रानी दुर्गावती की कहानी । Rani Durgavati Biography in Hindi
जितने यवन-शासक इस भारतवर्ष पर शासन कर चुके हैं, उनमें सबसे अधिक न्यायी सम्राट् अकबर ही समझा जाता है । पर आज उसी के जीवन की एक घटना पाठकों के सामने उपस्थित की जाती है, जिससे वे समझ सरकेगे, कि सर्वश्रेष्ठ न्यायी अकबर भी कितना बड़ा अन्यायी था । सभी धर्म अबलाओं की रक्षा करने का उपदेश देते हैं । उन पर अस्त्र उठाना अन्याय तथा अत्याचार समझा जाता है । इसीलिये कोई भी न्यायी शासक कभी अबला-जाति पर अत्याचार नहीं करता । पर अकबर ने विपदग्रस्त अबला रानी दुर्गावती पर चढ़ाई कर जो अन्याय किया है, वह अकबर की सारी महत्ता को धूल में मिला देता है ।
रानी दुर्गावती महोबा के राजा कीर्ति सिंह चन्देल की लड़की तथा मण्डला-नरेश दलपत सिंह की धर्मपत्नी थीं। राजा दलपत सिंह एक वीर योद्धा तथा चतुर राजनीतिज्ञ थे। इसलिये जब तक वे जीवित रहे, तब तक किसी राजा महाराजा का साहस इनसे युद्ध छेड़ने का नहीं हुआ । पर ज्योंही राजा दलपत सिंह का स्वर्गवास हुआ, त्योंही अकबर ने एक बड़ी सेना आसफ खां की अधीनता में मणडलाधीश्वरी पर चढ़ाई करने के लिये भेजा । आसफ खां ने दल-बल के साथ मण्डला को आ घेरा । इस आकस्मिक आक्रमण से यद्यपि सारी प्रजा घबरा उठी, तथापि वीर दुर्गावती तनिक भी विचलित न हुई । उन्होंने एक बड़ी सेना एकत्र कर अपने पुत्र वीर वल्लम को अधीनता में आसफ खाँ का मुकाबला करने को भेजा किन्तु दुर्गावती केवल सेना एकत्र करके ही शान्त न हुई, बल्कि स्वयं भी रणवेश से सुसज्जित हो, शत्रुओ के समक्ष आ डटी ।
दोनों ओर से भीषण युद्ध होने लगा । क्रूर मुगल योद्धाओं का विश्वास था, कि दुर्गावती एक अबला है । वह हमारी वीरता के सामने रण क्षेत्र में कभी नहीं डट सकेगी; पर फल उलटा ही ही हुआ। रानी दुर्गावती की सेना का असीम साहस देखकर यवन-सेना का हृदय कॉप उठा ! उनके पॉव रणक्षेत्र से उखड गए । इस प्रकार एक अबला रानी से हार खाने के बाद भी दुष्ट आसफ खां हताश नहीं हुआ । उसने बारह वर्ष के अन्दर अनेक बार मण्डला पर चढ़ाई की, पर किसी बार भी उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई ।
१५६४ में मुगल सम्राट अकबर ने पुनः अपनी विशाल सेना के साथ आसफ़ खाँ को यूद्ध करने के लिये भेजा । दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ ! राजकुमार वींर वल्लभ बड़ी वींरता से शत्रुओं का संहार करने लगे। उनके अद्भूत पराक्रम को देखकर मुगल दंग रह गये । वींरवल्लभ ने दो बार शत्रु सेना को पराजित किया, पर तीसरी बार मुगल-सेना ने बड़े विक्रम से शत्रुओ पर धावा किया। इस बार किसी तरह राजकुमार उसे रोक न सका । चारों ओर से उन पर शत्रुदल टूट पड़ा, वे घायल होकर घोड़े से पृथ्वी पर गिर पड़े । दुर्गावती अपने पुत्र को आहत होते देख, अधीर हो उठीं – “शिविरमें ले जाओ “ कहती हुई वे सिंहनी को भाति फिर भीषण पराक्रम से शत्रुओ पर टूट पड़ी । दोनों ओर से फिर एक बार भीषण युद्ध होने लगा ।
वींर-रमणी दुर्गावती केवल तीन सौ पैदल सिपाहियों के साथ समुद्र की भाँति प्रचण्ड वेग से आती हुई मुगल सेना को रोकने लगीं । इतने में एकाएक उनके गले तथा आँखों में कई तीर आकर घुस गये, जिससे उनका शरीर जर्जर हो गया, अंग-अंग से खून की धारा बह चली । दुर्गावती बहुत अधीर हो गयीं । यह देखकर वींर-योद्धा अधरसिंह ने उनके पास आकर पराजय स्वीकार कर लेने की प्रार्थना की । किन्तु वीर क्षत्राणी के लिये हार मान लेना कब सम्भव था ?
यद्यपि रानी अत्यन्त निर्बल हो चुकी थीं, तथापि उन्होंने डाटकर कहा,-“नहीं, कभी नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता। जब एक दिन मरना ही है, तो इस प्रकार शत्रु के सम्मुख शिर झुकाकर अथवा रणक्षेत्र से पीठ दिखाकर मैं अपयश और निन्दा की मौत नहीं मर सकती। इसलिये यदि तुम मेरा कुछ उपकार करना चाहते हो, तो अपने हाथ से मेरा काम तमाम कर दो। यवन के हाथ से मरने की अपेक्षा, तुम्हारे हाथ से मरना अच्छा है ।“ पर सरदार के आनाकानी करने पर उस वीर रमणी ने बड़े साहस के साथ स्वयं ही अपनी गर्दन पर तलवार मार ली और स्वर्गलोक को सिधार गयी।