विक्रम बेताल की कहानी भाग 3 | बेताल पच्चीसी की कहानी – जो कोई न कर सके | Vikram Betal Ki Kahani Batao

विक्रम बेताल की कहानी भाग 3 | बेताल पच्चीसी की कहानी – जो कोई न कर सके | Vikram Betal Ki Kahani Batao

विक्रम ने एक बार फिर बेताल को अपने कब्जे में किया और कंधे पर लादकर चल दिया । ‘आखिर तुम नहीं मानोगे विक्रम!” बेताल बोला – “क्यों मुझे उस योगी के पास ले जाना चाहते हो, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि वह दुष्ट और धोखेबाज है । मगर तुम हठी हो, तुम नहीं मानोगे । खैर, कहानी सुनाता हूं । मगर ध्यान रहे, तुम बोलना मत, समय काटने के लिए मैं पहले की भांति तुम्हें, वरना मैं फिर वापस जाकर उस वृक्ष पर उलटा लटक जाऊंगा।”

विक्रम ख़ामोशी से अपने रास्ते पर चलता रहा और बेताल बोलता रहा—”एक समय वर्धमान नामक राज्य में एक राजा राज्य करता था । उसका नाम रूपसेन था । वह बड़ा ही प्रतापी, न्यायप्रिय व दयालु था । वह दानी था तथा दूर-दराज से आए गुणी और विद्वानों का भी वह बड़ा आदर-सत्कार किया करता था ।

एक बार दूसरे किसी राज्य से एक व्यक्ति उसके दरबार में आया और बोला – “महाराज ! मैं बड़ा दुखी हूं – मेरी मदद करें।”

“तुम्हारा दुख क्या है और तुम कैसी मदद चाहते हो ?”

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“महाराज ! मेरा दुख यही है कि इस समय मेरे पास कोई कार्य नहीं है।” वह बोला — “आप सेवा का कोई अवसर देकर मेरी मदद कर सकते हैं । मैं एक वफादार सिपाही हूं । मैं राज सेवा का इच्छुक हूं महाराज।”

‘ठीक है, हम तुम्हें राजसेवा में नियुक्त करते हैं । लेकिन निःसंकोच होकर कहो कि राजसेवा के बदले हम तुम्हें कितना वेतन प्रदान करें कि तुम सुखपूर्वक जीवन-यापन कर सको ?”

“महाराज ! सौ स्वर्ण मुद्राओं से मेरी दैनिक आवश्यकताएं भली-भांति पूर्ण हो सकती हैं ।” उसकी मांग सुनकर राजा सहित सभी दरबारी चौंक उठे –“सौ स्वर्ण मुद्राएं प्रतिदिन ?” राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा – “तुम्हारा नाम क्या है ?”

“मेरा नाम वीरबल है महाराज !”

“तुम्हारे परिवार में तुम्हारे अतिरिक्त और कितने प्राणी हैं ?”

“केवल तीन प्राणी और हैं महाराज !”

“कौन-कौन, विस्तार से बताओ।”

“महाराज ! मेरी धर्मपत्नी, मेरा पुत्र और पुत्री । चौथा मैं स्वयं हूं । बस, यही चार प्राणियों का मेरा छोटा सा परिवार है।”

“इतना छोटा और सीमित परिवार होने पर भी तुम सौ स्वर्ण मुद्राएं प्रतिदिन चाहते हो ?” राजा का आश्चर्य बढ़ता जा रहा था । जबकि दरबारी व्यंग्य से मुस्करा रहे थे कि या तो यह व्यक्ति पागल है या महाराज को मूर्ख समझ रहा है । लेकिन न तो वह पागल था और न महाराज को ही मूर्ख समझ रहा था । वह पूरी तरह गम्भीर था और राजा की बात का गम्भीरता पूर्वक ही उसने उत्तर दिया – “महाराज! इससे कम वेतन में मेरा गुजारा नहीं होगा।”

“इतने वेतन के बदले में तुम क्या करोगे ?”

“मैं वो काम करूंगा महाराज, जो कोई न कर सके।”

राजा सोच में पड़ गया । कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला — “ठीक है, हम तुम्हें अपना अंगरक्षक नियुक्त करते हैं । रात को नित्य ही तुम हमारे शयनकक्ष के बाहर पहरा दिया करोगे।”

फिर महाराज ने खजांची को बुलाकर उसे सौ स्वर्ण मुद्राएं दिलवा दीं ।

दरबारी महाराज के इस फैसले पर हैरान थे, मगर कर ही क्या सकते थे । दूसरे दिन से ही वीरबल महाराज की सेवा में लग गया । वह पूरी निष्ठा से रात में महाराज के शयनकक्ष के बाहर पहरा देता और प्रातः अपना पारिश्रमिक लेकर चला जाता ।

जब कई दिन गुजर गए तो एक दिन उसके जाने के बाद महाराज ने एक गुप्तचर को बुलाकर कहा – ‘सतर्कतापूर्वक जाओ और यह पता लगाओ कि यह सौ स्वर्ण मुद्राओं का प्रतिदिन क्या करता है ?”

गुप्तचर ने वीरबल की निगरानी शुरू कर दी । कई दिनों के बाद आकर उसने महाराज को बताया – ”महाराज! सौ में से पच्चीस मुद्राएं प्रतिदिन गरीबों को दान कर देता है । पच्चीस मुद्राएं प्रतिदिन वह देवी-देवताओं के मंदिरों में चढ़ा देता है । पच्चीस स्वर्ण मुद्राएं ब्राह्मणों को दान करता है । दस मुद्राएं विधवाओं व अनाथों को देता है । दस मुद्राए अपाहिजों व कोढ़ियों को दान करता है और पांच मुद्राएं लेकर वह अपने घर जाता है तथा उन्हीं पांच मुद्राओं से अपना गुजर-बसर करता है।”

महाराज बहुत खुश हुए । पहले वह सोचते थे कि इतना अधिक धन लेकर वीरबल अवश्य ही कोई व्यसन करता होगा, किंतु अब उनकी सारी शंकाएं न केवल दूर हो गईं बल्कि वीरबल के प्रति उनके मन में सम्मान भी बढ़ गया | अब उन्हें यह भी विश्वास हो गया था कि वीरबल में अवश्य ही कोई अतिरिक्त गुण है । इसी कारण उसने कहा था कि जो काम कोई न कर सके, उसे वह करेगा ।

महाराज उसकी सेवा से बहुत खुश थे । एक दिन राजा अपने कक्ष में सो रहे थे कि तभी किसी स्त्री के जोर-जोर से रोने की आवाज उनके कानों में पड़ी । ऐसा लगता था कि कोई स्त्री महल के पास ही बैठकर रो रही हो ।

“कोई है।” महाराज ने पुकारा । वीरबल तुरन्त उपस्थित हुआ – “आज्ञा स्वामी !” ‘जाकर पता करो कि यह कौन स्त्री है जो इतनी रात गए महल के पास रुदन कर रही है।”

वीरबल तुरन्त चल दिया । महल से बाहर आकर वह उस ओर बढ़ा जिधर खड़ी वह औरत रो रही थी । वह उसके करीब पहुंचा और यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि वह औरत सिर से पांव तक हीरे-मोती के जेवरों से लदी हुई है । वह बुरी तरह बिलख-बिलखकर रो रही थी, किन्तु आश्चर्य की बात यह थी कि उसकी आंखों से एक भी आंसू नहीं गिर रहा था ।

कुछ पलों तक वीरबल उसे एकटक देखता रहा, फिर उसने पूछा—“हे देवी! आप कौन हैं और इस प्रकार क्यों रो रही हैं ?”

“तुम कौन हो ? ” देवी ने पूछा ।

“मैं महाराज रूपसेन का अंगरक्षक हूं ।” वीरबल ने कहा – और यहां आकर इस प्रकार रोने का आपका क्या प्रयोजन है ?”

अब आप बताइए कि आप कौन हैं “मैं इस राज्य की लक्ष्मी हूं । शनिदेव ने राजा रूपसेन पर अपनी कुपित दृष्टि डाल दी है, अब उनका सर्वनाश हो जाएगा । मुझे यह राज्य छोड़कर जाना पड़ेगा ।”

राजा के अहित की बात सुनकर वीरबल बुरी तरह घबरा गया -“यह आप क्या कह रही हैं देवी ।

महाराजा रूपसेन तो पुण्यात्मा हैं । न्यायी हैं, गुणियों का आदर करते हैं, प्रजा के हितैषी हैं । फिर शनिदेव उन पर कुपित क्यों होना चाहते हैं । क्या महाराज रूपसेन को शनिदेव के कोप से बचाने का कोई उपाय नहीं है ?”

“है पुत्र, एक उपाय है, किन्तु… ।” कुछ कहते-कहते देवी रुक गईं और वीरबल का चेहरा देखने लगीं । ‘किन्तु क्या देवी, आप मुझे बताएं ।’ अधीर होकर वीरबल बोला—“महाराज के हित और राष्ट्र की रक्षा के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं ।”

‘‘सुनो वीरबल ! शनिदेव के कोप को शान्त करने के लिए यदि कोई व्यक्ति देवी के मंदिर में जाकर अपने बेटे की बलि चढ़ाए, तो महाराज और राज्य पर आया यह संकट टल सकता है । किन्तु मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो सकता है । आखिर कौन अपने पुत्र की बलि देगा ?”

देवी की बात सुनकर वीरबल अत्यधिक गम्भीर दिखाई देने लगा । कुछ क्षणों बाद उसने सिर उठाकर देखा तो देवी वहां से अदृश्य हो चुकी थी । वीरबल वापस महल के द्वार की ओर चल दिया ।

इसे संयोग ही कहा जाएगा कि वीरबल को भेजने के उपरान्त राजा भी उसके पीछे-पीछे चला आया था और छिपकर उसने देवी और वीरबल के मध्य हुई पूरी बात सुन ली थी । सभी कुछ जान लेने के बाद वह भी हैरान और भयभीत था । ‘क्या करूं ? क्या राज्य की रक्षा और खुशहाली के लिए मुझे अपने बेटे की बलि देनी होगी ?’ यही सब सोचता हुआ राजा वीरबल के पीछे-पीछे चल दिया कि देखें वीरबल क्या करता है ?

अचानक वह चौंका । राजमहल का द्वार आने पर भी वीरबल ने उसमें प्रवेश नहीं किया और तेज-तेज कदमों से अपने घर की ओर चल दिया । राजा सोचने लगा, यह कहां जा रहा है । इसे तो मेरे पास आकर सारी बात बतानी चाहिए थी । कहा ऐसा तो नहीं कि मुझ पर संकट आने की बात सुनकर यह भाग रहा हो ?

यदि ऐसा हुआ तो हम इसका सिर धड़ से अलग कर देंगे, किन्तु पहले उसके इरादे का पता लगाना चाहिए । राजा उसका पीछा करता रहा ।

वीरबल अपने घर आ पहुंचा । उसकी पत्नी ने असमय उसे घर आए देखा तो चौंककर उसने पूछा – “आप इस समय यहाँ कैसे ?”

उसने अपनी पत्नी को पूरी बात बताई, फिर बोला – “इस समय राज्य पर संकट है और हमारे राजा का भी अहित होने वाला है । ऐसे में हमें चाहिए कि हम अपने पुत्र की बलि देकर अपना कर्तव्य निभाएं ।”

“आप ठीक कहते हैं स्वामी ।”

उसकी पत्नी ने बेटे को जगाकर उसे भी पूरी बात बताई । बेटा सहर्ष बलिदान देने के लिए राजी हो गया । और फिर वीरबल अपने पूरे परिवार को लेकर देवी के मंदिर की ओर रवाना हो गया । राजा रूपसेन हैरानी से उनका पीछा कर रहा था ।

मंदिर में आकर वीरबल ने देवी की पूजा की, फिर प्रार्थना करते हुए बोला – “हे मां ! मेरे स्वामी राजा रूपसेन पर कोई आपदा न आए तथा शनिदेव का कोप शान्त हो । मैं आपके चरणों में अपने पुत्र की बलि चढ़ाता हूं । आप प्रसन्न हों माते ! “

और फिर वीरबल ने प्रसन्नता से अपने पुत्र की बलि चढ़ा दी । राजा रूपसेन एक स्तम्भ की ओट में खड़ा सब कुछ देख रहा था । वीरबल की स्वामिभक्ति और राष्ट्र प्रेम देखकर वह स्तब्ध रह गया । तभी वीरबल की पुत्री ने उसके हाथ से तलवार ले ली और बोली – “हे पिताजी, जब इकलौता भाई इस संसार में नहीं रहा तो मैं ही जीकर क्या करूंगी । “

कहकर उसने भी एक झटके से अपना सिर धड़ से अलग कर दिया । ‘जब बेटा और बेटी ही नहीं रहे तो अब मैं ही जीकर क्या करूंगी।” इस प्रकार कहते हुए उसकी पत्नी ने भी अपना सिर काट डाला ।

‘ओह!’ वीरवल स्तब्ध सा खड़ा यह मंजर देखता रहा, फिर बोला-‘जब पूरा परिवार ही समाप्त हो गया तो अब मैं ही जीकर क्या करूंगा—’हे मां! मेरी बलि भी स्वीकार करो।’

कहकर उसने भी अपना सिर धड़ से अलग कर दिया । ‘ऐसा स्वामिभक्त सेवक पाकर मैं धन्य हुआ।’ राजा रूपसेन ने सोचा-‘जब ऐसा सेवक ही इस संसार में नहीं रहा तो मैं ही जीकर क्या करूंगा।’

यह कहते हुए उसने भी अपनी गर्दन धड़ से अलग कर दी ।

विक्रम बेताल के सवाल जवाब

बेताल के सवाल :

हे विक्रम ! अब तू ये बता कि इन सबमें किसका बलिदान श्रेष्ठ था”—यहां तक की कथा सुनाने के बाद बेताल ने पूछा -“राजा का, सेवक का, पुत्र का, पुत्री का या मां का ? विक्रम ! यदि तुम जान-बुझकर मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दोगे तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।”

राजा विक्रमादित्य के जवाब :

“बेताल !” भली-भांति सोचने के बाद राजा विक्रम बोला – ” इन सबमें राजा का बलिदान सबसे सार्थक व अनोखा था।”

वह कैसे ?”

“वीरबल ने पुत्र का बलिदान राष्ट्रहित में दिया-राष्ट्र हित के कारण अनेक लोग कुर्बानियां देते आए हैं । बहन ने भाई के प्रेम में कुर्बानी दी । मां ने ममता के वश होकर । वीरबल ने परिवार के मोह में । मगर ऐसा पहली बार देखा-सुना गया है कि किसी राजा ने अपने सेवक के लिए बलिदान दिया है । इसलिए राजा की कुर्बानी सबसे श्रेष्ठ है।”

“हा…हा…हा…।” बेताल ने एक जोरदार हंसी ली – “तुमने बिल्कुल ठीक कहा विक्रम । राजा का बलिदान सबसे श्रेष्ठ था – मगर उत्तर देने से पहले तुम मेरी शर्त भूल गए विक्रम । मैंने कहा था कि यदि तुम बोले तो मैं वापस चला जाऊंगा । तुम बोल पड़े और मैं चला…हा…हा…हा…।”

कहकर बेताल हवा में ऊपर उठा, फिर पलटकर वृक्ष की ओर उड़ता चला गया । ठहर जाओ बेताल ! मैं तुम्हें लेकर ही जाऊंगा । अपनी तलवार संभाले विक्रम तेजी से उसके पीछे लपका ।

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