श्री रामकृष्ण खत्री । Ramkrishna Khatri

श्री रामकृष्ण खत्री । Ramkrishna Khatri

श्री रामकृष्ण खत्री का जन्म चिरवली (बुल्डानाबरार) में ३ मार्च सन् १९०२ ई० में हुआ था । श्री रामकृष्ण खत्री के पिताका नाम श्री शिवलाल खत्री था और श्रीराम कृष्ण के लड़कपन में ही उनका देहान्त हो गया था । पिता के देहान्त के बाद इनके बड़े भाई ही इनके अभिभावक हुए । उनकी चाँदा में कपड़े की दूकान थी; इसलिये रामकृष्ण जी को भी वहीं रहना पड़ा । स्वभाव से बड़े नटखट और चतुर थे । इनकी बुद्धि और मेधा इतनी अच्छी थी, कि स्कूल में बहुत थोड़ा पढ़कर भी अपने क्लास में सबसे अच्छे रहते थे। बचपन में जब नीचे के दर्जे सें पढ़ते थे, तब इन्होंने एक दिन सुना, कि दूर के एक गाँव में लोकमान्य तिलक का व्याख्यान होगा । घर पर बिना किसी से कहे श्री रामकृष्ण खत्री जी ने माई की घोड़ी लेकर कई साथियों के साथ वहाँ पहुँचे और लोकमान्य का दर्शन किया । लोकमान्य का भाषण हुआ; पर बच्चों की समझ में कुछ भी न आया । अन्त में लोकमान्य ने कहा, कि जिसको कुछ सन्देह हो, पूछे । लड़कों के मन में सन्देह-ही-सन्देह भरा था । उन्होंने विचारा, कि लोकमान्य से पूछा जाये, कि बच्चों के लिये भी कुछ काम है ? बात तो सोच ली गयी; पर प्रश्न करने की किसी की हिम्मत ही न हो । अन्त मे श्रीराम कृष्ण ने प्रश्न किया । लोकमान्य ने कहा, ‘तुम माता, पिता और गुरु की आज्ञा मानो, तथा उनकी सेवा करो । पर इस उत्तर से श्री रामकृष्ण खत्री को कुछ अधिक सन्तोष न हुआ, वे कुछ और ही उत्तर चाहते थे । घर पर रहना और बराबर पढ़ते रहना इन्हें अच्छा नहीं लगता था । कहते “दिन-रात पढ़ो-पढ़ो लगा रखा है । इससे तो कहीं अच्छा नहर में तैरना और बागो मे फल तोड़ना होता है न मालुम किस दुष्ट ने नन्हें-नन्हें बच्चों को कष्ट देने के लिये लिखने-पढ़ने का आविष्कार किया था ?”

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किसी प्रकार दसवी कक्षा तक पहुँचे | इस समय एक विशेष प्रियपात्र के वियोग के कारण उनको वैराग्य हुआ और वे काशी पहुचे और साधुओं के असर से गेरुआ वस्त्र धारण कर साधु बन गये । अब इनका नाम ब्रम्हाचारी गोविन्द प्रकाश हो गया । इस समय ये प्रादेशिक उदासी महामण्डल काशी के मन्त्री हो गये, धीरे-धीरे बहुत से साधुओ की पोल उनके सामने खुलने लगी और उन्होंने अच्छी तरह से जान लिया, कि कितने ही भारी दुराचारी, लोभी और ढोंगी होते हैं ।

एक बार एक बंगाली साधु बुलावा देकर उन्हें एक विचित्र मकान में ले गया । वहाँ रामकृष्ण ने सामने काली की मूर्ति देखी ! कुछ सन्देह-जनक बातों से उन्हें ज्ञात हो गया, कि साधु उन्हें वहाँ बलि देना चाहता है । वे किसी बहाने छत पर खिसक गये तथा वहाँ से कूदकर भाग निकले । साधुओं को ये बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते तथा कहते, कि “उन्हें जीतेजी गंगाजी में दुबा देने से दुबाने वाले को मुक्ति मिलेगी, और देश का कल्याण होगा । ऐसे बेकार, व्यभिचारी और विलासप्रिय व्यक्तियों को क़ानूनन शादी करने के लिये मजबूर करना या इनसे जेल में चक्की चलवानी चाहिये । श्री रामकृष्ण ने असहयोग के जमाने में शराब तथा विलायती कपड़े के बहिण्कार के लिये दूकानों पर पिकेंटिंग भी की थी । १९२३ ई० में ये क्रान्तिकारी दल में शामिल हुए और धीरे-धीरे दल के एक प्रमुख कार्यकर्ता हो गये । ये युक्तप्रान्त से महाराष्ट्र में संगठन और प्रचार की दृष्टि से भेजे गये थे । श्री ज्ञाहिदी और श्री रामप्रसाद के नाम उनकी लिखी चिट्टियाँ, जो मुकदमे में पेश हुई थीं, पटियाला, जबलपुर, चाँदा, पुना आदि जगहों से लिखी हुई थीं । एक जगह से एक पत्र में इन्होंने प. रामप्रसाद “बिस्मिल” को लिखा था, कि “यहाँ मेरी तिजारत अब शीघ्र ही अच्छी तरह चलेगी । कालेज के कुछ युवको ने ग्राहक बनकर सहायता देने का वचन दिया है ।”

श्री रामकृष्ण खत्री का चेहरा बहुत ही गोरा था और शरीर से दुबले, पर बड़े फुर्तीले थे । हवालात में बराबर कसरत करते थे । ये पूना में गिरफ्तार किये गये । केवल एक इस आदमी को गिरफ्तार करने के लिये १०० हथियार बन्द फौजी भेजे गये थे ।

हवालात में ये सदा प्रसन्नचित रहते और इनके अच्छे गुणों के कारण सभी लोग इनसे बहुत प्रसन्न रहते थे । शारीरिक स्वच्छता के साथ-साथ मानसिक पवित्रता के भी ये बड़े पक्षपाती थे । इनका स्वभाव बड़ा सरल और मिलनसार था, सहजमे ही एक अपरिचित व्यक्ति से भी इनकी मित्रता हो जाती थी । इन्होंने पंजाब, युक्तप्रान्त, बिहार,मध्यप्रान्त और महाराष्ट्र का भ्रमण किया था । उनकी बातें सदा रसीली और दिलचस्प होती थी । लड़कपन में इन्हें पढ़ने से जितनी नकरत थी, इस समय पढ़ने का उन्हें उतना ही अधिक शौक बढ़ गया था । ये मराठी,गुजराती, गुरुमुखी, हिन्दी, अँगरेज़ी और बंगला अच्छी तरह जानते थे । बँगला और गुजराती भी इन्होंने जेल में हो सीखी थी । पुस्तके संग्रह करने का इन्हें नशा सा था और जेल में भी इन्होंने कितनी ही अच्छी-अच्छी पुस्तकें खरीदी थी । ये सदा लोकमान्य तिलक के इस वाक्य को कि “स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” कहा करते थे ।

हवालात में रहते समय इन्होंने १६ दिनों का अनशन किया था। काकोरी षड़यन्त्र केस में इन्हें १०वर्ष की कैद की सज़ा हुई । ये हिन्दी और मराठी में अच्छा व्याख्यांन दे लेते थे ।

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