जलेबी का आविष्कार किसने किया | जलेबी का इतिहास | Jalebi Ka Itihaas

Jalebi Ka Itihaas

Jalebi Ka Itihaas

देखा जाए तो देश के हर कोने में जलेबी को बनाने का सबका अपना तरीका है, इसका सुनहरा रूप पाने के लिए उड़द दाल और चावल के आटे को अच्छे से फेंटा जाता है कुकी के इस्तेमाल से तैयार सामग्री को गरमा-गरम तेल में गोल-गोल घुमा के उतारा जाता है देखते-देखते इसका उजला रूप आपके सामने आने लगेगा | आखिर में इसे मिठास के लिए चाशनी में डुबाया जाता है |

लोग मानते हैं जलेबी अरब देशों में बनाए जाने वाले लुकमा-अल-कादीर पर आधारित है लेकिन इन दोनों में फर्क देखा जाए तो जलेबी आटा फेट के बनाई जाती है जबकि लुकमा-अल-कादीर के लिए आटा गूंथा जाता है और उस आटे से छोटे गोले बनाकर उन्हें तला जाता है |

इस बात में कोई शंका नहीं है कि जलेबी का जन्म पश्चिम एशिया में हुआ था, १३वीं सदी में तुर्की के मोहम्मद-बिन-हसन-अल-बगदादी ने अब्बास इतकाल के व्यंजनों को इकट्ठा करके एक पुस्तक की रचना की किताब-उल-तभी मतलब व्यंजनों की किताब |  जिसमें उन्होंने जलाबिया मतलब जलेबी का जिक्र किया है

भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम व्यापारी, कलाकारों और शासको के कारवां के साथ यात्रा करने पर जलेबी का आगमन भारत में हुआ और उनके खान-पान के साथ जलेबी भारत में फैलने लगी | जलाबिया या लेबिया को उर्दू बोलने वाले जिस तरह से उच्चारित करते थे, उसी का हिंदी में उच्चारण जलेबी हुआ |

उस समय से लेकर अब तक गिनते चले तो इस जलेबी के इतिहास को लगभग ५०० साल से ऊपर हो गए हैं, जलेबी के भारत आगमन पर नजर डालते हैं सबसे पहली बार भारत में जलेबी का जिक्र सन १४५० में हुआ | एक जैन लेख प्रियमकर्णपर्णकथा के अनुसार ईश्वर की पूजन सामग्री में जो व्यंजन थे, उसमें जलेबी शामिल थी और इसके बाद जलेबी तीज त्योहार में,  पूजा-पाठ में, खुशियों उत्सव में अपनी जगह बनाने लगी और इसका जादू इसके आकार की तरफ फैलने लगा |

१७वीं सदी में तंजौर की रानी दीपा बाई के राज्य में रघुनाथ नामक एक व्यक्ति था जिसने भोजना कुतूहल नामक व्यंजनों की किताब लिखि, उस किताब में दक्षिण प्रांत के लोगों की भोजन शैली के बारे में बताया गया है उसमें जलेबी बनाने की विधि पर जैसे जिक्र हुआ है आज भी भारत में जलेबी वैसे ही बनाई जाती है |

गालिब साहब मुगल साम्राज्य के बहुत बड़े शायर माने गए हैं और उनके मुशायरे भी जलेबी से अछूते नहीं रहे | एक दीवाली की रात ग़ालिब साहब गली से गुजर रहे थे तभी कुछ लोगों ने उन्हें दिवाली के अवसर पर बर्फी पेश की, ग़ालिब साहब उसे ठुकरा न सके लेकिन उनके वहां से निकलते ही एक बूढ़े ने मिर्जा गालिब से पूछा – मिर्जा आप दिवाली की मिठाई खा रहे हैं मुसलमान होकर, गालिब ने कहा  – बर्फी हिंदू है ? तो फिर जलेबी क्या है खत्री ?

ग़ालिब साहब की तरफ भारत के लोग अब धर्म से ज्यादा जलेबी को उसके स्वाद से मानने लगे थे, वह कहां से आई ? किस धर्म से आई ? यह बातें मायने नहीं रखती थी |

जलेबी भारत की देन नहीं है, मगर इसकी मिठास के साथ एक बहुत महत्वपूर्ण चीज भारत ने दुनिया को दी है शक्कर |

प्राचीन काल से ही भारत में समय-समय पर विदेशी पर्यटक आते रहे हैं और उनके बीच गन्ना हमेशा से ही चर्चा का विषय बन गया था | ३२६ ईसा पूर्व सिकंदर ने भी शक्कर को एक पत्थर की तरह बताया था, सिकंदर के हिसाब से इस पत्थर का रंग लोबान जैसा था और मिठास अंजीर या शहद जैसे | चीनी के नामकरण पर गौर करें तो इसके साथ भी एक दिलचस्प घटना जुड़ी है सन ६०६ से ६४७ तक उत्तर भारत में सम्राट हर्ष का राज था जिनकी राजधानी आज के उत्तर प्रदेश में थी | शुरू से ही यहां की मिट्टी गन्ने के लिए उपजाऊ रही और इसी वजह से राजा हर्ष के काल में भी यहां चीनी बनाने का काम होता था लेकिन तब उसे इस नाम से नहीं पुकारा जाता था |

लगभग ६३७ ईसवी के समय सम्राट हर्ष के यहां एक चीनी मेहमान चीनी बनाने की प्रक्रिया सीखने के लिए आए थे है और वापस अपने देश जाकर उन्होंने बड़े पैमाने पर चीनी बनाई और भारत को निर्यात करना शुरू किया | माना जाता है कि गुणवत्ता अच्छी होने के कारण और चीन में बहुत बड़े पैमाने पर बनाने के कारण शक्कर को चीनी कहा जाने लगा |

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