योग का अर्थ परिभाषा महत्व | योग का अर्थ | योग क्या है | समाधि का अर्थ | समाधि की परिभाषा | ज्ञान का अर्थ | अध्यात्म क्या है | अध्यात्म का अर्थ | Yog Meaning | samadhi kya hai

योग का अर्थ परिभाषा महत्व

योग का अर्थ परिभाषा महत्व | योग का अर्थ | योग क्या है | समाधि का अर्थ | समाधि की परिभाषा | ज्ञान का अर्थ | अध्यात्म क्या है | अध्यात्म का अर्थ | Yog Meaning | samadhi kya hai

समाधि का अर्थ | समाधि की परिभाषा


सुख आसन में बैठ कर, गर्दन व कमर को एक रेखा में सीधा रख कर, मन मे उठते विचारों को रोक कर और फिर उन्हें प्रभु के आनन्द में या स्वयं की आत्मा के आनन्द में, लीन करना ही समाधि है । इस अवस्था में ध्येय, ध्यान और ध्याता की त्रिपुटी नहीं रहती, सब कुछ लय हो जाता है ।

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ज्ञान का अर्थ


सृष्टि के अनेक प्रकार के अनेक विनाशवान पदार्थों में अविनाशी परम सत्ता परमेश्वर है । इस समझ का नाम है ‘ज्ञान’ ।

विज्ञान का अर्थ


नित्य परमेश्वर से (नित्य = जो हमेशा रहता है) विभिन्न नाशवान पदार्थों की उत्पत्ति समझ लेनी चाहिए । भौतिक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करना विज्ञान का विषय है ।

अध्यात्म क्या है | अध्यात्म का अर्थ


सामान्यतः अध्यात्म उस शास्त्र को कहते हैं जो यह प्रतिपादन करता है कि सर्वत्र एक ही आत्मा है । (अधि = जानना, आत्मा : आत्मा = आत्मा आत्मा को जानना अध्यात्म है) ।

योग का अर्थ परिभाषा महत्व | योग का अर्थ | योग क्या है


आत्मा पर जन्म-जन्मान्तरों से पड़े कर्मों के आवरण को हटाकर, इसका विशुद्ध रूप जानकर, इसे परमात्मा में लीन करना योग है । ऐसा होने पर समझ में आता है कि आत्मा और परमात्मा एक है । एक अंश है और दूसरा अंशी । जैसे समुद्र से एक लोटा जल निकालने पर समुद्र का अथाह जल तो परमात्मा का उदाहरण है, वह सर्वव्यापी है । लोटे का जल जैसे लोटे से घिरा है, वैसे आत्मा शरीर में ।

इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है कि ‘विवेक- चूड़ामणि’ नामक ग्रन्थ में आदिगुरु श्री शंकराचार्य ने श्लोक-संख्या 6 में लिखा है जिसका भावार्थ है – भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का यजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, जब तक ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी, कल्प = युग) मुक्ति नहीं हो सकती।” श्लोक संख्या 9 में वह लिखते हैं जिसका भावार्थ है “और निरन्तर सत्य वस्तु ‘आत्मा’ के दर्शन में स्थिर रहता हुआ योगारुढ़ होकर संसार-समुद्र में निमग्न अपने ‘आत्मा’ का आप ही उद्धार करे।”

अगर आप जीवन की प्रतिदिन की भागदौड़ के संघर्ष को सहते हुए और पूर्ण भौतिक सुखों को भोगते हुए भी, संन्यास लिये बिना, परमपिता परमात्मा से मिलने की अद्भुत अनुभूति को प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते हैं उसके मिलन से प्राप्त आनन्दानुभूति का वर्णन नहीं हो सकता । अगर आप परमसत्ता परमेश्वर के मिलन-मार्ग का वैज्ञानिक आधार जानना चाहते हैं, तो तथ्यों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अवलोकन करना होगा । अपने जीवन के अतिव्यस्त समय में से दस मिनट का अभ्यास प्रतिदिन आपको करना होगा, परमानन्द की अनुभूति के लिए, और वह भी अपने घर पर गुरु की भी जरूरत नहीं । यह ‘ध्यान-योग’ से सम्भव हो सकता है ।

भगवद्गीता में वर्णित कर्मयोग-शास्त्र का उत्तर है कि आनन्द एवं ऐश्वर्य एक साथ प्राप्त करो । आपको शान्ति, तुष्टि और पुष्टि उचित परिणाम में मिलें, इसके लिए आपको प्रयत्न करना ही चाहिए । आध्यात्मिक सुख आत्मवश है । यह सभी को प्राप्त हो सकता है । समाधि लगाकर, अपने विचारों को दस मिनट के लिए रोककर, कभी न कभी उस आत्मा के सुख को भोगा जा सकता है । परन्तु यह सुख प्राप्त करने के लिए परमात्मा की कृपा हो ।

रामकृष्ण परमहंस का कहना है कि अगर लगन सच्ची हो तो मनुष्य तीन दिन में प्रभु के परमानन्द को प्राप्त कर सकता है । संसार में मनुष्य के लिए भौतिक सुखों में जो अधिकतम सुख प्राप्त होता है, उसकी तुलना में परमात्मा-मिलन से जो सुख प्राप्त होता है, उसके सामने भौतिक सुख नगण्य है । वह सुख संत तुकाराम के शब्दों में गूंगे का गुड़ है ।

जीव के हृदय-चक्र में ‘निर्वात स्थान की दीप-ज्योति’ के समान जीवात्मा रहती है । जीव का सूक्ष्म शरीर, मृत्यु के बाद, उसके शरीर को छोड़कर और कर्मानुसार कुछ समय दूसरे लोकों (स्वर्ग या नरक) में सुख अथवा दुःख भोगकर, पुनः मृत्यु-लोक में (पृथ्वी पर) पुनर्जन्म लेता है । सूक्ष्म-शरीर अँगूठे के आकार का या उसके ही बराबर होता है । एक वर्ष का बालक अगर दुर्घटनावश घोर कष्ट भोगता है तो वह किसके कर्मों की सजा भोगता है । अभी उसका कोई कर्म सजा पाने के योग्य न हो सका है । इससे यह सिद्ध होता है कि अपने पिछले जन्म के ही कर्मों का दण्ड भोग रहा है ।

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