कुण्डलिनी शक्ति और विज्ञान | Kundalini Shakti and Science

कुंडलिनी चक्र

कुण्डलिनी शक्ति और विज्ञान | Kundalini Shakti and Science

यहा हम ‘आधुनिक विज्ञान’ की कुछ आधारभूत तत्त्वों का अध्धयन करेंगे । नीचे लिखी बातों पर ‘जीवविज्ञान एवं स्वास्थ्यविज्ञान’ के साथ-साथ ‘शरीर-रचना’ के बारे में बताना आवश्यक है, जिन्होंने इसके बारे में नहीं पढ़ा है । शरीर रचना के बारे में पूर्ण विस्तार से यहाँ पर बताया नहीं जा सकता । फिर भी यह आवश्यक है कि शरीर-रचना का पूर्ण ज्ञान के बिना इस योग को समझ पाना अत्यन्त कठिन है ।

अतएव जितना हो सका, हमने बताने का प्रयास किया है ।

स्नायु संस्थान (नर्वस-सिस्टम)


हमारे स्नायु संस्थान (नर्वस-सिस्टम) में मस्तिष्क एवं सुषुम्णा रज्जु (मेरु रज्जु, स्पाइनल-कार्ड) आते हैं । इनसे निकलने वाली तंत्रिकाएँ (नर्व-स्नायु) हमारे शरीर के हर भाग में पहुँचती है । ये दो प्रकार की होती हैं – एक शरीर के विभिन्न भागों से वेदना, ताप इत्यादि की सूचना मस्तिष्क को ले जाने वाली संवेदी तंत्रिका (सैन्सरी-नर्व) और दूसरी सम्बन्धित माँसपेशियाँ (पेशी, मसल) को कार्य करने के लिए मस्तिष्क से आज्ञा लानेवाली प्रेरक तंत्रिका (मोटर-नर्व) ।

रीढ़ की हड्डी (कशेरुका-दण्ड, वर्टीब्रल-कॉलम)


हमारी रीढ़ की हड्डी (कशेरुका-दण्ड, वर्टीब्रल-कॉलम) छोटे-छोटे बहुत से गुटकों (कशेरुक, वरटीब्रा) के एक रेखा में जुटने से बनती है । प्रत्येक कशेरुक में अंगूठी की तरह का एक छिद्र होता है । सारी कशेरुकाएँ आपस में जुटकर खोखला बेलन बनाते हैं । ये कशेरुकाएँ मनुष्य मे कुल मिलाकर 33 होते हैं । कशेरुक दण्ड (मेरुदण्ड, वरटीब्रल-कॉलम) को हम पाँच भागों में बाँट सकते हैं । कशेरुक दण्ड का पहला भाग ‘ग्रीवा’ कहलाता है । इस भाग में सात कशेरुक होते हैं, जिन्हें ग्रैविय कशेरुका (सरवाईकल-वरटीब्रा) कहते है । कशेरुक दण्ड के दूसरे भाग को ‘वक्ष’ (सीने की कशेरुक, थोरेसिक वरटीब्रा) कहते हैं । ये वक्षीय कशेरुक 12 होती हैं । तीसरा भाग उदरभाग कहलाता है । इस भाग की कशेरुकाओं को कटिपरक (लम्बर वरटीब्रा) कशेरुक कहते हैं । ये पाँच होती हैं । चौथे भाग को त्रिकास्थि (सेकरम) कहते हैं । योग की भाषा में इसको ‘कन्द’ कहते हैं । यह त्रिभुजाकार एक हड्डी होती है । ये सारी त्रिकास्थि की कशेरुकाओं के जुड़ने से बनती है । त्रिकास्थि में पाँच कशेरुकाएँ होती हैं इस त्रिभुज आकारवाली हड्डी का आधारवाला हिस्सा ऊपर होता है तथा नोकीला हिस्सा नीचे होता है । नीचे पेडूं में (धड़ के निचले हिस्से में) कटोरेनुमा एक हड्डी होती है जिसे श्रोणि (पैल्विस) कहते हैं । त्रिकास्थि उस कटोरे (श्रोणि) की पीछे की दीवार बनाती है । कशेरुक दण्ड के अन्तिम भाग को अनुत्रिक (कॉकसिक्स) कहते हैं । इसमें चार छोटे कशेरुक होते हैं । ये मिलकर (जुड़ने से) अनुत्रिक की हड्डी बनाते हैं ।

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यह अनुत्रिक अस्थि की नीचे की नोक बाहर से टटोलने पर गुदा और शिश्न के बीच में महसूस होती है । गुदा और शिश्न के आसपास के भाग को मूलाधार (पेरीनियम) कहते हैं ।

खोपड़ी (स्कल)


खोपड़ी के दो बड़े भाग होते हैं—(1) कपाल (क्रेनियम) या मस्तिष्क कवच तथा (2) चेहरे की हड्डियाँ । कपाल में बहुत-सी हड्डियाँ होती हैं । ये सीवन (स्यूचर) द्वारा जुड़ी होती हैं ।

कपाल की हड्डियाँ एक गुहिका (केविटी) बनाती है । इस गुहिका को कपाल गुहिका (क्रेनियल केविटी) कहते हैं । इस गुहिका में मस्तिष्क होता है । इस खोपड़ी में सबसे नीचे आधार में एक छेद होता है जिसे सुषुम्णा-छिद्र (फोरामेन-मेगनम) कहते हैं जिसमें होकर सुषुम्णा रज्जु मस्तिष्क के निचले भाग से जुड़ी होती है । यह सुषुम्णा रज्जु फिर नीचे कशेरुक दण्ड के बेलन में नीचे को त्रिकास्थि तक जाती है । इस तरह यह सुषुम्णा रज्जु एक रस्सी के समान होती है और ऊपर मस्तिष्क के निचले भाग से जुड़ी होती है और नीचे धड़ के नीचे मूलाधार तक जाती है । इस सुषुम्णा रज्जु में 31 खण्ड होते हैं जिनसे 31 मेरु-तंत्रिकाएँ निकलती हैं (स्पाइनल-नर्वज़)। सुषुम्णा रज्जु, रीढ़ की हड्डी की पूरी लम्बाई से छोटी होती है ।

सुषुम्णा रज्जु का मुख्य भाग दूसरी कटिपरक कशेरुक (दूसरी लम्बर वरटीब्रा) तक ही पहुँच पाता है। सुषुम्णा रज्जु के चारों ओर झिल्लियाँ का आवरण होता है । झिल्लियाँ संख्या में तीन होती हैं । सबसे बाहर की झिल्ली को दृढ़तानिका (ड्यूरा-मेटर) कहते हैं। इससे अन्दर की झिल्ली को जालतानिका (एराक्नॉयड-मेटर) कहते हैं और सबसे अन्दर की झिल्ली को मृदुतानिका (पाया-मेटर) कहते हैं । बीच की तथा सबसे अन्दर की झिल्ली के बीच के स्थान को अवजालतानिका स्थान (सबएरेक्नॉयड-स्पेस) कहते हैं। इस स्थान में आवश्यक तरल पदार्थ भरा होता है जिसे प्रमस्तिष्कमेरु-द्रव (सेरीब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड) कहते हैं । यह शक्तिदायक तत्त्व, सुषुम्णा रज्जु को प्रदान करता रहता है। ये शक्तिदायक तत्त्व प्रमस्तिष्कमेरु द्रव में हमारे रक्त से पहुँचते रहते हैं। जो भी हम भोजन करते हैं वह पचने के बाद शक्तिदायक रसों में बदल जाता है, जिसे हमारा रक्त शरीर के विभिन्न स्थानों में ले जाता है।

मस्तिष्क के जिस भाग में सुषुम्णा रज्जु ऊपर जुड़ी होती है उसे सुषुम्णा शीर्षक (मज्जका, मेड्युला ऑब्लांगेटा) कहते हैं। मस्तिष्क से निकलने के बाद सुषुम्णा रज्जु शनैः शनैः पतली होती जाती है और सबसे नीचे आने पर पहली कटिपरक कशेरुक (पहली लम्बर वरटीब्रा) के स्थान पर एक नोकीले आकार में समाप्त होती है जिसे शंक्वाकार संरचना (कोनस-मेड्युलेरिस) कहते हैं। इस शंक्वाकार संरचना से एक धागे जैसी रचना अनुत्रिक के पहले खण्ड तक जाती है। त्रिकास्थि कशेरुक के दूसरे खण्ड तक अवजालतानिका स्थान होता है और वहाँ तक प्रमस्तिष्कमेरु- द्रव भी बहता रहता है । त्रिकास्थि के दूसरे कशेरुक के खण्ड से पहली अनुत्रिक कशेरुक तक इस धागे पर केवल दृढ़तानिका होती है और प्रमस्तिष्कमेरु-द्रव नहीं होता है । पूरी सुषुम्णा रज्जु में बीचो बीच में एक नाली होती है जिसे सुषुम्णा की मध्य-नली (सेन्ट्रल-केनॉल) कहते हैं । इस नाली में भी प्रमस्तिष्कमेरु-द्रव बहता रहता है ।

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अगर सुषुम्णा रज्जु को आड़ा काटें तो इसकी अनुप्रस्थ काट (ट्रान्सवर्स-सेक्सन) को देखने पर पता चलता है कि सबसे बाहर तो ऊपर बताई हुई तीन झिल्लियाँ-दृढ़तानिका, जालतानिका और मृदुतानिका का आवरण होता है जिसे मस्तिष्कावरण (मेनिन्जीज) कहते हैं। फिर उसके अन्दर सुषुम्णा की पूरी लम्बाई में श्वेत पदार्थ होता है (ह्वाइट-मैटर) और सबसे अन्दर होता है भूरा पदार्थ (ग्रे-मैटर)। सबसे बीच में अन्दर सुषुम्णा की मध्य नाली (सेन्ट्रल केनॉल) होती है। यौगिक भाषा में श्वेत पदार्थ को वज्रा-नाड़ी कहते है तथा भूरे पदार्थ को चित्रा नाड़ी कहते हैं । सबसे अन्दर की मध्य नली को ब्रह्म-नाड़ी कहते है। सुषुम्णा रज्जु अनुप्रस्थ काट में देखने में सूर्य के समान गोल दृष्टिगोचर होती है ।

हमारे स्नायु तन्त्र के (नर्वस-सिस्टम) हमारे शरीर में दो प्रभाग हैं –

(1) ऐच्छिक (सोमेटिक) और (2) अनैच्छिक (ऑटोनॉमिक) । इसमें से अनैच्छिक (स्वैच्छिक) स्नायु तन्त्र (ऑटोनॉमिक नर्वस सिस्टम) के द्वाराकुण्डलिनी हमारे शरीर पर नियन्त्रण का हमें पता नहीं चलता है । मोटे तौर पर हम यह भी कह सकते हैं कि उन स्नायु तंत्रिकाओं पर हम अपने इच्छानुसार नियन्त्रण नहीं कर सकते हैं । इसलिए उन्हें अनैच्छिक (ऑटोनॉमिक) कहा गया । हमारे सीने और पेट के अन्दर (चेस्ट और एवडॉमेन) के अंगों का नियन्त्रण इसी स्नायु संस्थान के द्वारा होता है, जैसे हमारा सांस लेना (श्वसन), हृदय का धड़कना, आँतों के द्वारा भोजन को पचाने की क्रिया इत्यादि । यह बात भी स्पष्ट है कि हम अपनी श्वसन-क्रिया पर अपने इच्छानुसार नियन्त्रण थोड़े समय के लिए कर भी सकते हैं । अर्थात् फुफ्फुसों की क्रिया पर ऐच्छिक स्नायु तन्त्र (सोमेटिक नर्वस सिस्टम) का भी नियन्त्रण होता है। यह ऐच्छिक स्नायु तन्त्र हमारी इच्छा के अन्तर्गत कार्य करता है। इसके द्वारा हम अपनी माँस-पेशियों से काम ले पाते हैं जैसे बोलना, चलना, लिखना, देखना इत्यादि ।

सुषुम्णा के अन्दर से समान दूरी पर एक-एक कर कुल 31 जोड़े स्नायुओं के निकलते हैं । इनको सुषुम्णा स्नायु (स्पाइनल नर्वज़ू) कहते हैं । इन सुषुम्णा स्नायुओं का सम्बन्ध शरीर के भिन्न-भिन्न भागों से है । प्रत्येक सुषुम्णा स्नायु से दो जड़ें जुड़ी-सी रहती हैं। अगली जड़ को पूर्व मूल (एंटीरियर नर्व रूट) और पिछली जड़ को पाश्चात्य मूल (पोस्टीरियर नर्व रूट) कहते हैं। हमारे शरीर से जो विभिन्न अभिवाही स्नायु (एफ्रैंट-नर्व-फाइवर) सूचनाएँ, वेदना, ताप इत्यादि को लेकर आती हैं वे पाश्चात्य मूल से सुषुम्णा रज्जु में प्रवेश करती हैं और जो मस्तिष्क से विभिन्न माँसपेशियों के लिए आज्ञा लेकर आती हैं वे अपवाही (इफ्रैंट-नर्व-फाइवर) स्नायु सुषुम्णा रज्जु के पूर्व मूल से बाहर आती हैं ।

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संवेदनाएँ ले जाने वाले अभिवाही स्नायु (एफ्रैंट-नर्व-फाइवर) मण्डलों (बन्डलों) के रूप में एकत्र होकर ऊपर मस्तिष्क में जाते हैं । अलग-अलग प्रकार की संवेदनाओं के लिए अलग-अलग मण्डल होते हैं। इन मण्डलों को स्नायु-पथ (नर्व-ट्रेक्ट) कहते हैं। इन स्नायु पथ में इकट्ठा होनेवाले स्नायु तन्तु महीन धागों के समान होते हैं। ये स्नायु तन्तु (स्नायु- सूत्र, नर्व-फाइवर) मस्तिष्क के विभिन्न भागों तक पहुँचते है और जरूरी सूचनाएँ जहाँ-तहाँ के भागों को देते हैं। उन सब सूचनाओं का समन्वय मस्तिष्क करता है, सोचता है, कुछ निर्णय करता है और मस्तिष्क जिस निर्णय पर पहुंचता है उसी कार्य को कराने के लिए उससे सम्बन्धित माँसपेशियों को अपवाही स्नायु तन्तु (इफ्रैंट-नर्व-फाइवर – मोटर-नर्व-फाइवर = प्रेरक तन्तु) के द्वारा आज्ञा भेजता है ताकि शरीर के वे सम्बन्धित अंग उस कार्य को पूरा कर सकें ।

अब एक उदाहरण ले – मान लीजिए, हमारे पैर में भिरर्र (ततैया,वैस्प) ने काट लिया । अब यह वेदना की सूचना हमारे मस्तिष्क को संवेदी तंत्रिका के सूत्र (सैन्सरी-नर्व-फाइवर = एफ्रैंट-नर्व-फाइवर) के माध्यम से पहुँची । मस्तिष्क ने तुरन्त हमारे हाथ को आज्ञा भेजी कि उस भिरर्र को हटाओ और वहाँ मलो । साथ ही आँखों को भी आज्ञा भेजी कि देखो, पैर में किसने काटा । ये हाथ व आँख की दोनों क्रियाओं की आज्ञा, शीघ्रता से मस्तिष्क के द्वारा भेजी गई (नोट-परावर्तित क्रिया = रिफ्लैक्स-एक्शन के बारे में यहाँ पर अभी नहीं बताया जा रहा है)। आज्ञाप्रेरक स्नायु तंत्रिका (अपवाही, इफ्रैंट, मोटर-नर्व-फाइवर) के माध्यम से हाथ की व आँख की माँसपेशियों को पहुँची और उन अंगों ने आवश्यक कार्य किया ।

मस्तिष्वक से आज्ञा लेनेवाले अपवाही तन्तु (इफ्रैंट-नर्व-फाइवर, मोटर नर्व फाइवर, प्रेरक तन्तु) भी संवेदी तन्तु (एफ्रैंट फाइवर, सैन्सरी नर्व फाइवर, अभिवाही तन्तु) के समान मण्डलों (बन्डलों) के रूप में आते हैं। हमारे मस्तिष्क में भी अलग-अलग कार्य के लिए अलग-अलग हिस्से होते हैं और सब अलग-अलग हिस्सों के समन्वित कार्य से ही हमारे शरीर की विभिन्न क्रियाएँ सुचारु रूप से हो पाती हैं ।

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