प्राण वायु क्या है | प्राण वायु का स्थान है | प्राण वायु कितने होते हैं | पंच वायु इन बॉडी | prana vayu mudra | prana vayu in hindi | pancha vayu in body

प्राण वायु क्या है | प्राण वायु का स्थान है | प्राण वायु कितने होते हैं | पंच वायु इन बॉडी | prana vayu mudra | prana vayu in hindi | pancha vayu in body

यह भी पाँच हैं। और नाम भी वही हैं जो पंच प्राणों के है, जैसे प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान । परन्तु कार्यक्षेत्र में अन्तर होने के कारण इनका पाँच प्राणों से भेद है ।

वायु को यौगिक भाषा में ‘स्नायु का संवेग’ कहा गया है (नर्व-इम्पल्स) । ये ‘प्राण वायु’ अनुकम्पी स्नायु संस्थान के छह चक्रों से सम्बन्धित हैं जहाँ पर इसके स्नायु-केन्द्र हैं जो संवेदों को ग्रहण भी कर सकते है और आदेश भी दे सकते हैं ।

(1) प्राण वायु

प्राणायाम की क्रिया में जब श्वास अन्दर ली जाती है तो यह प्राण-वायु बाह्य वातावरण से अन्दर आकर एक संवेग पैदा करती है जो कि मस्तिष्क व मज्जका के श्वसन केन्द्रों पर पहुँचता है तो यह अभिवाही संदेश है (एफ्रैंट-इम्पल्स)।

(2) अपान वायु

प्राणायाम में बाह्य श्वसन (एक्सपीरेशन) में यह वायु पैदा होती है (स्नायु संवेग) और यह मस्तिष्क के केन्द्रों से आदेश को दूर माँसपेशियों तक ले जानेवाला होता है। यह अपवाही (इफ्रैंट इम्पल्स) है।

( 3 ) व्यान वायु

‘प्राण वायु’ और ‘अपानवायु’ के सन्धिस्थल पर ‘व्यान वायु’ उपस्थित होती है। व्यान वायु का कार्य, प्राण वायु को अपान वायु में परिवर्तित करना (अर्थात् प्राणों के संवेग को अपान रूपी संवेगों में परिवर्तित कर देना)। इसका अर्थ यह है कि व्यान वायु प्रतिवर्त संवेग है । और यह संवेग या तो मस्तिष्क द्वारा शुरू किया जाता है या फिर सुषुम्णा के द्वारा उत्सर्जित किया जाता है या फिर अनुकम्पी स्नायु केन्द्रों के द्वारा उत्पन्न किया जाता है ।

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जब यह संवेग मस्तिष्क के द्वारा पैदा किया जाता है तब यह संवेग प्राणों से अपान वायु में परिवर्तित होकर वक्ष की श्वसन में सहायक माँसपेशियों को संवेदना भेजता है और शरीर की दूसरी ऐच्छिक माँसपेशियों को प्रेरक सूचनाएँ व आदेश भेजता है और इन सारी क्रियाओं का मनुष्य को पूर्ण ज्ञान रहता है अर्थात् यह सारी क्रियाएँ चेतनता में ऐच्छिक रूप से होती है, जैसे भागने रूपी ऐच्छिक क्रिया के समय गहरी व तेज श्वास का चलना ।

अगर यह प्रतिवर्त-संवेग (रिफ्लैक्स-इम्पल्स) अनुकम्पी स्नायु संस्थान के चक्रों से (सिम्पेथेटिक प्लैक्सस) शुरु होता है तो यह प्राण वायु के और अपान वायु के त्वरण प्रभाव (एक्सिलरेटिंग ऐफेक्ट) को नियन्त्रित करता है जिससे सम्बन्धित अंग अपनी सामान्य अवस्था में कार्य करे और जिसका जीव को पता भी न चले (विद आउट प्रोड्यूसिंग कॉनसियस सेंसेशन) ।

(4) उदान वायु

जब यह क्रिया जो संज्ञान में नहीं होती है तब संज्ञान में लाई जाती है तो सम्बन्धित अंग के द्वारा की जा रही ‘त्वरित-क्रिया’ एक व्यान वायु को उत्पन्न करती है जो प्रतिवर्त के माध्यम से सुषम्णा रज्जु के केन्द्रों में पहुँचती है । यह संवेग मस्तिष्क के चेतक (थैलेमस) वाले क्षेत्र में पहुँचता है। वहाँ से प्रमस्तिष्क (सेरीब्रम) को पहुँचता है जहाँ पर हर समय चेतनता बनी रहती है। यह त्वरण की क्रिया वाला ऊर्ध्वाधर चलनेवाला संवेग ‘उदान-वायु’ कहलाता है (द एसेन्डिंग एक्सिलरेटिंग इम्पल्स) ।

(5) समान वायु

जब ‘उदान वायु’ प्रमस्तिष्क (सेरीब्रम) में पहुँचती है तब यह अवरोधनात्मक क्रिया के लिए प्रेरित करती है (इनहिवीटरी इम्पल्स) जिससे उत्तेजित अंग शान्त हो जाता है। यह अपवाही संवेग (इफ्रैंट-इम्पल्स) है जो प्रमस्तिष्क (सेरीब्रल-कार्टेक्स) से चलता है और यह संवेग संतुलन पैदा करनेवाला है और उत्तेजित अंग को शान्त करता है। इसलिए इसका नाम ‘समान वायु’ है।

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यह संवेग प्राणदा नाड़ी के माध्यम से एवं परानुकम्पी स्नायु संस्थान की दूसरी तंत्रिकाओं के माध्यम से उत्तेजित अंग तक पहुँचता है ।

ऊपर लिखे सब तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि यद्यपि स्वैच्छिक स्नायु तन्त्र के द्वारा हमारे शरीर के सारे अंत:कार्यों का स्वचालित रूप से नियन्त्रण हो ही रहा है । परन्तु, फिर भी उन क्रियाओं को चेतनता में लाया जा सकता है और ऐच्छिक स्नायु संस्थान (सोमेटिक-नर्वस-सिस्टम) के संज्ञान में उन्हें इच्छानुसार नियन्त्रित किया जा सकता है ।

इसीलिए प्राचीन ऋषि-मुनियों ने सुषुम्णा रज्जु को ‘चन्द्र-सूर्य-अग्नि’ रूपिणी त्रिगुणमयी सुषुम्णा कहा था । उन्होंने कहा था कि भ्रूमध्य के ऊपर जहाँ पर इड़ा, पिंगला है वहाँ पर मेरुमध्य सुषुम्णा भी जा मिलती है ।

इसलिए यह स्थान ‘त्रिवेणी’ कहलाता है । शास्त्रों में इन तीनों नाड़ियों को गंगा, यमुना और सरस्वती कहा गया है । यह भी कहा गया है कि इस त्रिवेणी में योगबल से जो योगी अपनी आत्मा को स्नान करा सकता है । उसको ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होती है ।

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