जॉर्ज अरुंडेल | जॉर्ज सिडनी अरुंडेल | George Arundale

जॉर्ज अरुंडेल | जॉर्ज सिडनी अरुंडेल | George Arundale

वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ में भारत में एक नवयुवक का आगमन हुआ था। उसकी उम्र तब पच्चीस साल से भी कम थी। उसने लंदन में ऐनी बेसेंट का एक अत्यंत प्रभाशाली व्याख्यान सुना था।

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जॉर्ज अरुंडेल का जन्म


बस व्याख्यान सुनकर उसने अपने मन में निश्चंय किया कि – “मैं ऐनी बेसेंट के साथ ही भारत जाऊंगा। वह मुझे जहां भी भेजेंगी वहीं मैं जाऊंगा और उनका काम करूंगा।“ अपनी मौसी के साथ वह नवयुवक भारत आया और आने के बाद उसने तुरंत काशी नगरी को अपनी कार्यभूमि बनाया। इस नवयुवक का नाम था – जॉर्ज सिडनी अरुंडेल (George Arundale)। उसका जन्म १ दिसंबर, १८७८ को हुआ था। उसकी मौसी ने उसको पाला-पोसा और पढ़ाया। मौसी के पास काफी धन था और यदि जार्ज अरुन्डेल चाहता तो यूरोप में बड़े आराम से रह सकता था। लेकिन सब आराम छोड़कर वह हिंदुस्तान आया, साधारण स्थिति में रहा और भारतवर्ष की प्रगति के लिए कठिन परिश्रम किया।

जॉर्ज अरुंडेल के कार्य


जार्ज अरुन्डेल के काशी नगरी में आने का कारण यह था कि वहां ऐनी बेसेंट ने बच्चों के लिए एक अच्छा विद्यालय स्थापित किया, जिसका नाम उन्होंने “सेंट्रल हिंदू स्कूल” रखा था। यह विद्यालय आज भी है। ऐनी बेसेंट ने भारतवर्ष के लिए बहुत काम किया। इस देश की स्वाधीनता के लिए वह जेल भी गई। उन्होंने सोचा कि भारतवर्ष के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए। विद्यालय के लिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से कुछ भी अनुदान नहीं लिया। विद्यालय के लिए वह बहुत-सा धन विदेश से लाई और उसमें अच्छे से अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति की। उसी विद्यालय में अरुन्डेल शिक्षक बनकर आए और बाद में उसके प्रधानाचार्य हो गए।

अरुन्डेल को बच्चों से बड़ा प्रेम था और हमेशा बच्चों के बीच रहते थे। एक बार बच्चों के अभिभावकों ने अरुन्डेल के खिलाफ ऐनी बेसेंट से शिकायत की। उन लोगों ने कहा कि प्रधानाचार्य कभी भी अपने दफ्तर में नहीं दिखाई पड़ते, हम कैसे उनसे मिलें? ऐनी बेसेंट थोड़ा-सा मुस्कुराई और कहा, “यदि आपको अरुन्डेल से मिलना है तो जाइए खेलकूद के मैदान में और वहां यदि आपको बच्चे एकव होकर शोर करते दिखाई पड़ें तो अवश्य मान लीजिए कि आपका प्रधानाचार्य उन बच्चों के बीच में है।“ अरुन्डेल बच्चों के साथ खेलते-कूदते और शोर करते थे। वह उनके साथ एक हो जाते थे। इसीलिए पढ़ाई के समय विद्यालय में जरा भी शोर नहीं होता था | बच्चे अरुन्डेल साहब को बहुत मानते थे और उनके लिए कुछ भी करने के लिए सदैव तैयार थे।

विद्यालय के छात्र अक्सर दूसरे विद्यालय के छात्रों से मैच खेलने के लिए जाते थे। मैच में कभी जीतते, तो कभी हारते भी थे। जीत और हार दोनों समय अरुन्डेल साहब छात्रों का साथ देते थे। जीत पर तो बधाई देते ही, परंतु हार जाने पर भी बधाई देते थे। वह कहते थे कि जीतना भी सीखो और हारना भी। जीतने के समय अभिमान और हार के समय निराशा न आ जाए, इसके लिए वह हमेशा छात्रों को सावधान करते थे।

अरुन्डेल साहब को बच्चों से इतना प्रेम था कि यदि कोई छात्र बीमार हो जाता, तो रात भर छात्रावास में उसके पास बैठे रहते और उसकी देखभाल करते। उनका पूरा समय और उनकी पूरी शक्ति का उपयोग छात्रों के लिए ही होता था। वह हरेक छात्र को जानते थे-सिर्फ उसका नाम नहीं – उसकी आदतें, उसके गुण, उसके अवगुण, उसकी पढ़ाई, खेलकूद के मैदान में उसका व्यवहार।

अरुन्डेल साहब अपने छात्रों को कभी भूलते नहीं थे, बहुत वर्षों के बाद भी यदि कोई छात्र उनको अचानक मिलता तो वह तुरंत उसको पहचानते और बड़े प्रेम से मिलते थे। उनके कितने ही विद्यार्थी हमारे देश में बड़े-बड़े पदों पर पहुंचे। उनके छात्रों की सब जगह बड़ी प्रशंसा होती थी, क्योंकि अरुन्डेल ने उनको सिर्फ पढ़ाया ही नहीं था, उनको सत्पुरुष बनाकर समाज में भेजा था। जैसे एक माली पौधों की देखभाल करता है, ऐसे ही अरुन्डेल साहब ने अपने छात्रों की देखभाल की थी।

उस विद्यालय में कई छात्र ऐसे थे, जिनका संबंध देश के क्रांतिकारी आंदोलन से था और पुलिस उन लोगों को गिरफ्तार करना चाहती थी। लेकिन अरुन्डेल साहब ने कभी भी पुलिस को विद्यालय के अहाते में आने नहीं दिया। इस प्रकार बहुत से ऐसे छात्रों की उन्होंने रक्षा की। ब्रिटिश सरकार की कड़ी निगाह इस विद्यालय पर रहती थी, लेकिन अरुन्डेल साहब को इसका कोई डर नहीं था। विद्यालय में किसी प्रकार के भय का वातावरण नहीं था।

अरुन्डेल ने करीब दस साल काशी में शिक्षा के क्षेत्र में अपूर्व काम किया। भारत में शिक्षा के विकास के इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा।

अपने अन्य सहयोगियों को शिक्षा का कार्य सौंपकर, अरुन्डेल साहब मद्रास गए और वहां भी ऐनी बेसेंट के साथ अनेक कार्यों में जुट गए। बच्चों और नवयुवकों के लिए “स्काउट” आंदोलन का आयोजन किया। जब इस संस्था की स्थापना हुई थी, तब ब्रिटिश साम्राज्य के सभी देशों के नवयुवकों को इसका सदस्य बनने का अधिकार था। लेकिन हिंदुस्तान के युवकों को उस अधिकार से वंचित रखा गया था। ऐनी बेसेंट ने इसका प्रचंड विरोध किया जिसके फलस्वरूप हिंदुस्तान के नवयुवकों को अंतर्राष्ट्रीय स्काउट आंदोलन में समान अधिकार प्राप्त हुआ। इस आंदोलन की भारतीय शाखा के अरुन्डेल प्रमुख संचालक बने। उन्होंने स्काउट आंदोलन को संगठित किया और नवयुवकों को बहुत प्रेरणा दी।

अरुन्डेल बड़े प्रभावशाली वक्ता थे। उनके भाषण से सब लोग उत्साहित हो जाते थे और मानव कल्याण के लिए कार्य करने की प्रेरणा पाते थे। यह उनके महान व्यक्तित्व का प्रभाव था। गौर वर्ण, सशक्त काया, सदैव हंसता चेहरा- अरुन्डेल साहब को देखने और उनसे परिचय प्राप्त करने का अर्थ ही था अपूर्व प्रेरणा प्राप्त करना।

जॉर्ज अरुंडेल को प्राप्त उपाधि


मद्रास में ऐनी बेसेंट ने एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की जिसके कुलपति थे कविवर रवीद्रनाथ टैगोर और प्रमुख संचालक जॉर्ज अरुंडेल । इस विश्वविद्यालय ने अरुन्डेल साहब को “डाक्टर” की उपाधि से विभूषित किया। तब से उनको सब लोग डाक्टर जॉर्ज अरुंडेल कहने लगे।

जॉर्ज अरुंडेल का राजनीतिक जीवन


जब ऐनी बेसेंट ने भारत की राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश किया तब डा. अरुन्डेल भी राजनैतिक आंदोलन में कूद पड़े। वह “होमरूल लीग” के मंत्री बने और उस काम के लिए उन्होंने देश का कई बार दौरा किया। ऐनी बेसेंट ने एक दैनिक पत्र निकाला। डा. अरुन्डेल ने उसमें अनेक लेख लिखे।

जब सरकार ने ऐनी बेसेंट को राजनीतिक कायों के लिए गिरफ्तार किया, तो उनके साथ डा. अरुन्डेल भी गिरफ्तार हुए। ऐनी बेसेंट, डा. अरुन्डेल और एक पारसी सज्जन वी.पी. वाडिया को सरकार ने दक्षिण भारत में उटकमंड के एक मकान में नजरबंद रखा। डा. अरुन्डेल ने आंदोलन में भी भाग लिया और उसे शक्तिशाली बनाया, वह मद्रास के मजदूर संघ के महामंत्री थे।

डा. अरुन्डेल सदा हंसते रहते थे। कितना भी शोकपूर्ण वातावरण हो, उसे वह अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से बदल देते थे। उनमें स्वभावतः मनोविनोद की वृत्ति थी, जिससे वह साधारण अवसरों पर हंसी-खुशी का वातावरण पैदा कर देते थे।

उन्होंने देश-परदेश का कई बार भ्रमण किया और जहां भी गए भारत के गौरव को बढ़ाया। अनेक देशों में उन्होंने शिक्षा, आध्यात्मिक जीवन, धर्म, समाज व्यवस्था, राजनीति आदि विषयों पर व्याख्यान दिए और हजारों श्रोतागणों को अपने भाषण से प्रभावित किया। भारत की सभ्यता के वह सच्चे अर्थ में राजदूत थे। अंग्रेज होने पर भी उन्होंने भारतीय पोषाक ग्रहण की। वह अनेक भारतीयों से भी अधिक भारतीय थे- अपनी पोषाक से, रहन-सहन से और अपने विचार और भावनाओं से। उन्होंने विविध विषयों पर अनेक किताबें भी लिखीं।

जॉर्ज अरुंडेल का विवाह


डा. अरुन्डेल ने दक्षिण भारत की एक ब्राह्मण युवती से विवाह किया। उनका नाम है श्रीमती रुक्मिणी देवी। वह उत्तम कोटि की कलाकार है। उनके कला के विकास में डा. अरुन्डेल ने पूरा सहयोग दिया, क्योंकि उससे भारतीय सभ्यता मूर्तिमान होती थी। रुक्मिणी ने एक संस्था स्थापित की जिसका नाम है “कलाक्षेत्र” देश-परदेस में इस संस्था की प्रतिष्ठा है और सब लोग इस संस्था को विश्व में कला के क्षेत्र में अनुपम मानते हैं। इस संस्था को भी अरुन्डेल ने पूर्ण सहयोग और प्रोत्साहन दिया।

ऐनी बेसेंट के निधन के बाद डा. अरुन्डेल “अंतर्राष्ट्रीय थियोसोफिकल सोसाइटी” के अध्यक्ष चुने गए। अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने नवयुवकों को बड़ा प्रोत्साहन दिया। सोसाइटी के बड़े-बड़े पदों पर उन्होंने युवकों की नियुक्ति की।

थियोसोफिकल सोसाइटी का काम आज भी बहुत से देशों में चल रहा है। डा. अरुन्डेल जब इसके अध्यक्ष हुए, तब उन्होंने इस विश्वव्यापी संस्था को नया जीवन दिया। उन्होंने इस पर जोर दिया कि मानव समाज के नवनिर्माण में पूरी तरह हाथ बंटाना ही सोसाइटी का प्रधान कर्तव्य होना चाहिए।

अपने अध्यक्षता काल में उन्होंने भारी संख्या में नवयुवकों को सोसाइटी के काम के प्रति आकर्षित किया।

जॉर्ज अरुंडेल की मृत्यु


१२ अगस्त १९४५ में ६७ वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। उनकी समाधि उनकी गुरु और नेता ऐनी बेसेंट की समाधि के पास अडयार, मद्रास में है।

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