गुरु तेग बहादुर पर निबंध | Guru Tegh Bahadur Essay in Hindi

Guru Tegh Bahadur Singh

गुरु तेग बहादुर पर निबंध | Guru Tegh Bahadur Essay in Hindi

गुरु तेग बहादुर ९वें गुरू थे । ये छठे गुरू श्री हरगोविन्द के सबसे छोटे पुत्र थे । गुरु हरगोविन्द के पाँच पुत्र थे, जिनमें तीन तो गुरु हरगोविन्द के जीवितावस्था में ही प्राण त्याग कर चुके थे । शेष दो में सूरजमल बहुत विलासी और विषयी थे और तेग बहादुर एकदम वैरागी थे । अत: उन्होंने अपने किसी भी पुत्र को गुरु की गद्दी के योग्य नहीं समझा इसलिये उन्होंने अपने बड़े पुत्र बाबा गुरांदित्ता के छोटे पुत्र गुरू हर राय को गुरु का पद प्रदान किया था । श्री गुरू हर राय के एक भाई और थे, जिनका नाम धीरमल था, पर वे गुरुविद्रोहियों से जा मिले थे । हर राय ने अपने द्वितीय पुत्र हरकिन को गुरु पद पर बैठाया था; परन्तु असमय उन्होंने शरीर त्याग दिया था । उनके बाद गुरु के भक्तों ने श्री तेग बहादुर से गुरु-पद ग्रहण करने के लिये अनुरोध किया । बहुत आनाकानी करने के बाद श्री तेग बहादुर ने इस गुरु भार को लेना स्वीकार किया था ।

गुरु तेग बहादुर का जन्म


गुरु तेग बहादुर का जन्म सन् २१ अप्रैल १६२१ ई० में अमृतसर में हुआ था । विषय-सम्पत्ति और सांसारिक बसखेड़ों से सदा अलग रहने के कारण इनके पिता ने इन्हें गुरु की गद्दी नहीं दी थी, पर जब आठवें गुरु हरकिन ने मृत्यु के समय उन्हें ही गुरु बनाने का संकेत किया, तब सिख लोगों ने इनके पास पहुँच कर गुरु का पद स्वीकार करने के लिये बाध्य किया । श्री तेग बहादुर ने कहा,-“यद्यपि मेरा नाम तेग बहादुर है; पर वास्तव में मैं अपने पूर्वेजों की तलवार पकडने में असमर्थ हूँ ! मैं ‘त्याग-बहादुर’ हो सकता हूँ। दीन-दुखियों का सेवक हो सकता हूँ । आप लोग किसी और को गुरु के पद पर बैठाइये ।“ परन्तु बहुत से सिक्खों और अन्त में अपनी माता के कहने पर उन्होंने गुरु का पद ग्रहण करना स्वीकार किया ।

गुरु तेग बहादुर पर हमला


उधर गुरु हर राय के बडे भाई धीरमल, जो पहले से ही गुरु की गद्दी पाने के लिये लालायित थे और इसके लिये तरह-तरह की कोशिश भी करते आते थे, बाबा तेग बहादुर के गुरु होने से और भी कुपित हो गये । अब धीरमल गुरु के अनिष्ट के लिये तरह-तरह के पड़यन्त्र करने लगे । उन्होंने गुरु को गोली मार देने के लिये एक शिष्य को तैयार किया । वह धन के लोभ में आ गया । उसने मौका देख कर गुरु पर वार किया, उनके यहाँ से सब मूल्यवान् चीज उड़ा ली गयी । गुरु तेग बहादुर को भयंकर चोट आायी । वें अचेत होकर गिर पढ़े । पर सिक्ख लोगों में इस घटना से बड़ी हल-चल मच गयी उन्होंने फौरन धीरमल के मकान पर धावा किया और जितना सामान लाया गया था, सव छीन लिया गया । जिस विश्वास घाती शिष्य ने गुरु को गोली मारी थी, वह भी पकड़ा गया । वह गुरु के सामने वाँध कर हाज़िर किया गया । गुरु ने उसे माफ कर दिया और फौरन छोड़ देने का हुक्म दिया ।

आनन्दपुर नगर की स्थापना


धीरमल के उपद्रव-उत्पातों से दूर रहने के लिये गुरू तेग बहादुर पहाड़ी इलाके में जाकर रहने लगे और वहीं ही “आनन्दपुर” के नाम से एक नगर बसा लिया । पर वहाँ भी गुरु के विद्रोहियों ने उन्हें चैन लेने नहीं दिया । अन्त मे वे देशाटन को निकले । गुरु तेग बहादुर अपने पूर्वजों की तरह मालवा, बांग़ आदि विभिन्न स्थानों में घूम-घूम कर सिक्ख धर्म का प्रचार करने और सबको अहिंसात्मक बनने के लिये उपदेश देने लगे । गुरू तेग बहादुर ने बहुत से स्थानों पर सर्वसाधारण के आराम के लिये कुएँ और तालाब खुदवाये । देशाटन करते-करते गुरु तेग बहादुर आगरा, इलाहाबाद, गया से होते हुए पटना पहुँचे । पटना में औरंगजेब के सेनापति राजा रामसिंह से उनकी मुलाकात हुई । राजा रामसिंह मिर्जा जयसिंह के लड़के थे । ये सिक्ख हो गये थे। राजा रामसिंह उन्ही दिनों आसाम जा रहे थे । उन्होने गुरू को अपने साथ ले चलने की इच्छा प्रकट की । आसाम और ढाके में बहुते से सिक्ख मतावलम्बी थे । गुरु तेग बहादुर ने उन शिष्यों से मिलने-मिलाने का यह अच्छा संयोग देखा और इसीलिये वे उनके साथ चलने को तैयार हो गये ।

सम्राट् औरंगजेब की विशाल सेना अभी आसाम की सीमा पर ही पहुँची थी, कि आसाम वालों के साथ उनकी मुठभेड़ हुई । पर गुरु तेग बहादुर ने बीच में पड़कर दोनों सेनाओं के सरदारों को शान्त कर उन्हें युद्ध से विरत होने का उपदेश दिया । कहते हैं, गुरु के सदुपदेशों का उन पर इतना प्रभाव पड़ा, कि समस्त सेना की ढाले एक स्थान पर इकट्ठा की गयीं और उन पर मिट्टी का एक टीला बनाया गया । इस टीले पर शान्ति-स्थापक गुरु नानक के नाम से एक मठ की स्थापना की गयी ।

गुरु तेग बहादुर के पुत्र


इन्हीं दिनों गुरु तेग बहादुर को खबर मिली, कि पटना में उनकी स्त्री से एक पुत्र-रन्न उत्पन्न हुआ है । यह समाचार पाकर वे पटना लौटे और पुत्र को देख-भाल कर उसका नाम गोविन्द राय रखा । गुरू तेग बहादूर अभी कुछ ही दिन पटना में ठहर पाये थे, कि उनके पास पंजाब से खबर आयी, कि औरंगजेब के अत्याचारी शासनकर्ताओ के मारे प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही है । हिन्दू-मुसलमान दोनों ही त्रस्त हो रहे हैं । यह समाचार पाकर गुरू तेग बहादुर स्त्री व पुत्र को पटना में ही छोडकर पंजाब के लिये रवाना हो गये । वहाँ जाकर उन्होंने देखा, कि हिन्दू-मुसलमान किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं है, कि सरकार द्वारा होने वाले अन्धेरों और अत्याचार कि विरुद्ध चूँ तक करे। वे उपाय सोचने लगे, कि आखिर इन अन्धेरों का अन्त कैसे हो सकता है ? कुछ दिन बाद उन्होंने अपने पुत्र को पटना से लाने के लिये खबर भेज दी । एक दिन काश्मीर से ब्राम्हणों और पंडितों की एक टोली गुरु के पास आयी और उसने कहा,- “यदि आप कोई तदबीर नहीं करेंगे, तो कश्मीर की सारी प्रजा मुसलमान हो जायेगी।”

इससे उनकी चिन्ता और भी बढ़ गयी । वे सोचने लगे, कि इन अत्याचारों को बन्द करने के लिये कौन सा उपाय किया जाये ? गुरु अभी इसी चिन्ता में थे, कि उनका पुत्र गोविन्द वहाँ आ पहुँचा । गोविन्द की उम्र अभी कुल ९वर्ष की थी । पिता को चिन्ता-ग्रस्त एवं विषाद-मन्न देखकर उसने पूछा,-“पिताजी ! आप आज इतने उदास क्यों हैं ? ऐसी कौन सी चिन्ता है, जिसने आपको इस प्रकार व्याकुल कर रखा है ?”

गुरु पहले तो ९ वर्ष के बालक को ऐसा प्रश्न करते देख चौंके; पर उनके बार-बार आग्रह के साथ प्रश्न करने पर उन्होंने समस्त परिस्थिति बतलायी और अपनी चिन्ता का कारण भी बताया । अन्त मे उन्होंने कहा,- “इन अत्याचारों को रोकने के लिये एक-मात्र उपाय दिखाई देता है और वह यही, कि हम लोगों में जो सबसे अधिक पवित्र और पूज्य है, उसी के बलिदान की आवश्यकता है।”

बालक गोविन्द ने कहा, -“पिताजी! इसमें आपसे बढ़कर पवित्र और पूज्य दूसरा कौन हो सकता है ?” बालक के इस उत्तर को सुनकर गुरु तेग बहादुर को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने उसी समय पंडितो से कहा,-“आप लोग सम्राट से कहिये, कि पहले गुरु को मुसलमान बनाइये । उनके मुसलमान होने पर सब लोग खुद ही मुसलमान हो जायेंगे।” ब्राह्मणों और पंडितो ने वैसा ही किया ।

गुरु तेग बहादुर की मृत्यु


सम्राट् के पास जब यह खबर पहुँची, तब उन्होंने गुरु को दिल्ली में हाज़िर होने के लिये कहा । सन् १६७५ई. में गुरु दिल्ली को रवाना हुए । वहाँ पहुँचने पर उनसे मुसलमान होने को कहा गया । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में वैसा करने से इनकार कर दिया । सम्राट् की आज्ञा से उन्हें प्राण-दण्ड की सज़ा दी गयी । उस सज़ा को उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया । जब जल्लाद की तलवार ने उनका सर धड़ से जुदा कर दिया, तब सबने देखा, कि उनके गले में कागज का एक टुकड़ा बँधा हुआ है ।

उस पर लिखा है – “शिर दिया शरह ना दिया !।”

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