भुवनेश्वरी साधना | भुवनेश्वरी साधना मंत्र | भुवनेश्वरी साधना विधि | माँ भुवनेश्वरी साधना मंत्र | Bhuvaneshwari Mantra | Bhuvaneshwari Mantra Sadhana

भुवनेश्वरी साधना | भुवनेश्वरी साधना मंत्र | भुवनेश्वरी साधना विधि | माँ भुवनेश्वरी साधना मंत्र | Bhuvaneshwari Mantra | Bhuvaneshwari Mantra Sadhana

यहा भुवनेश्वरी साधना के मंत्र, ध्यान, जप, होम, स्तव एवं कवच का वर्णन किया जाता है । त्र्यम्बक शिव की महाशक्ति भुवनेश्वरी हैं ।

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भुवनेश्वरी-मंत्र


(१) ह्रीं (२) ऐं ह्रीं (३) ऐं ह्रीं ऐं।

तीन प्रकार का मंत्र कहा गया है । इनमें से किसी भी एक मंत्र से साधक भुवनेश्वरी की आराधना कर सकता है ।

।। भुवनेश्वरी का ध्यान ।।


उद्यदहर्द्युतिमिन्दुकिरीटां तुंगकुचां नयनत्रययुक्ताम् ।
स्मेरमुखीं वरदांकुशपाशाभीतिकरां प्रभजेद् भुवनेशीम् ।।

टीका – भुवनेश्वरी देवी के देह की कान्ति उदीयमान सूर्य के समान है । उनके ललाट में अर्द्धचन्द्र, मस्तक में मुकुट, दोनों स्तन उन्नत (ऊँचे), तीन नेत्र और बदन में सदा हास्य तथा चार हाथ में वर मुद्रा, अंकुश, पाश और अभयमुद्रा विद्यमान है । ऐसी भुवनेश्वरी देवी का मैं ध्यान करता हूँ ।

भुवनेश्वरी का पूजायन्त्र


पद्ममष्टदलं बाह्ये वृत्तं षोडशभिर्दलैः ।
विलिखेत्कर्णिकामध्ये षट्कोणमतिसुन्दरम् ।
चतुरस्रं चतुर्द्वारमेव मण्डलमालिखेत् ।।

टीका – पहले षट्कोण अंकित करके उसके बाहर गोल और अष्टदल पद्म लिखे । उसके बाहर षोडशदल पद्म लिखकर तिसके बाहर चतुर्द्वार और चतुरस्र अंकित करके यंत्र निर्माण करे । यंत्र को भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखना चाहिये ।

उक्त मंत्र का जप होम


प्रजपेन्मन्त्रविन्मंत्रं द्वात्रिंशल्लक्षमानतः ।
त्रिस्वादुयुक्तैर्जुहुयादष्टद्रव्यैईशांशतः||

टीका – बत्तीस लाख जप से इस मंत्र का पुरश्चरण होता है और तीन लाख बत्तीस हजार की संख्या में होम करे । पीपल, गूलर, पिलखन, बड़, इनकी समिधा(लकड़ी) और तिल, सफेद सरसों और खीर- इन आठ द्रव्यों में घृत, मधु और शर्करा मिलाकर होम करना चाहिए ।

भुवनेश्वरी का स्तव


मूल श्लोक में भुवनेश्वरी स्तव निम्न प्रकार है

अथानन्दमयीं साक्षाच्छब्दब्रह्मस्वरूपिणीम् ।
ईडे सकलसम्पत्त्यै जगत्कारणमम्बिकाम् ।।

टीका – जो साक्षात् शब्द ब्रह्मस्वरूपिणी जगत्कारण जगन्माता हैं, समस्त सम्पत्तियों के लाभ के लिये मैं उन्हीं आनन्दमयी भुवनेश्वरी की स्तुति करता हूँ ।

आद्यामशेषजननीमरबिन्दयोने
विष्णोः शिवस्य च वपुः प्रतिपादयित्रीम् ।
सृष्टिस्थितिक्षयकरीं जगतां त्रयाणां
स्तुत्वा गिरं विमलयाम्यहमम्बिके त्वाम् ।।

टीका – हे मातः! तुम जगत् की आद्या, ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाली, ब्रह्मा, विष्णु, शिव को उत्पन्न करने वाली और तीनों जगत् की सृष्टि, स्थिति, तथा लय करनेवाली हो, मैं तुम्हारी स्तुति करके अपनी वाणी को पवित्र करता हूँ ।

पृथ्व्या जलेन शिखिना मरुताम्बरेण
होत्रेन्दुना दिनकरेण च मूर्तिभाज: ।
देवस्य मन्मथरिपोरपि शक्तिमत्ता
हेतुस्तवमेव खलु पर्वतराजपुत्रि ।।

टीका – हे पर्वतराजपुत्री ! जो पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, यजमान, सोम और सूर्य मूर्ति में विराजमान हैं, जिन्होंने कामदेव के शरीर को भस्म किया था, उन महादेव को भी त्रैलोक्य संहारशक्ति तुम्हारे ही द्वारा सम्पन्न हुई है ।

त्रिस्रोतसः सकललोकसमर्चिताया
वैशिष्ट्यकारणमवैमि तदेव मातः ।
त्वत्पादपंकजपरागपवित्रतासु
शम्भोर्जटायु नियतं परिवर्तनं यत् ।।

टीका – हे मातः! तुम्हारे ही चरण-कमलों की रेणु से पवित्र हुई शिव के शिर की जटाजूट में तीन स्रोतवाली भागीरथी सदा शोभा पाती हैं, इस कारण ही उनकी सब पूजा करते हैं और इसी कारण वह सुन्दरी प्रधानता को प्राप्त हुई हैं ।

आनन्दयेत्कुमुदिनीमधिपः कलानां
नान्यामिनः कमलिनीमथ नेतरां वा ।
एकस्य मोदनविधौ परमेकमीष्टे
त्वन्तु प्रपञ्चमभिनन्दयसि स्वदृष्ट्या ।।

टीका – हे जननि ! जिस तरह कलानाथ (चन्द्रमा) एकमात्र कुमुदिनी को ही आनन्दित करते हैं और को नहीं, सूर्य भी एकमात्र कमल का आनंद बढ़ाते हैं और को नहीं, इससे ज्ञात होता है कि जिस प्रकार एक द्रव्य के आनंद करने को एक-एक द्रव्य ही निर्दिष्ट हुआ है, इसी प्रकार इस सब जगत् को, एकमात्र तुम्हीं अपनी दृष्टि डालकर आनन्द देती हो ।

आद्याप्यशेषजगतां नवयौवनासि
शैलाधिराजतनयाप्यतिकोमलासि
त्रय्या: प्रसूरपि तया न समीक्षितासि
ध्येयापि गौरि मनसो न पथि स्थितासि ।।

टीका – हे जननी ! सब जगत् की आदिभूत होकर भी तुम निरंतर नवयुवती हो और तुम पर्वतराजपुत्री होकर भी अति कोमला हो । तुम्हीं वेद प्रगट करने वाली हो और वेद तुम्हारे तत्त्व का निरूपण करने में असमर्थ हैं । हे गौरी ! यद्यपि तुम ध्यानगम्य हो, किन्तु इस प्रकार होकर भी मन में स्थित नहीं होती हो ।

आसाद्य जन्म मनुजेषु चिराद्दुरापं
तत्रापि पाटवमवाप्य निजेन्द्रियाणाम् ।
नाभ्यर्च्चयन्ति जगतां जनयित्रि ये त्वां
निःश्रेणिकाग्रमधिरुह्य पुनः पतन्ति ।।

टीका – हे जगन्माता ! जो प्राणी दुर्लभ नरजन्म धारण कर इंद्रियों के सामर्थ्य को पाकर भी तुम्हारी पूजा नहीं करते, वह मुक्ति की सीढ़ी पर चढ़कर भी गिर जाते हैं ।

कर्पूरचूर्णहिमवारिविलोडितेन
ये चन्देन कुसुमैश्च सुजातगन्धैः ।
आराधयन्ति हि भवानि समुत्सुकास्त्वां
ते खल्वशेषभुवनादिभुवं प्रयन्ते ।।

टीका – हे भवानि ! जो प्राणी कपूर के चूर्णसंयुक्त शीतल जल से घिसे हुए चन्दन और सुंगधित पुष्पों के द्वारा उत्कंठित मन से तुम्हारी उपासना करते हैं, वह सब भुवनों के अधिपति होते हैं ।

अविश्य मध्यपदवीं प्रथमे सरोजे
सुप्ताहिराजसदृशा विरचय्य विश्वम् ।
विद्युल्लतावलयविभ्रममुद्वहन्ती
पद्मानि पञ्च विदलय्य समश्नुवाना ।।

टीका – हे जननी ! तुम मूलाधार पद्म में सोते हुए सर्पराज के समान विराजमान होकर विश्व की रचना करती हो और वहाँ से (बिजली की रेखा) के समूह की भाँति क्रमानुसार ऊर्ध्व में स्थित पंच पद्म को भेदकर सहस्रदल पद्म की कर्णिका के मध्य में स्थित परमशिव के सहित संगत होती हो । यह विद्युल्लता योग के द्वारा जागती है ।

तन्निर्गतामृतरसैरभिषिच्य गात्रं
मार्गेण तेन विलयं पुनरप्यवाप्ता ।
येषां हृदि स्फुरति जातु न ते भवेयु-
र्मातर्महेश्वरकुटुम्बिनि गर्भभाजः ।।

टीका – हे जननि, हरगृहिणी ! तुम सहस्रदल कमल से निर्गत हुए सुधारस से शरीर को अभिषिक्त करती हुई सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग में फिर प्राप्त होकर लय हो जाती हो, तुम जिसके हृदय-कमल में उदित नहीं होती, वह बार-बार गर्भ-धारण का दुःख पाता है ।

आलम्बिकुन्तलभरामभिरामवक्त्रा-
मापीवरस्तनतटीं तनुवृत्तमध्याम् ।
चिन्ताक्षसूत्रकलशालिखिताढ्यहस्तां,
मातर्नमामि मनसा तव गौरि मूर्तिम् ।।

टीका – हे जननी ! तुम्हारे केश लम्बायमान हो रहे हैं और तुम्हारा मुख अत्यन्त मनोरम हैं, तुम ऊँचे स्तनवाली हो, तुम्हारी कमर पतली और तुम्हारी चार भुजा में ज्ञानमुद्रा, जपमाला, कलश और पुस्तक विद्यमान है । हे गौरी ! तुम्हारी ऐसी मूर्ति को नमस्कार करता हूँ ।

आस्थाय योगमवजित्य च वैरिषट्क-
मावध्य चेन्द्रियगणं मनसि प्रसन्ने ।
पाशांकुशाभयवराढ्यकरां सुवक्त्रा-
मालोकयन्ति भुवनेश्वरी योगिनस्त्वाम् ।।

टीका – हे भुवनेश्वरी! योगिजन योगावलम्बनपूर्वक काम, क्रोध, मद, लोभादि शत्रुओं को जीत इन्द्रियों को रोक प्रफुल्लित चित्त से पाशांकुशाभय, वरयुक्त हाथवाली, सुशोभनामुखी तुम्हारा दर्शन करते हैं ।

उत्तप्तहाटकनिभा करिभिश्चतुर्भि-
रावर्तितामृतघटैरभिषिच्यमाना |
हस्तद्वयेन नलिने रुचिरे वहन्ती
पद्मापि साभयकरा भवसि त्वमेव ।।

टीका – हे जननि ! जो तपे हुए कांचन के समान वर्णवाली हैं, चार हाथी जलपूरित घट से जिनको अभिषिक्त करते हैं, जो एक दोनों हाथों में पद्म और अन्य दोनों हाथों में अभय मुद्रा तथा वर मुद्रा धारण करने वाली हैं, वह लक्ष्मी देविस्वरूपिणी तुम्हीं हो ।

अष्टाभिरुग्रविविधायुधवाहिनीभि-
र्दोर्वल्लरीभिरधिरुह्य मृगाधिराजम् ।
दूर्वादलद्युतिरमर्त्यविपक्षपक्षान्
न्युक्कर्व्वती त्वमसि देवी भवानि दुर्गे ।।

टीका – हे देवी भवानि ! जो सिंह के ऊपर चढ़कर नानारूप अस्त्रधारी आठ हाथों से विराजमान होती हैं, जो दूर्वादल के समान कान्तिवाली हैं,जिन्होंने देवताओं को परास्त कर के नीचे किया (झुका दिया) है, वह दुर्गास्वरूपिणी तुम्हीं हो ।

आविर्निदाघजलशीकरशोभिवक्त्रां
गुञ्जाफलेन परिकल्पितहारयष्टिम् ।
रत्नांशुकामसितकान्तिमलंकृतान्त्वा–
माद्यां पुलिन्दतरुणीमसकृत् स्मरामि ।।

टीका – जिनका मुखमण्डल पसीने की निकली हुई बूँदों से शोभा पाता है, जिन्होंने चौंटली घुँघुची की बनी हारयष्टि धारण की है, पात्रावली जिनके वसन हैं, उन्हीं कृष्णकान्तिवाली अनंग के वश में वर्त्तनेवाली वा अनंग को वश में करनेवाली विद्या पुलिन्दरमणी को बारम्बार स्मरण करता हूँ।

हंसैर्गतिक्वणितनूपुरदूरकृष्टे-
मूर्तेरिवाप्तवचनैरनुगम्यमानौ
पद्माविवोर्ध्वमुखरूढसुजातनालौ
श्रीकण्ठपत्नि शिरसैव दधे तवांघ्री ।।

टीका – हे नीलकंठ की पत्नी ! जिस प्रकार नुपूर के शब्द को सुनकर हंस दूर से खिंचे जले आते हैं, उसी प्रकार वेद तुम्हारे चरणकमलों का अनुगमन करते हैं, किन्तु तुम्हारे चरणकमल श्रेष्ठ नीलकमल के समान विराजमान हैं, मैं तुम्हारे उन्हीं दोनों पदों को मस्तक पर धारण करता हूँ ।

द्वाभ्यां समीक्षितुमतृप्तिमितेन दृग्भ्या-
मुत्पाद्यता त्रिनयनं वृषकेतनेन ।
सान्द्रानुरागभवनेन निरीक्ष्यमाणे
जंघे उभे अपि भवानि तवानतोऽस्मि ।।

टीका – हे भवानि ! वृषध्वज श्रीमहादेवजी ने अपने दोनों नेत्रों से तुम्हारे रूप का दर्शन करके तृप्त न होने से ही मानों तीसरे नेत्र को उत्पन्न कर अत्यन्त गाढ़ अनुराग सहित तुम्हारे जंघादेश का दर्शन किया है, अतएव मैं तुम्हारी उन दोनों जंघाओं को नमस्कार करता हूँ ।

ऊरु स्मरामि जितहस्तिकरावलेपौ
स्थौल्येन मार्द्दवतया परिभूतरम्भौ ।
श्रोणी भवस्य सहनौ परिकल्यदत्तौ
स्तम्भाविवांगवयसा तव मध्यमेन ।।

टीका – हे जननि ! तुम्हारा ऊरु हाथियों की सूँड का गर्व खर्व करता है, उसने अपनी स्थूलता और कोमलता से केले के वृक्ष को परास्त किया है और तुम्हारे नितम्ब को देखने से ऐसा बोध होता है, मानो मध्यदेश ने ही स्तम्भस्वरूप में उसकी कल्पना की है, मैं उसका स्मरण करता हूँ ।

श्रोण्यौ स्तनौ च युगपत्प्रथयिष्यतोच्चै-
बल्यात्परेण वयसा परिकृष्टसारः ।
रोमावलीविलसितेन विभाव्य मूर्ति-
र्मध्यन्तव स्फुरति मे हृदयस्य मध्ये ।।

टीका – हे देवी ! तुम्हारे मध्यदेश को देखने से ऐसा अनुमान होता है कि मानो तुम्हारे नितम्ब और स्तनमण्डल, दोनों ने उच्चताविस्तार के कारण यौवन द्वारा मध्यदेश का सार खींचा है । इसी कारण तुम्हारा मध्यदेश (कटिभाग) अत्यन्त क्षीण हो गया है । हे जननि ! तुम्हारा यह मध्यदेश मेरे हृदय में स्फुरित हो ।

सख्यः स्मरस्य हरनेत्रहुताशभीरो-
र्लावण्यवारिभरितं नवयौवनेन ।
आपाद्य दत्तमिव पल्वलमप्रधृष्यं
नाभिं कदापि तव देवि न विस्मरेयम् ।।

टीका – हे जननि ! नवयुवती शिव की नेत्राग्नि से डरी हुई रति का लावण्य जलपूर्ण करके क्षुद्र सरोवर की भाँति तुम्हारी नाभी बनाई गई है, तुम्हारी इस नाभि को मैं कभी नहीं भूलूँ ।

ईशोपगूहपिशुनं भसितं दधाने
काश्मीरकर्द्दममनु स्तनपंकजे ते ।
स्नानोत्थितस्य करिण: क्षणलक्षफेनौ
सिन्दूरितौ स्मरयतः समदस्य कुम्भौ ।।

टीका – हे जननी ! तुम्हारे दोनों कुच कमलों में भस्म लगा हुआ है, इसके द्वारा हर (शिव) का आलिंगन सूचित होता है, और यह कुचयुगल पद्ममूल से अनुलिप्त होने के कारण स्नान से उठे मदयुक्त हाथी के क्षणमात्र को फेन से लक्षित गण्डस्थल का स्मरण कराते हैं ।

कण्ठातिरिक्तगलदुज्जवलकान्तिधारा
शोभौ भुजौ निजरिपोर्मकरध्वजेन ।
कण्ठग्रहाय रचितौ किल दीर्घपाशौ
मातर्म्मम स्मृतिपथं न विलंघयेताम् ।।

टीका – हे मातः ! तुम्हारे दोनों हाथ देखने से अनुमान होता है, मानो कामदेव ने अपने शत्रु हर का कंठ ग्रहण करने के लिये दीर्घ पाश बनाया है । हे मातः! तुम्हारे इन दोनों हाथों को मैं कभी न भूलूँ ।

नात्यायतं रचितकम्बुविलास – चौर्य्यं
भूषाभरेण विविधेन विराजमानम् ।
कण्ठं मनोहरगुणं गिरिराजकन्ये
सञ्चिन्त्य तृप्तिमुपयामि कदापि नाहम् ।।

टीका – हे गिरिराजपुत्री ! न बहुत दीर्घ अनेक प्रकार के अलंकृत मनोहर गुण तुम्हारे कंबुकठ की मैं भावना करता हुआ कभी भी तृप्त न होऊँ ।

अत्यायताक्षमभिजातललाटपट्टं,
मन्दस्मितेन दरफुल्लकपोलरेखम् ।
बिम्बाधरं वदनमुन्नतदीर्घनासं
यस्ते स्मरत्यसकृदम्ब स एव जातः ।।

टीका – तुम्हारे मुखमण्डल में विशाल आकृति वाले नयन विराजमान हैं, भाल परम मनोहर दिखाई देता है, मृदुहास्य द्वारा कपोल प्रफुल्लित हैं, अधर बिम्बाफल की भाँति शोभा पाते हैं, और उन्नत दीर्घ नासिका विराजमान रहती है, जो पुरुष तुम्हारे ऐसे बदन का स्मरण करते हैं, उनका ही जन्म सफल है ।

आविस्तुषारकरलेखमनल्पगन्ध-
पुष्पोपरि भ्रमदलिव्रजनिर्विशेषम् ।
यश्चेतसा कलयते तव केशपाशं
तस्य स्वयं गलति देवि पुराणपाशः ।।

टीका – हे देवी, तुम्हारे केशपाश भाल के चन्द्रमा की चाँदनी से प्रकाशित होते हैं, वह स्वल्प गन्धयुक्त पुष्प (फूल) के ऊपर भ्रमण करने वाले भौरे की समानता कर रहे हैं, जो पुरुष तुम्हारे ऐसे केशपाशों का स्मरण करते हैं, उनका संसारपाश कट जाता है ।

श्रुतिसुरचितपाकं धीमतां स्तोत्रमेतत्
पठति य इह मर्त्यो नित्यमार्द्रान्तरात्मा ।
स भवति पदमुच्चैः सम्पदां पादनम्रः
क्षितिपमुकुटलक्ष्मीलक्षणानां चिराय ।।

टीका – जो पुरुष बुद्धिमानों के श्रुति सुखदायक इस स्तोत्र का आर्द्रचित्त से प्रतिदिन पाठ करते हैं, वह संपूर्ण सम्पदाओं के आधार होते हैं और राजा लोग सदैव उनके चरणकमलों में झुकते हैं ।

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