राजा के सैनिकों पर आक्रमण करने के लिए भेजी जाती थी ।

मालाबार के कलेक्टर ने अपने जिले से विदोह का नाम-निशान तक मिटा देने का बीड़ा उठाया। मैसूर की तरफ से कर्नल स्टीवेन्सन ने एक बड़ी सेना के साथ वयनाड में प्रवेश किया। मालाबार के गांवों में भी विद्रोह को दबाने के लिए एक पुलिस टुकड़ी संगठित की गई। इस तरह अंग्रेजों ने पजश्शि राजा का संबंध उनकी स्थानीय प्रजा से काट दिया। शुरू में पजश्शि राजा ने वहां से कई बार अंग्रेजों पर आक्रमण किया। जहां कहीं जनता अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़ी होती, वहीं परजश्शि राजा की सेना उनकी मदद के लिए पहुंच जाती। पर बाद में अंग्रेजी सेना का दबाव बढ़ने पर वह एक जगह टिक कर न रह सके और अपने साथियों, अपनी पत्नी और सेवकों सहित उन्हें एक जगह से दूसरी जगह भागे-भागे फिरना पड़ा। उनके बहुत से सहायक पकड़े गए और मार डाले गए। इसके साथ ही राजा की अंग्रेजों से करारी झड़पें भी होती रहती थीं। अंग्रेज सेनापति बाबेर बराबर उनका पीछा करता रहता था।

पजहस्सी राजा की मृत्यु


३० नवंबर १८०५ को ऐसी ही एक झड़प में राजा ने गोली लगने से वीरगति पाई । उनकी पत्नी और सेविकाएं पकड़ ली गईं। बाबेर राजा का शव अपनी पालकी में रखवाकर मनानटोड़ी ले गया और वहां सम्मानपूर्वक उसका दाह-संस्कार कर दिया गया ।

बाबेर के ही शब्दों में, ” यद्यपि राजा विद्रोही था पर बह सही अर्थों में अपने इलाके का मुखिया था ।”

केरल वर्मा पजश्शि राजा के देहांत के बाद मालावार में अंग्रेजों का प्रतिरोध समाप्त हो गया। राजा के बहुत से साथी मारे गए और कइयों ने आत्महत्या कर ली। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह पजशिश राजा का विद्रोह भी राजसत्ता को लेकर हुआ था, परंतु इसे सभी वर्गों और सभी धर्मों के लोगों का समर्थन प्राप्त था। इसीलिए उनके विद्रोह को जनता के विद्रोह का रूप मिल गया।

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