दीपावली की अँधेरी रात मे तांत्रिक पूजा | Diwali Ki Andheri Raat Me Tantrik Puja

Diwali Ki Andheri Raat Me Tantrik Puja

प्रसिद्ध लेखक अरूण कुमार शर्मा द्वारा लिखित

Diwali Ki Andheri Raat Me Tantrik Puja

दूसरे दिन दीपावली थी । सबेरे से ही स्वाति के काले-भूरे बादल छाये हुए थे आकाश में । पूरा दिन तांत्रिक संन्यासी से अब तक हुई विषय-चर्चा पर ही चिन्तन-मनन करता रहा मैं । साँझ होते ही मैं पहुँच गया श्मशान में । एक लाश न जाने कहाँ से आकर अटक गयी थी श्मशान के किनारे पानी में । कृष्णकाली मण्डल अर्धविक्षिप्त-सा आया और मेरी ओर बिना देखे लाश को पानी से निकालने लगा । लाश किसी युवती की थी । श्मशान का भयंकर वातावरण और भी गहरा गया । पीपल के नीचे बैठे कुत्ते आपस में अकारण लड़ने लगे । पेड़ की डाल पर बैठा गिद्ध अपने परों को फड़फड़ाकर न जाने किधर उड़ गया अँधेरे में । दीपावली की वह काली अँधेरी रात और वह निशा बेला कभी भी भुलायी न जा सकेगी मुझसे ।

निर्जन सुनसान इलाका – उजाड़, बीहड़, धूसर । वातावरण में चारों तरफ गहरी निस्तब्धता छायी हुई थी । बादलों से अट कर काला पड़ गया था आकाश । गहन निःश्वास जैसी हाहाकार करती हवा नदी के तट की झाड़ियों और झुरमुटों को कँपाये दे रही थी । सहसा श्यामल आकाश में जलती हुई बिजली चमक उठी । सारा विस्तार एक क्षण के लिए प्रखर आलोक से उद्भासित हो उठा । उसी क्षणिक प्रकाश में मैंने देखा – वह तांत्रिक युवती की लाश के ऊपर झुका हुआ था । सहसा उसकी आवाज मुझे सुनाई दी । वह शायद मुझसे ही कह रहा था – हर दीपावली की रात्रि में इस प्रकार कोई न कोई लाश चली आती है यहाँ, मेरे लिए। निश्चय ही वह महाभैरवी ही मेरी साधना के निमित्त लाश की व्यवस्था करती है । जब मैं जैसा कहूँ, वैसा ही करियेगा आप । समझ गये न ?

हाँ, समझ गया । मैंने उत्तर दिया ।

तांत्रिक संन्यासी कृष्णकाली मण्डल अब लाश के ऊपर आसन लगाकर बैठा और एकाग्रचित्त से किसी मंत्र का जप करने लगा था । वह लाश पशु-पक्षियों का आहार न बनकर एक भयंकर तांत्रिक संन्यासी की साधना का आसन बन गई थी अब । लाश का सिर पीछे की ओर लटका हुआ था । उसकी आँखें फैली हुई थीं । मुँह भी थोड़ा-सा खुला हुआ था । शरीर बिल्कुल नग्न था । क्योंकि तांत्रिक संन्यासी ने उसका कफन उतार कर अपनी कमर में लपेट लिया था । सहसा श्मशान के पीपल के पेड़ पर चोंच रगड़ता कोई पक्षी कर्कश स्वर में चीख उठा ।

तांत्रिक संन्यासी ने पहले ही मुझे सारी बातें समझा दी थीं । उसका संकेत पाकर मैंने तुरन्त घी के पाँच दीपक जलाकर लाश के सिरहाने रख दिये । फिर मुर्गे का मांस और शराब की भरी बोतल और एक खोपड़ी भी सामने रख दी । तांत्रिक संन्यासी ने थोड़ा-सा मांस खाया, फिर खोपड़ी में उड़ेलकर थोड़ी-सी शराब पी । इसके बाद शेष मांस और शराब लाश के खुले मुख में डाल दी । दूसरे ही क्षण पूरी लाश जोर-जोर से हिलने लगी अपने स्थान पर । मेरा मन भयमिश्रित विस्मय से भर उठा । ऐसा लगा, मानो लाश किसी भी क्षण उठकर बैठ जायेगी ।

मेरा अनुमान सत्य निकला । तांत्रिक संन्यासी को पीछे की ओर ढकेलकर सहसा वह लाश उठकर इस प्रकार बैठ गयी – मानो वह भी जीवित प्राणी हो । वास्तव में वह जीवित ही लग रही थी उस समय । उसके चेहरे पर विचित्र-सी शान्ति और तेजोमयी आभा थी । वह अपलक उस तांत्रिक संन्यासी की ओर निहार रही थी ।

उस निविड़ गीली स्याह रात में लाश की यह विचित्र स्थिति और उसका रूप देखकर मेरी चेतना जैसे लुप्त होने लगी । मगर फिर भी सँभाले रहा मैं अपने आपको । हवा से काँपते दीपक के मन्द आलोक में मैंने देखा – युवती की लाश, नहीं नहीं…. अब उसे लाश नहीं कहना चाहिए वह तो पूरी तरह जीवित थी । बिल्कुल सजीव और चैतन्य । १८-२० वर्ष की सुन्दर रमणी लग रही थी वह । चम्पा जैसा रंग था शरीर का और उस चम्पई रंग के सुगठित शरीर पर लिपटी हुई थी गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी । उन्नत उरोज, उद्दाम यौवन से तरंगित देह-यष्टि, पीठ पर बिखरे हुए शैवाल जैसे काले-घने बाल, दीपक के मन्द आलोक में जगमग करता उज्ज्वल रूप, कुसुम-कोमल गालों पर बिखरे लावण्य के कण, रतनारी आँखें, कवि की कल्पना से परे अप्रतिम सौन्दर्य । देवकन्या जैसी उस यौवना को देखकर विस्मित होना स्वाभाविक था मेरा । युवती की बाँकी छवि देखकर ऐसा लगा कि जैसे वह इस संसार से परे किसी अनजाने लोक की कन्या हो ।

मेरा अनुमान सत्य निकला । वह भैरवी थी, तांत्रिक संन्यासी कृणणकाली मणडल की भैरवी  आपा खोकर भैरवी की ओर न जाने कब तक अपलक निहारता रहा में । भैरवी का रूप योंवन ओर उसकी बाकी छवि मेरे उषण रक्त मे घुलती जा रही थी जैसे कापते प्राणों से भरनजर देखा तांत्रिक संन्यासी की ओर । कैसी सम्मोहक छवि थी । भैरवी की आँखों में विचित्र सा सम्मोहन उतर आया था । रक्तिम होंठ फड़क रहे थे । जवाकुसुम जैसे गालों पर आग की लपट खेल रही थी जैसे ।

“तुम आ गयी, पूरा एक वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ती है मुझे।’ – काँपते प्राणों से नजरभर देखते हुए बोला तांत्रिक संन्यासी ।

मुझे भी तो प्रतीक्षा करनी होती है’- भैरवी ने उत्तर दिया-उसके स्वर में

आक्रोश था । अब किसी को प्रतीक्षा नहीं करनी होगी, न तुम्हें और न तो मुझे । आज तुम्हें लेने आयी हूँ मैं । मेरे साथ चलना होगा तुम्हें । – उसी आक्रोश भरे स्वर में बोली वह ।

‘नहीं, अभी नहीं ! अभी मैं नहीं जाऊँगा।’ – तांत्रिक संन्यासी प्रकम्पित स्वर में जरा दूर हटते हुए बोला ।

पुरुवा हवा की साँय-साँय रौरव शोर उत्पन्न कर रही थी । धीमे उजाले में श्मशान का पिशाच जैसा लगा मुझे वह तांत्रिक संन्यासी ।

‘नहीं, चलना ही पड़ेगा तुम्हें।’ भैरवी की रतनारी आँखें भावशून्य हो गयीं । वह जल उठी जैसे । एक अतीन्द्रिय ज्योति थी जैसे उसमें उस समय ।

आँखें गड़ाकर देखने की कोशिश की मैंने और फिर जैसे सुषुम्ना तक एक हिमप्रवाह दौड़ गया । कौन-सी घटना घटने वाली है इस श्मशान में । आतंक और संशय से बुरी दशा हो रही थी मेरी । एकाएक भैरवी का चेहरा कठोर हो गया । इस्पात जैसा रंग उतर आया उस पर । बोली- ‘अब तुम्हें नहीं छोडूंगी उसके चेहरे की कठोरता दूसरे क्षण एक पैशाचिक मुस्कान में बदल गयी । उसके दोनों हाथ तांत्रिक के गर्दन की ओर बढ़ने लगे और दूसरे ही क्षण उसकी जैतून की-सी उँगलियाँ सँड़सी की तरह गर्दन को कसने लगीं । तांत्रिक संन्यासी ने बुझी-बुझी निगाह से भैरवी की ओर देखते हुए भय और आतंक के मिले-जुले स्वर में कहा – ‘यह क्या कर रही हो तुम – फिर स्वरभंग हो गया उसका । भयातुर कण्ठ से उसने कुछ कहना चाहा आगे-किन्तु फटे गले से गो-गो का विलाप ही निकला । एक अस्पष्ट- सा प्राण कँपा देने वाला चीत्कार कर वह कटे वृक्ष की तरह जमीन पर गिर पड़ा । भय की अधिकता से उसके प्राण तत्काल निकल गये । विकट अट्टहास कर उस भयानक रात में-भैरवी न जाने कहाँ विलीन हो गयी शून्य में ।

मेरे प्राण हिम हो गये जैसे । शिराओं-उपशिराओं में रक्त-प्रवाह रुकता-सा जान पड़ने लगा । दूसरे ही क्षण मैं चिल्लाता, ठोकरें खाता, अँधेरे में जमीन पर गिरता और फिर संभल कर उठता हुआ भागा – पर श्मशान के पीपल के पास ही चेतनाशून्य होकर गिर पड़ा और फिर जब चेतना लौटी तो सबेरा हो चुका था । एक व्यक्ति मेरे ऊपर झुका हुआ मेरे मुँह पर पानी के छींटे डाल रहा था । वह शायद अपने सम्बन्धियों के साथ कोई शव जलाने के लिए श्मशान में आया था ।

चेतना लौटने पर मैंने उस व्यक्ति से पूछा – वह तांत्रिक संन्यासी कहाँ गया ?

यहाँ तो कोई साधु-संन्यासी नहीं है बाबूजी ।

एकाएक याद आया, वह तो मर गया था, उसकी लाश होनी चाहिए, यहीं कहीं ।

श्मशान में पागलों की तरह इधर-उधर कई बार चक्कर लगाया, लेकिन लाश । कहीं नहीं मिली उसकी । हार-थककर मन्दिर में पहुँचा तो देखा कि पुजारी जी मेरे लिए व्याकुल हो रहे थे । मुझे देखते ही बोल पड़े – पूरी रात कहाँ थे शर्मा जी आप ? आधी रात से आपको खोज रहा हूँ मैं । यह बड़ा ही बीहड़ इलाका है । पग-पग पर जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है । मैंने समझा कि कहीं पुजारी जी का वाक्य पूरा होता, उसके पहले ही मैं बोल पड़ा – तांत्रिक संन्यासी कृष्णकाली मण्डल के साथ नदी की ओर चला गया था ।

इसके अलावा पुजारी जी को और कुछ बतलाना उचित नहीं समझा मैंने । लेकिन पुजारी जी ने आश्चर्य और अविश्वास के मिले-जुले भाव से मेरी ओर देखा । फिर निकट आकर पूछने लगे – किस तांत्रिक के साथ गये थे?

अरे आप ! कृष्णकाली मण्डल को नहीं जानते ? वे तो इसी मन्दिर में पहले रहते थे । इधर उनसे मेरी घनिष्ठता हो गयी थी । वे प्रायः रोज ही दोपहर के समय मुझसे मिलने चले आया करते थे ।

मेरी बात सुनकर पुजारी जी एकदम से चौंक पड़े । उनके चेहरे पर भय-आतंक-विस्मय का मिला-जुला भाव फैल गया । कुछ क्षण तक वह मेरी ओर इस प्रकार देखते रहे जैसे मेरी बातों पर विश्वास ही नहीं रहा हो । आखिर पूछ ही बैठे – आपने जो कुछ कहा, वह सब सत्य है न शर्मा जी ?

जी हाँ ! क्यों ? मैं भला आपसे झूठ क्यों बोलूँगा ? मुझसे उनकी तंत्र के गूढ़ प्रसंगों पर काफी चर्चा भी हुई । निश्चय ही वह तंत्र के उद्भट विद्वान् हैं, इसमें सन्देह नहीं ।

मगर मगर”कृष्णकाली मण्डल तो “

पुजारी जी की हिचकिचाहट से मैं चौंका ।

क्या हुआ कृष्णकाली मण्डल को ?

वह इस मन्दिर में रहते अवश्य थे, किन्तु अब तो वह इस संसार में हैं नहीं । उनको शरीर छोड़े लगभग तीस वर्ष हो गये । तभी से मैं यहाँ इस मन्दिर में हूँ ।

ऐं! यह क्या कह रहे हैं आप ?

जैसे आपकी बात सत्य है उसी प्रकार मेरी भी यह बात अपने-आप में पूर्ण सत्य है । शर्मा जी ! आप और मैं दोनों अपने-अपने स्थान पर सत्य हैं । आपने जो कुछ देखा – सुना आत्मा की अविश्वसनीय लीला थी । फिर थोड़ा रुककर पुजारी जी आगे बोले – कृष्णकाली मण्डल ने इसी श्मशान में पूरे दस वर्ष तक किसी गुह्यतंत्र की कठोर साधना की थी । साधना में उन्हें सफलता और सिद्धि प्राप्त हुई या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन एक दिन महाशय श्मशान में मृत पाये गये थे । शायद दीपावली की रात थी वह । तभी से उनकी अतृप्त आत्मा इस इलाके में भटक रही है । हे भगवान् ! उसे कब पुजारी जी खड़ाऊँ पहनकर खट्-खट् करते मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़कर भीतर चले गये | लड़खड़ाता हुआ मैं अपने कमरे में पहुँचा । बिस्तर पर तकिया के नीचे टटोलकर देखा लाल कपड़े मे बाँधी पाणडुलिपि ओर लिफाफ़ा ज्यो के त्यो पड़े हुए थे सचमुच मेरे सामने एक अविश्वसनीय सत्य था, एक चमत्कारपूर्ण सत्य; जिसके साक्षी थे सौ-सौ के दस नोट और तंत्र की वह दुर्लभ पाण्डुलिपि जो आज भी मेरे पास पड़ी हुई है ।

वह दुर्लभ पाण्डुलिपि कृष्णकाली मण्डल की थी । उन्होंने उसे देते हुए मुझसे बड़े ही विनम्र स्वर में कहा था – ‘यह मेरी अमूल्य आध्यात्मिक सम्पत्ति है । मेरे साधना अनुभव संगृहीत हैं इस पाण्डुलिपि में । यदि सम्भव हो तो इसे प्रकाशित करा दीजिएगा । हो सकता है, साधना-मार्ग के पथिकों के लिए यह प्रकाशस्तम्भ सिद्ध हो।’ फिर एक दिन उस तांत्रिक संन्यासी ने इसी प्रकार उन रुपयों को भी देते हुए अत्यन्त विगलित स्वर में कहा था, ‘मेरी आत्मा की शान्ति के लिए-मेरी आत्मा के कल्याण के लिए – मेरी आत्मा के उद्धार के लिए काशी में आप साधु-संन्यासियों को भोजन करा दीजिएगा।’

कहने की आवश्यकता नहीं, मैंने वैसा ही किया । उनकी इच्छा पूर्ण कर दी । उस रहस्यमय तांत्रिक संन्यासी की आत्मा को शान्ति मिली कि नहीं, उसका कल्याण हुआ कि नहीं और उसका उद्धार हुआ कि नहीं, भगवान् जाने।

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