मातंगी साधना मंत्र | मातंगी महामंत्र | मातंगी साधना के लाभ | Matangi Beej Mantra | Matangi Mantra | Matangi Mantra Sadhana

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मातंगी साधना मंत्र | मातंगी महामंत्र | मातंगी साधना के लाभ | Matangi Beej Mantra | Matangi Mantra | Matangi Mantra Sadhana

मातंगी साधन के मंत्र, ध्यान, यंत्र, जप-होम-स्तव एवं कवच का वर्णन निम्नलिखित है ।

मातंगी-मन्त्र


ॐ ह्रीं क्लीं हूँ मातङ्गयै फट् स्वाहा ।

इस मन्त्र के द्वारा मातंगी देवी की पूजा, जप, उपासनादि कर्म करना चाहिये ।

मातंगी ध्यान


श्यामाङ्गी शशिशेखरां त्रिनयनां रत्नसिंहासनस्थिताम् ।
वेदैर्बाहुदण्डैरसिखेटकपाशांकुशधराम् ।।

टीका – मातंगी देवी श्यामवर्ण वाली, अर्द्धचन्द्रधारिणी और त्रिनयनी हैं, यह अपने चारों हाथों में खड्ग, खेटक, पाश और अंकुश-यह चारों अस्त्र धारण करके रत्ननिर्मित (रत्नजटित) सिंहासन पर विराजमान हैं ।

मातंगी यंत्र


षट्कोणाष्टदलं पद्मं लिखेद्यन्त्रं मनोहरम् ।

टीका – षट्कोण अङ्कित करके उसके बाहर अष्टदलपद्म अङ्कित करे । फिर इस षट्कोण में देवी का मूल मंत्र लिखकर यंत्र प्रस्तुत करे । यह यंत्र भोजपत्र पर अष्टगंध द्वारा लिखना चाहिये ।

मातंगी जप होम


छह हजार की संख्या के जप से इस मंत्र का पुरश्चरण होता है और जप का दशांश घृत, शर्करा और मधुमिश्रित ब्रह्मवृक्ष की समिधा से हवन करना चाहिये ।

मातंगी स्तव


ईश्वर उवाच

आराध्य मातश्चरणाम्बुजे ते ब्रह्मादयो विश्रुतकीर्त्तिमापुः ।
अन्ये परं वा विभवं मुनीन्द्राः परां श्रियं भक्तिभरेणचान्ये ।।

हे माता ! ब्रह्मादि देवताओं ने तुम्हारे चरणकमलों की आराधना करके विश्रुत कीर्तिलाभ की है, तथा मुनीन्द्र भी परम विभव को प्राप्त हुए हैं, और अनेकों ने भक्तिभाव से तुम्हारे चरण-कमलों की आराधना करके अत्यन्त श्री-लाभ प्राप्त किया है ।

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नमामि देवीं नवचन्द्रमौलिं मातङ्गिनीं चन्द्रकलावतंसाम् ।
आम्नायकृत्यप्रतिपादितार्थं प्रबोधयन्तीं हृदि सादरेण ।।

टीका – जिसके माथे में चन्द्रमा की कला सुशोभित है, जो वेद द्वारा प्रतिपादित अर्थ को सर्वदा आदर से हृदय में प्रबोधित करती हैं, उन्हीं मातंगिनी देवी को नमस्कार है ।

विनम्रदेवासुरमौलिरत्नैर्विराजितं ते चरणारविन्दम् ।
अकृत्रिमाणां वचसां विगुल्फं पादात्पदं सिन्जितनूपुराभ्याम् ।
कृतार्थयन्तीं पदवीं पदाभ्यामास्फालयन्तीं कुचवल्लकीं ताम् ।
मातङ्गिनी मद्धृदये धिनोमि लीलंकृतां शुद्धनितम्बबिम्बाम् ।।

टीका – हे देवी, तुम्हारे चरण-कमल शिर झुकाये देवासुरों के शिरों के रत्नों द्वारा सुशोभित हैं । तुम अकृत्रिम वाक्य के अनुकूल हो, तुम्हीं शब्दायमान नूपुरयुक्त अपने दोनों चरणों से इस पृथ्वीमण्डल को कृतार्थ करती हो और तुम्हीं सदा वीणा बजाती हो । तुम्हारे नितम्बबिम्ब अत्यन्त शुद्ध हैं, मैं अपने हृदय में तुम्हारा चिन्तन करता हूँ ।

तालीदलेनार्पितकर्णभूषां माध्वीमदाघूर्णितनेत्रपद्माम् ।
घनस्तनीं शम्भुवधूं नमामि तडिल्लताकान्तवलक्षभूषाम् ।।

टीका – तुमने तालीदल (ताड़) का करों में विभूषण (आभूषण) धारण किया है, माध्वीक मद्यपान से तुम्हारे नेत्रकमल विघूर्णित हो रहे हैं, तुम्हारे स्तन अत्यन्त कठिन हैं, तुम महादेवजी की वधू हो और तुम्हारी कान्ति विद्युल्लता (बिजली) की भाँति मनोहर है । मैं तुमको नमस्कार करता हूँ ।

चिरेण लक्षं प्रददातु राज्यं स्मरामि भक्त्या जगतामधीशे ।
वलित्रयाङ्गं तव मध्यमम्ब नीलोत्पलं सुश्रियमावहन्तीम् ।।

टीका – हे माता ! मैं भक्ति सहित तुम्हारा स्मरण करता हूँ, तुम चिरनष्ट अर्थात् बहुत काल का नष्ट हुआ राज्य प्रदान करने वाली हो, तुम्हारी देह का मध्यभाग तीन वलियों से अंकित है । तुम नीलोत्पल की भाँति श्री (शोभा) धारण किये हो ।

कान्त्या कटाक्षैर्जगतां त्रयाणां विमोहयंतीं सकलान् सुरेशि ।
कदम्बमालाञ्चितकेशपाशं मातङ्गकन्यां हृदि भावयामि ।।

टीका – हे सुरेश्वरी ! तुम अपने शरीर की कांति और कटाक्ष द्वारा त्रिजगत्वासी मनुष्यों को मोहित करती हो, तुम्हारे केशपाश कदम्बमाला से बँधे हुए हैं । तुम्हीं मातंगकन्या हो, मैं अपने हृदय में तुम्हारा चिन्तन करता हूँ ।

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ध्यायेयमारक्तकपोलबिम्बं बिम्बाधरन्यस्तललामवश्यम् ।
अलोललीलाकमलायताक्षं मन्दस्मितं ते वदनं महेशि ।।

टीका – हे देवी ! तुम्हारे जिस मुखकपोल-तटपर रक्तवर्ण बिम्बाधर परम सुन्दरता से पूर्ण हैं, जिसमें चञ्चल अलकावली विराजमान है, नेत्र बड़े और जिस मुख में मंद-मंद हास्य शोभा पाता है, मैं उस मुखकमल का ध्यान करता हूँ ।

स्तुत्याऽनया शंकरधर्मपत्नी मातंगिनीं वागधिदेवतां ताम्।
स्तुवन्ति ये भक्तियुता मनुष्याः परां श्रियं नित्यमुपाश्रयन्ति ।।

टीका – जो पुरुष भक्तिमान होकर शंकर की धर्मपत्नी वाणी की अधिष्ठात्री मातंगिनी की इस स्तव द्वारा स्तुति करता है वह सदैव परमश्री को प्राप्त करता है ।

मातंगी कवच


शिरो मातंगिनी पातु भुवनेशी तु चक्षुषी ।
तोतला कर्णयुगलं त्रिपुरा वदनं मम ।।

टीका – मातंगिनी मेरे मस्तक की, भुवनेशी चक्षु (नेत्रों) की, तोतला कर्ण (कानों) की और त्रिपुरा मेरे मुख की रक्षा करें ।

पातु कण्ठे महामाया हृदि माहेश्वरी तथा ।
त्रिपुरा पार्श्वयोः पातु गुह्ये कामेश्वरी मम ।।

टीका – महामाया मेरे कण्ठ की, माहेश्वरी हृदय की, त्रिपुरा पार्श्व और कामेश्वरी गुह्यभाग की रक्षा करें ।

ऊरुद्वये तथा चण्डी जङ्घायाञ्च रतिप्रिया ।
महामाया पदे पायात्सर्वाङ्गेषु कुलेश्वरी ।।

टीका – चण्डी दोनों ऊरु की, रतिप्रिया जंघा की, महामाया पद की और कुलेश्वरी सर्वांग की रक्षा करें ।

य इदं धारयेन्नित्यं जायते सर्वदानवित् ।
परमैश्वर्य्यमतुलं प्राप्नोति नात्र संशयः ।।

टीका – जो पुरुष इस कवच को धारण करते हैं, वह सर्व-दानज्ञ (सदा दानी) होते हैं और अतुल ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं । इसमें सन्देह नहीं है ।

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