श्री कृष्ण लीला | कृष्ण लीला महाभारत | Shri Krishna Leela | Shri Krishna Mahabharat
संजय धृतराष्ट्र के मन्त्री और कृपापात्र थे । वे कौरवों के दूत बनकर पाण्डवों के पास जाते हैं और वहाँ से लौटकर धृतराष्ट्र को उनका संदेशा सुनाते हैं | उसी प्रशंग में वे श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं—“श्रीकृष्ण यदि चाहें तो संकल्प मात्र से इस सम्पूर्ण जगत को जलाकर भस्म कर डालें; परंतु सारा जगत् श्री कृष्ण को जलाकर भस्म नहीं कर सकता । जहाँ सत्य है, जहाँ धर्म है, जहाँ लज्जा-संकोच है और जहाँ सरलता है, वहीं श्रीकृष्ण हैं; और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है । भगवान् श्रीकृष्ण अपनी योगशक्ति से कालचक्र, जगत्-चक्र और युगचक्र को रात-दिन चलाया करते हैं । वे ही काल के, मृत्यु के एवं चराचर जगत् के स्वामी हैं ।’
महाभारतके रचयिता महर्षि वेदव्यास भी उस समय वहाँ उपस्थित थे । वे भी संजय की उक्ति का समर्थन करते हुए कहते हैं —“राजन् ! संजय बिल्कुल ठीक कह रहा है । यह माया को वश में रखने वाले, पुराणपुरुष, सब के अन्तर्यामी श्रीकृष्ण के स्वरूप को जानता है । यदि तुम एकाग्र मन से इसकी बात सुनोगे तो यह तुम्हें संसार-भय से छुड़ा देगा ।“
जिस समय श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से सन्धि का प्रस्ताव लेकर कौरवों की सभा में जाते हैं, उस समय परशुराम, कण्व, नारद आदि अनेकों महर्षि एवं देवर्षि उनका दिव्य एवं नीतिपूर्ण भाषण सुनने के लिये वहाँ उपस्थित होते हैं और मन्त्रमुग्ध की भाँति श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी सुनते हैं । जब श्रीकृष्ण अपना धर्ममय सन्देश कह चुके होते हैं, उस समय ये महर्षिगण भी क्रमशः उनके प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए दुर्योधन को समझाते हैं और साथ ही उसे श्रीकृष्ण की महिमा भी सुनाते हैं । वे उसे बतलाते हैं कि सम्पूर्ण जगत के रचने वाले, सबके प्रभु एवं सबके शुभाशुभ कर्मों के साक्षी भगवान् नारायण ही श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हैं; किन्तु दुर्योधन के सिर पर तो काल नाच रहा था, इसीलिये उसने इन महात्माओं की हितभरी वाणी पर ध्यान नहीं दिया और उल्टे श्रीकृष्ण पर खीझकर वह उन्हें कैद करने का उपाय सोचने लगा ।
श्रीकृष्ण को उसकी इस कपटभरी चाल का पता लग गया । उन्होंने सब के सामने उसे फटकारते हुए कहा-“अरे दुष्ट ! तू यह समझ रहा है कि मैं अकेला हूँ और इसीलिये मेरा पराभव करके मुझे कैद करना चाहता है ? परन्तु तुझे यह नहीं मालूम है कि सारे पाण्डव, सारे अन्धक और सारे वृष्णि यहीं हैं ।“ तथा आदित्य, रुद्र, वसु एवं सम्पूर्ण महर्षि भी यहीं हैं ।” यों कहकर श्रीकृष्ण जोर से हँसे ।
उसी समय उनके अंगो में बिजली के समान कान्तिवाले ब्रह्मादिक देवता दीखने लगे । उन सबके शरीर अँगूठे के परिमाण के थे । और वे अपने अंगो से अग्नि की चिनगारियाँ छोड़ रहे थे । श्रीकृष्ण के ललाट में ब्रह्मा, वक्षःस्थल में रुद्र तथा भुजाओं में इन्द्रादि लोकपाल विराजमान थे । यही नहीं – अग्नि, आदित्य, साध्य, वसु, अश्विनी-कुमार, मरुद्गण, विश्वेदेव तथा यक्ष, किन्नर, गन्धर्व आदि सभी वहाँ मौजूद थे । श्रीकृष्ण की दाहिनी भुजा से गाण्डीवधारी अर्जुन और बायीं भुजा से हलायुध बलराम प्रकट हो गये । युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव तथा प्रद्युम्न आदि अन्धक एवं वृष्णिवंशी यादव उनकी पीठ में से प्रकट हुए तथा अपने अस्त्र-शस्त्रादि से सुसज्जित होकर श्रीकृष्ण के आगे खड़े हो गये । शंख, चक्र, गदा, शक्ति, शार्ङ्ग धनुष एवं खड्न आदि सब दमकते हुए आयुध भी श्रीकृष्ण की भुजाओं में सुशोभित हो गये । उनके नेत्रों, नथुनों तथा कान के छिद्रों में से भीषण अग्नि की लपटें निकलने लगीं तथा रोम कूपों में से सूर्य की-सी किरणें फूटने लगीं ।
श्रीकृष्ण के ऐसे भयानक रूप को देखकर उपस्थित सभी राजा लोग भय के मारे काँपने लगे और उन्होंने अपनी-अपनी आँखें मूँद लीं । केवल आचार्य द्रोण, भीष्म पितामह, महात्मा विदुर एवं संजय तथा तपोधन ऋषि ज्यों-के-त्यों बैठे रहे । उनको भगवान ने दिव्य दृष्टि दे दी थी । उस समय देवता दुन्दुभि बजाने और आकाश से फूल बरसाने लगे । धृतराष्ट्र की प्रार्थना पर भगवान ने उन्हें भी दिव्यदृष्टि-सम्पन्न कर दिया और वे भगवान् के उस चमत्कारी विग्रह को देखकर चकित हो गये । थोड़ी ही देर में भगवान ने अपने उस दिव्य विग्रह को समेट लिया और तत्काल सभा भवन में से उठकर चल दिये श्रीकृष्ण की भगवत्ता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा ?