गंगाधर मेहेर | कवि गंगाधर मेहेर | Gangadhar Meher

गंगाधर मेहेर | कवि गंगाधर मेहेर | Gangadhar Meher

हिंदी के प्रसिद्ध कवि संत कबीर की तरह उड़िया के प्रसिद्ध कवि गंगाधर मेहेर भी एक गरीब जुलाहा परिवार में पैदा हुए थे। काफी समय तक खुद कपड़ा बुनकर पास के हाट में स्वयं बेचा करते थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी बहुत नहीं हुई थी। अपने जिले से बाहर जाने का भी उन्हें कोई अवसर नहीं मिला। परंतु उन्होंने जिस विषय को भी छुआ, उसे पारस पत्थर की तरह सोना बना दिया।

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उनकी कविता में जो सौंदर्य है, वह अन्य कवियों में सुलभ नहीं। इसलिए उन्हें “उड़िया साहित्य का कालिदास” कहा जाता है।

गंगाधर मेहेर का जन्म | Birth of Gangadhar Meher


गंगाधर का जन्म जिला संबलपुर के बरपाली गांव में ९ अगस्त १८६२ को एक गरीब मेहेर परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम चैतन्य और माता का नाम सेवती था। उनके पिता गांव के वैद्य भी थे। इस कारण लोग उनका आदर करते थे। मेहेर लोग जुलाहे थे, जो करघे पर कपास और टसर की साड़ियां बुनते थे। उन दिनों बरपाली दो-चार झोंपड़ियों का एक पुरवा मात्र ही था। पुरवे की सबसे बड़ी विशेषता थी, वहां का पुराना बड़ का पेड़। इसी पेड़ के कारण गांव का नाम बरपाली पड़ा।

गंगाधर मेहेर की शिक्षा | Education of Gangadhar Meher


छह वर्ष की उम्र में वह गांव की पाठशाला में पढ़ने गए, पर जल्दी ही उन्होंने पाठशाला छोड़ दी। घर पर उनके पिता उन्हें पढ़ाने लगे। उन्होंने अपने बेटे को जगन्नाथ दास की लिखी हुई उड़िया की भागवत और प्राचीन कविता के कुछ पद्य पढ़ाए और साथ ही पहाड़े भी रटवाए। उसके बाद वह बरपाली ब्रांच स्कूल में दाखिल हुए, जहां प्राइमरी की दूसरी क्लास तक पढ़ाई होती थी, वहां पढ़ाई खत्म करने के बाद वह मिडिल वर्नाकुलर स्कूल में भर्ती हुए। वहां तीसरी क्लास उन्होंने पहले छह महीने में पास कर ली और अगले छह महीनों में चौथी कलास। अभी वह पांचवीं क्लास में पढ़ ही रहे थे कि उन्हें स्कूल छोड़ देना पड़ा। जिन दिनों वह स्कूल में पढ़ते थे, उन दिनों भी उन्हें अपने पिता के साथ कपड़े बुनने के काम में हाथ बंटाना पड़ता था।

अपनी आत्मकथा में उन्होंने अपने विद्यार्थी-जीवन की कुछ रोचक घटनाएं लिखी हैं। जितने साल वह स्कूल में पढ़े, उनके पिता ने उनके बस्खों और किताबों पर केवल तीन रुपये आठ आने खर्च किए।

उन्हें स्कूल में भी शायद इसलिए दाखिल किया गया था, कि उन दिनों माल अफसर ऐसे व्यक्ति को सजा देते थे, जो अपने बेटे को स्कूल न भेजे। एक दूसरी घटना भी ऐसी ही है। बालक गंगाधर को कभी लट्ठे की कमीज तक नसीब न हुई थी। एक बार उनके स्कूल में बड़े इंस्पेक्टर को आना था। उनके अध्यापक ने उनके पिता से कहा कि इस मौके पर गंगाधर को सवा रुपये की कमीज़ सिलवा दें। परंतु दर्जी ने समय पर कमीज सीकर नहीं दी। बाद में वह कमीज सिलाई ही नहीं गई। इन छोटी-छोटी घटनाओं से पता चलता है कि गंगाधर को कितनी गरीबी में अपना बचपन काटना पड़ा।

यद्यपि बालक गंगाधर का स्कूल छुड़ा दिया गया था, परंतु उनको पढ़ने का बहुत शौक था। इसलिए जब भी उनको समय मिलता, वह उपेंद्रभंज, दिनकृष्ण और अभिमन्यु सामंतसिंहर नामक प्रसिद्ध उड़िया कवियों की कविताएं पढ़ने बैठ जाते। बहुत-सी अच्छी-अच्छी कविताएं उन्हें जबानी याद हो गई।

उन्होंने बलरामदास कृत रामायण और अन्य पुराणों की कथाएं भी सुनी और गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस का भी पाठ किया। अपने अध्यापक से उन्होंने संस्कृत व्याकरण की दो पुस्तकें पढ़ी।

गंगाधर मेहेर का व्यक्तित्व | Personality of Gangadhar Meher


स्कूल में ही उन्होंने वाल्मीकि, कालिदास, बाणभट्ट और भवभूति की रचनाओं के ईश्वरचंद्र विद्यासागर कृत अनुवाद भी पढ़े। धार्मिक ग्रंथ पढने का शौक उन्हें इस कारण भी लगा कि उनके दादा बड़े धार्मिक व्यक्ति थे और अपने पोते को प्रतिदिन दर्शन के लिए मंदिर में ले जाते थे और हरिकीर्तन में भी शामिल होते थे। इसी कारण उनमें भी भक्ति-भाव पैदा हो गया और जीवन की परंपरागत मान्यताओं के प्रति उनमें आस्था पैदा हो गई। इसी कारण वह जीवन-भर बड़े सीधे, ईमानदार, और धर्म-भीरु बने रहे और कभी भी बेईमानी या गलत तरीकों का सहारा नहीं लिया।

परंतु वह दकियानूसी विचारों के नहीं थे। हर सामाजिक परिवर्तन का उन पर प्रभाव पड़ता था। समाज के विकास के साथ-साथ उनके विचारों का भी विकास होता गया। उनकी कविता में हमें इस बात के दर्शन होते हैं कि तत्कालीन उड़ीसा और भारत की क्या दशा थी।

कविता करने की प्रेरणा उन्हें मिली, अपने करघे और ढरकी से। ढरकी को उधर-इधर चलाते सच्चे समय जो आवाज होती है, उससे एक लय बंध जाती है। फिर कपड़े पर डिजाइन बनाते समय और रंगो का मेल बिठाते समय भी कलात्मक वृत्ति का होना जरूरी है। कहा जाता है कि करघे पर कपड़ा बनते समय ही उनके मुंह से कविताएं फूट पड़ती थी। दुर्भाग्य का विषय है कि ये छोटी-छोटी कविताएं अब उपलब्ध नहीं है।

गंगाधर मेहेर के कार्य | Works of Gangadhar Meher


सन् १८८५ में वह सात रुपये मासिक पर बरपाली के जमीदार के यहां लग गए । जल्दी ही उनका जमीदार से एक बात पर झगड़ा हो गया। जमीदार एक मामले में उनसे झूठी गवाही दिलाना चाहते थे, पर वह तैयार नहीं हुए जिससे जमींदार पर ३०० रुपये जुर्माना हो गया। पहले तो जमीदार उनसे बहुत नाराज हुए, पर कुछ दिन बाद उनकी सच्चाई और ईमानदारी से खुश होकर उसने उन्हें फिर रख लिया और १८९९ में अदालती मुहरिर बनाए जाने के लिए उनके नाम की सिफारिश भी की।

१९१७ में रिटायर होने तक वह इसी पद पर काम करते रहे। जब वह रिटायर हुए तो उन्हें ३५ रुपये मासिक वेतन मिल रहा था। रिटायर होने पर उन्हें साढ़े बारह रुपये मासिक पैशन मिलने लगी जो उन्हें मृत्यु-पर्यन्त, अर्थात ४ अप्रैल १९२४ तक मिलती रही।

गंगाधर मेहेर की कविताए | Poems of Gangadhar Meher


उनकी सबसे पहली रचनाएं कुछ छोटी-छोटी कविताएं थी, जिनमें से “रसरलाकर” सबसे लंबी थी। इसमें अनिरुद्ध और उषा के प्रेम की कहानी है। यह कविता १८वीं शताब्दी की प्राचीन उड़िया कविताओं की श्रृंगारिक शैली में है। इसके बाद उन्होंने “अहल्यास्तव” लिखी। परंतु जल्दी ही वह उड़िया के महान कवि राधानाथ राय की कविता से प्रभावित हुए। तब से उनकी कविता ने नया मोड़ लिया।

१८९२ में उन्होंने “इंदुमती” लिखी जो कालिदास के रघुवंश में अज और इंदुमती के प्रसंग पर आधारित है। इसकी बहुत अधिक प्रशंसा हुई। राधानाथ राय ने भी इसको बहुत सराहा जिससे उनको बहुत प्रोत्साहन मिला। उनका दूसरा ग्रंथ था “उत्कल लक्ष्मी” जिसका कुछ अंश १८९४ में प्रकाशित हुआ और शेष १९१४ में। इसमें संबलपुर और उसके पास की उड़ीसा की जागीरों के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन है। इसमें कवि ने यह बताने की चेष्टा की है कि कुछ इलाके यद्यपि राजनैतिक कारणों से अन्य प्रांतों आदि में मिला दिए गए है, परंतु वास्तव में वे उडीसा के ही भाग है। यह देखकर सचमुच आश्चर्य होता है कि उन दिनों एक छोटी-सी जगह में रहने वाले बुनकर के मन में उड़िया-भाषी क्षेत्रो को उड़ीसा में लाने की इच्छा हुई। इस ग्रंथ से इन सीमावर्ती क्षेत्रों में उड़िया भाषा और साहित्य का बहुत प्रचार हुआ।

इस बीच उन्होंने कई छोटी-छोटी कविताएं लिखीं, जो कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और फिर उनके संग्रह भी प्रकाशित हुए। फिर १९०३ में प्रकाशित हुआ, उनका प्रसिद्ध ग्रंथ “कीचक वध”, जिसके कारण वह रचनात्मक कवि के रूप में विख्यात हुए। पर तब तक उनकी कविता पर १८वीं शताब्दी की श्रृंगार शैली का थोड़ा-बहुत प्रभाव बाकी था।

उनकी मौलिकता के दर्शन हमें होते हैं १९१५ में प्रकाशित प्रणयवल्लरि और १९१४ में प्रकाशित विशाल ग्रंथ तपस्विनी में। प्रणयवल्लरि उन्होंने कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् के आधार पर लिखी है, पर इसकी शकुंतला कालिदास की शकुंतला से भिन्न है। इसमें शकुंतला कवि की आदर्श नारी है और उसका प्रेम कवि का आदर्श प्रेम है।

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