राजा बलि की कथा । Raja Bali Ki Kahani

राजा बलि की कथा । Raja Bali Ki Kahani

पुराकाल में “बलि” (Raja Bali) नाम से एक महापराक्रमी राजा थे । उनका जन्म असुर-वंश में हुआ था और ये असुरों के ही राजा थे तथा वे बड़े न्याय-निष्ठ और दानी थे । ये महाराज प्रह्वाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र थे। कठोर तपस्या के द्वारा इन्होंने पर्याप्त यश और राज्य प्राप्त किया था। इनके राज्य में सभी प्रजाजन सुखी और सन्तुष्ट थे । किसी को किसी बात का कष्ट नहीं था ।

उन दिनों सुशासन करना तो राजा का कर्तव्य था ही, परन्तु इसके अतिरिक्त राजा का कुछ और भी कर्तव्य समझा जाता था और वह था – “राज्य-विस्तार की आकांक्षा रखना” । राजकर्तव्य का यह भी एक प्रधान अंग माना जाता था । कम-से-कम असुरों में यह अवश्य ही प्रचलित थी । अपने अपार धन और जन-बल से राजा बलि ने एक-एक कर मर्तस्यलोक के सब राज्यों पर अपना आधिपत्य विस्तार कर लिया था। चौबीस घंटों में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था – ऐसा विस्तृत इनका राज्य था। साम्राज्याधिकार के लिये इन्हें जितना यश मिला था, उतना ही यश इन्हें अपने महान दानों के लिये भी प्राप्त हुआ था। इनकी उदारता और दानशीलता जग मे प्रसिद्ध थी। परन्तु “प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ?” की कहावत चरितार्थ हुए बिना नहीं रह सकती थी । अपने असीम साम्राज्य और विशाल दानों के लिये इनके मन में मद एवं अहंकार ने भी घर बना लिया । मन्त्रियों और सभासदो के परामर्श ने उस अहंकार रूपी अग्नि में घी प्रदान करने का काम किया । अंत में इनकी स्वर्ग-राज्य को भी हड़पने का सपना देखने लगे ।

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वह समय भी आया । बलि ने अपने पशु-बल या राक्षसी बल से सात्विक-बल से सम्पन्न देव-भूमि स्वर्ग को अपने अधीन कर लिया । अब तो बलि त्रिभुवन विजयी बन चुके थे । इधर उनके मन का अहंकार भी चरम मात्रा मे पहुँचने लगा, परन्तु अहंकारी स्वयं इस बात को नहीं समझता अथवा यूँ कहूँ कि उसमें इस बात के समझने की योग्यता ही नहीं रहती । संसार का इतिहास इस बात का प्रमाण है, कि राजा या राज-शक्ति के अहंकार ने बड़े-से-बड़े सम्राट को भी नीचा देखने के लिये बाध्य किया है । महाराज बलि त्रिभुवन विजयी बनकर गर्व से चूर हो रहे थे ।

उधर देवगण दैत्य-शासनाधीन रहना नहीं चाहते थे । उनमें प्रबल असन्तोष बढ़ रहा था। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, कि वे बलि के इस बढ़े हुए गर्व को चूर करें । भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली । दैत्य-दर्प दलन करने के लिये भगवान विष्णू कश्यप ऋषि के औरस और अदिति के गर्भ से वामन रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए ।

कुछ काल बाद दैत्य राज बलि ने अपनी विजय के उपलक्ष्य में एक महान यज्ञ के अनुष्ठान का आयोजन किया। बौने ब्राम्हण के रूप में भगवान भी वहाँ पहुँचे । सब ब्राम्हणो की तरह, उस बौने ब्राह्मण का भी महाराज बलि के दरबार में आदर-सत्कार किया गया । सब लोगों को मुँह माँगी वस्तुएँ दान में दे दी गयी । पूर्ण-मनोरथ हो-होकर सब लोग अपने स्थान को जाने लगे । अब उस बौने ब्राम्हण का भीं नम्बर आया ।

महाराज बलि ने पूछा – “कहिये, ब्राह्मण-देवता ! आप क्या चाहते हैं ?”

वामन – “महाराज ! आप तीनों लोक के स्वामी, अधिपति और शासक हैं। आपके लिये कोई भी वस्तु असंभव नहीं है। तीनों लोक में आपके दान की बड़ाई की जाती है। आपके यश और ख्याति की बातें सुन कर मैं भी कुछ पाने की आशा से आया हूँ।“

महाराज बलि – “हॉँ-हॉँ, यह तो मैं भी जानता हूँ। आप भी देख रहे हैं, कि मुझसे दान पाकर सब लोग सन्तुष्ट-चित्त से वापस जा रहे हैं, पर आप यह बताइये, कि आप चाहते क्या हैं ?”

वामन – “महाराज ! मैं जो कुछ माँगूँगा, क्या आप उसे देंगे ? क्या मुझ बौने की अभिलाषा आप पूरी करेंगे ? यदि आप मेरा मनोरथ पूर्ण करने का वचन दें, तो मैं कहूँ ? “

बलि – “मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, ब्राम्हण देवता ! कि आप जो कुछ माँगेंगे, वही दूँगा ।“

वामन – “ हाँ ? देंगे ?”

बलि – “कह तो चुका सब और आप क्या कहलाना चाहते हैं ? मैं एक बार जो प्रतिज्ञा कर लेता हूँ, उसे कभी नहीं टालता ।“

वामन – “अच्छी बात है, महाराज ! मुझे तीन पग भूमि की आवश्यकता है ।

महाराज बलि भिक्षु की बात सुन हँसते-हँसते, लोट-पोट होने लगे । हँसने को बात ही थी। बलि अपने को तीनों लोक का अधिकारी समझते थे । उनके लिये तीन पग भूमि क्या चीज़ थी ? सो भी तीन पग भूमि माँगने वाला एक बोना आदमी था । भला वह तीन पग में कितनी सी भूमि ले लेता ? यही सोचकर महाराज बलि अपने पारिषदों सहित ज़ोर-ज़ोर से पेट-भर हँस लेने के बाद बोले – “ब्राम्हण देवता ! इसी के लिये आप इतनी प्रतिज्ञा करा रहे थे ? जाइये, जहाँ आपकी इच्छा हो, तीन पग भूमि नाप लीजिये ।“

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वह बौना ब्राम्हण कोई साधारण बौना थोड़े ही था ! उसने एक पैर मत्त्य-लोक में रखकर दूसरा पैर एकदम स्वर्गलोक में रखा और फिर पूछा – “कहिये महाराज ! अब तीसरा पैर कहाँ रखूँ ?”

पल भर के लिये बलि उस अद्भुत वामन की लीला देखकर दंग रह गये । वे अपने मन्त्रियों और अमात्यों की ओर देखने लगे । सबकी बुद्धि चकरा गयी । सारा आडंबर चूर हो गया । बलि कुछ भी न समझ सके, कि तीसरा पग कहाँ रखने को कहें ? परन्तु अहंकार दूर होते ही उनका गर्व मस्तक अपने आप ही उस वामन के आगे झुक गया ।

बलि भी अपने वचन के सच्चे निकले । उन्होंने कहा – “भगवन् ! तीसरा पग इस मस्तक पर रखिये ।”

भगवान ने उस पर पैर रखा और बलि को बाध्य होकर स्वर्ग और मत्स्य का राज्य छोड़कर पाताल में जाना पड़ा। वहाँ भी भगवान ने उसे बन्दी कर रखा पर कुछ काल बाद, देवर्षि नारद के परामर्श से जब उसने भगवान की आराधना की, तब उन्होंने उसे सपरिवार पाताल लोक में वास करने की आज़ादी दे दी।

आध्यात्मिक दृष्टि से देखने वालों का मानना है कि बलि बहुत बड़ा दानी था और उसे अपनी दातव्यता का गर्व भी बहुत अधिक था। यही गर्व उसके पतन का कारण हुआ । परन्तु भक्त कवियों ने भगवान की दया का परिचय देते हुए कहा है, कि बलि वास्तव में भगवान का भक्त था और उसकी आन्तरिक पुकार को सुनकर ही भगवान उसके द्वार पर भिक्षु के रूप में उपस्थित हुए थे। वे कहते हैं, कि भगवान भक्ति के भूखे हैं। जो उनकी भक्ति करता है, वे उस पर अवश्य ही कृपा करते हैं। उनके विचार में बलि से बड़कर दानी कौन हो सकता है, जिसके दरवाजे पर भगवान को भी भिक्षा माँगने जाना पड़ा ? और उसकी अपेक्षा भाग्यवान ही कौन होगा, जिसने भगवान के पवित्र चरणों के पाँब के लिये अपना मस्तक बिछा दिया ?

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