पूरी मे वास करने वाले भगवान जगन्नाथ
हर १४ से १९ वर्षो मे मृत्यु मे समाकर फिर जन्म लेते है | जगन्नाथ की बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र भी इसी
बदलाव मे से गुजरते है | ये परंपरा जिसे “नवकलेवर” कहा जाता है, यह लगभग ४०० वर्षो से चली आ रही है | जब हर १४ से १९
वर्षो मे हिन्दू धार्मिक कलेंडर मे एक माह जुड़ता है और साल में
आषाढ़ के दो महीने आते हैं। १९ साल बाद
यह अवसर आता है वैसे तो कभी-कभी १४ वर्षो में भी
ऐसा होता है | इसे “नवकलेवर”
कहा जाता है | सन २०१५ ऐसा ही
एक वर्ष था |
इसमे एक विशेष नीम के पेड़ (दारू)
को ढूंढा जाता है, जिसे दारुब्रम्ह
कहते है | इन पेड़ो मे घोसले नही होते, बस
एक चीटी का पहाड़, पास मे एक साप (सर्प), चार प्रमुख शाखाएं और समीप
जलाशय या श्मशान होना चाहिए | इन पेड़ो को काटकर पूरी भेजवाया जाता है | जहा इन्हे विधि अनुसार तराशा जाता है | भगवान
जगन्नाथ का रंग सांवला होता है, इसलिए
नीम का वृक्ष उसी रंग का होना चाहिए। भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन का रंग गोरा है, इसलिए उनकी मूर्तियों के लिए हल्के
रंग की नीम का वृक्ष ढूंढा जाता है।
वर्ष २०१५ मे इन नीम की वृक्षों की
खोज के लिए अलग–अलग दिशा में अलग–अलग दल
निकले थे। सबसे पहले १७ अप्रैल
को भगवान सुदर्शन का वृक्ष मिला । इसकी कटाई की गई और २२ अप्रैल
को पुरी के मुख्य मंदिर पहुंचा दिया गया । यह वृक्ष ओडिशा के काकटपुर जिले में
मिला । इसके कुछ दिन बाद एक
अन्य दल को ओडिशा के जगतसिंहपुर जिले के झंकड़ में भगवान बलभद्र का वृक्ष मिला । इसकी भी कटाई कर दी गई । पुरी मंदिर प्रशासन के मुखिया सुरेश
महापात्र ने इसकी घोषणा की थी । बलभद्र के दारु की कटाई के यज्ञ के
दौरान माता सुभद्रा के दारु स्थल की भी घोषणा कर दी गई । यह वृक्ष जगतसिंहपुर जिले के बिरडी
ब्लाक के अढ़ंगगढ़ श्रीनीलकंठेश्वर मंदिर के पास मिला । भगवान जगन्नाथ के लिए कटक के पास
जगतसिंहपुर गांव में नीम का वह पेड़ मिला । इसे “महालीम” कहते
हैं ।
एक विशेष रात को सरकार पूरी मे
अंधकार की घोषणा करती है और कुछ खाश पुजारी आँख मे पट्टी बांधकर कोई रहस्यमय चीज पुरानी
मूर्ति से नई मूर्ति तक पहुचाते है | इसे “ब्रम्हप्रदार्थ” कहते है | अभी तक कोई स्पष्ट नही
जानता है की ब्रम्हप्रदार्थ है क्या ? कुछ कहते है की यह कृष्ण
के अवशेष है तो कुछ कहते है की यह पवित्र आभूषण है या एक दुर्लभ प्रदार्थ | कुछ लोग इसे एक तांत्रिक-यंत्र और किसी तरह की परालौकिक वस्तु भी बताते है
|
इस विधी के बाद जगन्नाथ की पुरानी
मूर्ति को मंदिर के पास एक खाश हिस्से मे दफना दिया जाता है | ऋग्वेद मे एक पवित्र लकड़ी का जिक्र है | इन सब के बीच पूरी जगन्नाथ मंदिर मे जिन देवताओ की पुजा होती है वे शैव और
शाक्त परम्पराओ का प्रतिनिधित्व करते है | जो पुजारी इस मंदिर
मे सेवा करते है उनकी अलग-अलग मान्यताए है | जो दैत्यपति मंदिर
मे पूजा करते है वो ब्रामहण नही है | जिन मजदूरो ने जगन्नाथ की
मूर्ति बनाई वो शिल्पकार समुदाए के लोग है जिन्हे महाराणा कहा जाता है | सामान्य रूप से पूरी मंदिर मे गैर हिन्दुओ को प्रवेश की इजाजत नही है पर एक
कहानी मे बताया जाता है की जब कवि साढ़वीगों को मंदिर मे नही जाने दिया गया, तब जगन्नाथ खुद उनसे मिलने बाहर आए थे |
पूरी मंदिर को कई हमलों का सामना
भी करना पड़ा है लगभग ५वी और १०वी सदी के बीच यवन राजा रक्तबाहु ने मंदिर को अपवित्र
किया था | फिर १६वी सदी
मे मुसलमान बन चुके कोडापहाड़ों ने भी मंदिर पर दुबारा धावा बोला था | पर इन सब के बावजूद जगन्नाथ मंदिर बढ़ता रहा है |
इस प्रकार हमले तो बहुत हुए पर
वो दिव्यता जो पूरी के जगन्नाथ मे बसी है वो एक आकार से दूसरे आकार मे बदल जाती है
और जीवित रहती है |