ज्योति रामलिंगा स्वामीगल | Ramalinga Swamigal

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल | Ramalinga Swamigal

आदमी, आदमी को प्यार करे, उसे सही-सही समझे और समाज के हित में काम करे, यह भावना न होने की समस्या बनी हुई है। इस समस्या के समाधान के लिए हमारे देश में अत्यंत प्राचीन-काल से बहुत से ऋषियों-महात्माओं ने प्रयास किए हैं कि देश, काल जाति, भाषा की सीमाओं से ऊपर उठकर मानवता फूले-फले। उन्होंने अपने त्याग, तप से लोगों के कल्याण का पथ प्रशस्त किया है। आधुनिक युग में रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, अरविंद और रमण महर्षि जैसी विभूतियां हमारी भारत-भूमि पर जन्म ले चुकी हैं | इन्हीं के जैसे एक और महापुरुष हमारे देश में हो चुके हैं, जिनका नाम है – रामलिंग स्वामीगल।

Ramalinga%2BSwamigal

अनुक्रम (Index)[छुपाएँ]

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल का जीवन परिचय

वल्ललार

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल का जन्म

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल की शिक्षा

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल की अदृश्य शक्ति

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल के कथन

समरस शुद्ध सन्मार्ग संघ की स्थापना

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल का साहित्य

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल की विलुप्ति

रामलिंगा स्वामीगल | ज्योति रामलिंग | वल्ललार | Vallalar


रामलिंग स्वामी को प्रकाश से अत्यंत प्रेम था। इसी के कारण वह “ज्योति रामलिंग” कहलाते थे। पृथ्वी के समस्त जीवों के प्रति करुणा रखने के कारण उनको “वल्ललार” के नाम से भी पुकारा जाता है।

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल का जन्म


रामलिंग का जन्म ५ अक्तूबर १८२३ को चिदंबरम के नजदीक एक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम रामैया पिल्ले था। वह एक स्कूल मास्टर थे, रामलिंग अपने पिता की दूसरी संतान थे। कहते है कि शिशु-अवस्था में ही जब वह चिदंबरम के मंदिर में गए तो मुस्करा उठे, मानो उन्हें नटराज के रूप में भगवान शिव के दर्शन हो गए थे। यह देखकर मंदिर के पुजारी ने उनके माता-पिता से कहा कि इस बालक पर भगवान की कृपा जान पड़ती है। यह महात्मा होगा। अभी रामलिंग तीन साल के ही थे कि उनके पिंता का देहांत हो गया। फलतः उनका पालन पोषण उनके बड़े भाई सभापति पिल्ले ने ही किया।

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल की शिक्षा


शिक्षा के लिए उन्हें एक तमिल विद्वान के पास भेजा गया। रामलिंग का मन पढ़ने-लिखने में कम और भगवान-भक्ति में अधिक लगता था, वह खोए-खोए से रहते। जब वह १० साल से भी कम उम्र के थे, उनके शिक्षक यह देखकर चकित रह गए कि उन्होंने चेन्नई के कुंडास्वामी मंदिर में स्थापित भगवान सुबहाण्य की स्तुति में गीत रचे है रामलिंग का यह हाल देखकर उनके बड़े भाई सभापतिं पिल्ले चिंतित हो उठे | वह तो अपने भाई को पढ़ा-लिखाकर संसारी बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने अपनी पत्नी से कहा किं जब तक यह मन लगाकर न पढ़े तब तक इसे खाना न देना। लेकिन भाभी का हृदय बहुत कोमल था, वह कैसे मानता। उसने अपने पति का यह कठोर आदेश न माना। वह चोरी-चोरी रामलिंग को खाना दिया करती थी। वह रामलिंग को यह भी समझाती थी कि ऊपर के कमरे में जाकर पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश किंया करो । लेकिन रामलिंग का मन तो भगवान में रमा हुआ था। वहां भी उन्हें भगवान की वही छवि दिखाई पड़ने लगी।

नतीजा यह हुआ कि पढ़ाई-लिखई में तो वह पिछड़ते चले गए, मगर दुनिया के लोगों से उन्हें जो कुछ कहना था, वह तमिल भाषा में काव्य बनकर उनके हृदय से निकलने लगा। उनके बड़े भाई सभापति पिल्ले कथावाचक का काम करते थे। एक बार उन्हें चेन्नई में शैव संतों की गाथा पेरिया पुराणम् पर व्याख्यान देना था। सहसा उनकी तबीयत खराब हो गई और वह वहां जाने में असमर्थ हो गए। फलतः उन्होंने अपने छोटे भाई रामलिंग को यह कहकर वहां भेजा कि “सभा में जो लोग आएं, उनसे क्षमा-याचना कर लेना कि अस्वस्थ होने से मै आने में असमर्थ हो गया और यदि सुना सको तो गाथा के एक-दो पद भी व्याख्या किए बिना सुना देना।“

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल की अदृश्य शक्ति


लेकिन रामलिंग में जो अदृश्य शक्ति ज्योतिपुंज के रूप में विद्यमान थी, उसका प्रभाव कहिए या कुछ और कि उन्होंने लोगों के अनुरोध पर पेरिया पुराणम् में से संत ज्ञान संबंदर के जीवन संबंधी पदों की बड़ी सुंदर व्याख्या की, जिसे श्रोतागण मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे। जब यह समाचार उनके बड़े भाई को मिला तो रामलिंग के प्रति उनकी राय बदल गई और पहले का रूखा व्यवहार अब आदर और सम्मान में बदल गया।

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल के कथन


रामलिंग मायामोह में फंसने वाले जीव नहीं थे। फिर भी जब घर वालों और सगे-संबंधियों का दबाव पड़ा, तो उन्होंने विवाह कर लिया यह विवाह-संबंध अधिक दिन टिका नहीं। शीघ् ही रामलिंग घर-द्वार छोड़कर जहां-तहां भटकने लगे। अब उनके लिए यह सारा संसार ही घर था। इस संसार के पेड़-पौधों से लेकर जीव-जंतु और मनुष्य, सभी से उनका नाता था | सबके लिए उनके मन में केवल प्यार था, यही कारण है कि जब वह जलाभाव से सुखते पौधों को देखते तो उनका हृदय फटने लगता। जब बीमार और दुखियों को कराहते सुनते तो उनकी आंखों से अश्रुधारा उमड़ पड़ती, जब वह बकरों और पक्षियों को देवी-देवताओं की बलि चढ़़ते देखते तो उनके प्राण तड़प उठते और वह चीख उठते थे | “मेरे भगवान! यह क्रूरता और कायरता , अब मूझसे सही नहीं जाती। शक्ति दो मुझे, वह शक्ति दो, और अभी दो, ताकि मैं इसे रोक सकूं।“

रामलिंग की दृष्टि में करुणा का सर्वोच्च स्थान था उनके लिए वह ज्ञान बेकार था, जिसमें करुणा का योग न हो | उनका मत था कि ज्ञान से नहीं, बल्कि दया और प्रेम से ही कोई भगवान को पा सकता है, जो इस संसार का सृजनहार और पालनकर्ता है। विश्व का आभार भी अहिंसा ही है।

उनके बहुत पहले बुद्ध ने और बाद में गांधी ने भी कर्णा का ही पाठ पढ़ाया था। धर्म लोगों के दिलों को जोड़ने वाली वह कड़ी है, जिसके द्वारा विभिन्न तरह के लोग एक पथ पर आ जुटते है। लेकिन ऐसा समय भी आता है, जब विभिन्न धर्मांवलंबी भी एक दूसरे से लड़ने लगते है |

समरस शुद्ध सन्मार्ग संघ की स्थापना


१९वीं शताब्दी में जब रामलिंग स्वामी का जन्म हुआ, उस समय धर्म के क्षेत्र में ऐसी ही गड़बड़ी थी | उन्होंने देखा कि कहीं वेदांत और सिद्धांत का झगड़ा है, और कहीं शैवों और वैष्णव का झगडा है। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द जो यह हाल देखा तो उनका मन दूखी हो गया और उन्होंने गह महसूस किया कि जो चीज आदमी को बांट देती है, धर्म हो, या सामजिक स्थिति हो, मनुष्य के लिए हितकर नहीं है। रामलिंग से पहले तायुमानवर ने भी गहीं दृष्टिकोण अपनाया था | लेकिन रामलिंग ने उनसे भी आगे कदम रखा। उन्होंने दुनिया के तमाम धर्मों के प्रति आदर भाव रखते हुए उनमें एकसूत्र ढूंढने की कोशिश की और इस उद्देश्य से “समरस शुद्ध सन्मार्ग संघ” की स्थापना की जिसका लक्ष्य विश्व के सभी लोगों में मैत्रीभाव स्थापित करना है। कोई भी व्यक्ति “समरस शुद्ध सन्मार्ग संघ” का सदस्य हो सकता था, चाहे उसका धर्म कुछ भी हो।

कहना न होगा कि अमीर और गरीब, शिक्षित और अशिक्षित, ऊंच और नीच के साथ-साथ विभिन्न देशों, जातियों और भाषा-भाषियों के बीच जो संघर्ष चले है, उनसे मानव-जाति का बड़ा अहित हुआ है | इसलिए रामलिंग इस नतीजे पर पहुंचे कि बाहरी उपायों से लोगों में एकता कायम नही हो सकती, बल्कि उनमें फूट ही पड़ती है और मतभेद की खाई चौड़ी होती है। सच्चा मैत्रीभाव तभी पनप सकता है, जब एकता की आंतरिक भावना विद्यमान हो। रामलिंग ने मैत्रीभाव को केवल मनुष्य मात्र तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उसक विस्तार पशु-पक्षियों और पौधों तक भी किया। उनका विश्वास था कि यदि मानव धरती के सभी जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों को अपना मित्र मानने लगे तो अत्याचार, शोषण और युद्ध जैसी मनुष्य द्वारा ही उत्पन्न तमाम बुराइयां समाप्त हो जाएंगी। यदि मनुष्य अपने भीतर झांक सके और समझ ले कि आत्मा सबकी एक है, तो लोग एक-दूसरे के मित्र बन जाएं और सारे झगड़े-टंटे मिट जाएं।

तमिल भाषा के धर्म-ग्रंथ कुरल में कहा गया है – जिनमें “तप” का बल है, उनके समीप मृत्यु नहीं आ सकती। कष्ट सहन करने और अपने व्यवहार में पूर्ण अहिंसा का प्रयोग करने का ही दूसरा नाम तप है। रामलिंग का कहना था कि आत्मा की एकता स्थापित हो जाने पर “समरस शुद्ध सन्मार्ग संघ” के सच्चे सदस्यों को इसी लोक में अमरत्व प्राप्त हो सकता है।

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल का साहित्य


रामलिंग ने काफी गीत लिखे हैं, जिनकी भाषा अत्यंत सरल है। ये गीत बहुत लोकप्रिय हुए है। तमिल के सबसे महान कवियों में उनकी गिनती होती है। वह एक अच्छे गद्य-लेखक भी थे। अपनी मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने एक मंदिर बनवाया था, जहां दीपक की पूजा होती है । यह दीपक सतत जलता रहता है।

ज्योति रामलिंगा स्वामीगल की विलुप्ति


अपने जीवन के ५०वें वर्ष में शुक्रवार, ३० जनवरी १८७४ को रामलिंग ने नेवेली के समीप मैनुकुष्पम नामक एक गांव में एक कमरे में प्रवेश किया और अपने शिष्यों तथा मित्रों से कहा कि मेरा शरीर ज्योति में विलीन हो जाएगा। कुछ दिनों बाद जब दरवाजा खोला गया, उनका शरीर कहीं नहीं मिला, वह ज्योति में मिल गए थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *