जिम्बाब्वे इतिहास | सोलोमन मंदिर । Solomon Temple | Zimbabwe History

जिम्बाब्वे इतिहास | सोलोमन मंदिर । Solomon Temple | Zimbabwe History

जब यूरोपीय यात्रियों ने दक्षिण रोडेशिया से ऊपर की ओर बढ़कर पत्थरों के एक नगर को खोज लिया, तो वे खुशी से फूले नहीं समाए । उन्होंने सोचा कि उन्होंने अंततः राजा सोलोमन की पौराणिक खानों को खोज लिया है । किन्तु वास्तविकता कुछ और ही थी । उन्होंने वास्तव में एक शक्तिशाली विस्मृत काले साम्राज्य के धार्मिक नगर-दुर्गो को खोजा था ।

जिम्बाब्वे एक पत्थरों का देश है । जिम्बाब्वे शब्द वहां के स्थानीय मशोना (Mashona) लोगों की शोना (Shona) भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ है – पत्थर के घर । ये मूक तथा मौन पत्थर म्तिलिक्वे (Mtilikwe) नदी के शीर्ष पर स्थित एक लंबी विस्तृत काली सभ्यता के अवशेष हैं ।

जिम्बाब्वे की सभ्यता की खोज एक जर्मन भूविज्ञान शास्त्री (Geologist ) कार्ल मौश (Karl Mauch) ने की थी । उसने स्लेटी ग्रेनाइट के पाषाण खण्डों से निर्मित इमारतों का एक समूह खोजा । सभी इमारतों के ऊपर छत नहीं थी । बाद में मौश ने लिखा – “३ सितंबर १८७१ को हम इस पहाड़ी म्तिलिक्वे नदी की घाटी की पहाड़ी पर चढ़े । अचानक पूर्वी दिशा में लगभग पांच मील बाद एक ऐसी पहाड़ी स्पष्ट दिखायी दी, जिस पर यूरोपीय शैली में बड़ी-बड़ी दीवारें बनी हुई थीं ।“

जिम्बाब्वे का क्षेत्रफल लगभग ६० एकड है और इसमें तीन अलग-अलग प्रकार की वास्तु संरचनाएं पायी गयी हैं । प्रथम प्रकार की संरचना के अंतर्गत राजकीय किलों के समान दीवारों की श्रृंखला, संकरे मार्ग, सीढ़ियां तथा गलियारे पाये गये हैं । इन दीवारों को आजकल एक्रोपोलिस (Acropolis) कहा जाता है । दूसरी प्रकार की संरचना में एक विशाल अण्डाकार अहाता तथा सोलोमन मंदिर आता है । इस अहाते की लंबाई लगभग १०० गज तथा चौड़ाई ७० गज है । एक्रोपोलिस तथा मंदिर के बीच तीसरी संरचना स्थित है । इसके अंतर्गत केवल खंडहर ही आते हैं और इसे खंडहरों की घाटी भी कहा जाता है ।

मौश ने इन खंडहरों में गहरी रुचि ली । उसके अनुसार इन खंडहरों का महत्त्व इसलिये बहुत अधिक था, क्योंकि जिस ढंग से ये बनाये गये थे, उसे देखकर यह स्पष्ट हो जाता था कि अफ्रीका के स्थानीय लोगों ने इनका निर्माण नहीं किया होगा । अफ्रीका के स्थानीय लोग मुख्यतः कारंगा (Karanga) नामक आदिवासी कहलाते थे तथा मिट्टी की झोंपड़ियों में रहते थे । मौश के अनुसार इन संरचनाओं का निर्माण या तो राजा सोलोमन ने करवाया होगा या फिर प्रेस्टेन जॉन (Presten John) के पौराणिक साम्राज्य में हुआ होगा । इस नये ऐतिहासिक तथ्य की खोज करते समय मौश को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ।

मौश अमंगिवा (Amangiva) वंश के संरक्षण में अफ्रीका पहुंचा । यह वंश कारंगा जाति का प्रतिद्वंद्वी था । दोनों ही जातियां उस समय युद्धरत थीं, क्योंकि प्रत्येक का दावा था कि ये खंडहर उसके पूर्वजों से संबंधित हैं । वहां व्याप्त राजनैतिक तथा क्षेत्रीय संघर्षों के कारण मौश के लिये अपना अभियान आगे बढ़ा पाना कठिन हो गया । साथ ही खोज के दौरान उसके खोज उपकरण तथा उसका अन्य सामान भी खो गया । इन उपकरणों के बिना मौश इन संरचनाओं का बारीकी से अध्ययन नहीं कर सकता था । मानो यह सब भी मौश को अपने इरादे से हटाने के लिये काफी नहीं था, इसीलिये उसे तीव्र ज्वर ने घेर लिया, जिसने अंततः उसके प्राण ले लिये ।

किन्तु अपनी मृत्यु से पूर्व मौश अपनी नयी खोज के विषय में विस्तार में लिख चुका था । यह रिपोर्ट अंततः सन् १८७६ में प्रकाशित हुई और इसने भविष्य में की जाने वाली खोजों का मार्ग प्रशस्त कर दिया । किन्तु लिखित दस्तावेजों के अभाव में पुरातत्त्ववेत्ताओं को इस क्षेत्र में कालक्रमानुसार किसी सभ्यता के पैदा होने के संबंध में अनुमान लगाने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा । इसके अतिरिक्त अमलयुक्त मिट्टी (Acidic Soil) तथा उप सहारा (Sub-Saharan) के समान मौसम होने के कारण पुरातत्त्ववेत्ता इस नतीजे पर पहुंचने में भी थोड़ा हिचकते थे कि जिम्बाब्वे में भी कोई सभ्यता विकसित हो सकती थी ।

वैसे भी १९वीं शताब्दी तक पुरातत्त्वशास्त्र का अधिक विकास नहीं हुआ था, अतः केवल उन प्लंडहरों के चारों ओर संदेहों तथा अनुमानों का ही ताना-बाना बना जा सका । मौश ने लिखा था, “पहाड़ी पर पाये गये खंडहर सोलोमन के मंदिर के समान निर्मित हैं तथा मैदानों में पायी गयी इमारत वह महल रहा होगा, जिसमें रानी शीबा सोलोमन से मिलने के लिये जाते समय ठहरी होगी ।“

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इन अनुमानों के आधार पर एक ब्रिटिश पुरातत्त्ववेत्ता, थियोडोर बैण्ट (Theodore Bent) ने सन् १८९१ में अपनी खोज आरंभ की तथा यह निष्कर्ष निकाला कि इन खंडहरों की वास्तुकला फिनीशिया तथा मिस्र की वास्तुकला से मिलती-जुलती है ।

दूसरी ओर सोने की विस्तृत संपदा के कारण रोडेशिया ने अनेक खोजियों को अपनी ओर आकर्षित किया । सन् १९०२ में ब्रिटिश दक्षिणी अफ्रीका कंपनी ने प्रधान खोजी के रूप में डेविड हाल (David Hall) को नियुक्त किया । हाल ने भूमि की अनेक परतों की खुदायी की, किन्तु उसका योगदान भावी पुरातत्त्ववेत्ताओं के कार्य को और अधिक जटिल बना देने के अतिरिक्त कुछ नहीं था । बाद में उसे पदच्युत कर दिया गया । इस बार ब्रिटिश दक्षिणी अफ्रीका कंपनी ने उसके स्थान पर डेविड रैण्डैल मैकाइवर (David Randall Mac Iver) नामक एक प्रशिक्षित पुरातत्त्ववेत्ता को नियुक्त किया । उसने पहले-पहल यह घोषणा की, “जिम्बाब्वे में पाये गये खंडहरों पर पश्चिमी या पूर्वी प्रभाव बिलकुल नहीं है तथा वे अफ्रीका की कला के ही अभिन्न अंग हैं।“

मैकाइवर की मान्यताओं को लेकर विद्वानों में विवाद चलता रहा और जिम्बाब्वे के खंडहर काफी समय तक रहस्य ही बने रहे । सन् १९२९ में गरट्यूड कार्टन थाम्पसन (Gertrude Carton Thompson) को यह काम सौंपा गया । कार्टन ने मैकाइवर के विचारों की पुष्टि करते हुए कहा कि इन इमारतों का निर्माण ८वीं या ९वीं शताब्दी ई. के आसपास हुआ होगा । कार्टन के द्वारा मैकाइवर के विचारों का समर्थन किये जाने के साथ ही यह सिद्ध हो गया कि जिम्बाब्वे के खंडहर वस्तुतः प्रथम काले साम्राज्य द्वारा छोड़े गये चिह्न हैं । बाद में पुरातत्त्व विज्ञान प्रगत होने के साथ-साथ यह पाया गया कि वस्तुतः बंद (Bantu) कबीले के प्रवास का इतिहास ही जिम्बाब्वे की सभ्यता है ।

बंटु लोग पश्चिमी अफ्रीका में रहते थे । धीरे-धीरे वे पूर्व तथा दक्षिण दिशाओं में भी फैल गये । विस्तार का यह अभियान लगभग २००० वर्षों तक चलता रहा और इसने उप-सहारा अफ्रीका की पाषाण युग से लौह युग की हुई प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी । इस बदलाव ने रोडेशिया में शक्तिशाली राजनैतिक इकाइयों के निर्माण में बहुत मदद की ।

बंटु लोगों के मुख्य व्यवसाय पशु-पालन, खेती-बाड़ी, खाने खोदना तथा मिट्टी के बर्तन बनाना थे । एक्रोपोलिस में प्राप्त वस्तुओं से ज्ञात होता है कि जिम्बाब्वे में लौह युगीन बस्तियों की स्थापना ३२० ई. के आसपास हुई । कारंगा कबीला ८५० ई. में विकसित हुआ तथा उसके साथ ही अनेक नयी विकसित कलाएं भी सामने आयीं । यह कबीला बंटु कबीले से अधिक उन्नत था, क्योंकि यह मध्य अफ्रीका से आया था और मध्य अफ्रीका लोहे का एक अच्छा भंडार है । साथ ही इस कबीले के लोग अरब व्यापारियों के संपर्क में भी रह चुके थे अतः उनकी अनेक राजनैतिक विशेषताएं भी ग्रहण कर चुके थे । उनके कारण ही बाहरी जगह से रोडेशिया के व्यापारिक संबंध विकसित होते चले गये और रोडेशिया सोने, तांबे तथा लोहे के व्यापार का गढ़ बन गया । यद्यपि जिम्बाब्वे में सोना प्रचुर मात्रा में नहीं होता था, फिर भी व्यापारियों के लिये यह एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र बन गया था ।

कारंगा जाति अपने अधिक विकसित ज्ञान के कारण अधिक फली-फली । यह जाति शांत तथा एकाकी जिम्बाब्वे को बसाने वाली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जाति बन गयी । १४०० ई. तक यह जाति पूर्णतः उस क्षेत्र की स्वामिनी बन गयी और इन लोगों ने अपने अलग कानून तथा धर्म बना लिये ।

जिम्बाब्वे एक धार्मिक स्थान बन गया । इस घाटी का सौंदर्य इसे पूजा पाठ के लिये एक आदर्श स्थान बना देता था । यह तथ्य इसके वास्तुकला संबंधी वैभव के रहस्य को भी स्पष्ट कर देता है । १४०० ई. से १८३३ ई. तक के काल को वास्तुकला का स्वर्ण युग कहा जा सकता है । बड़ी-बड़ी विशाल दीवारें ग्रेनाइट के पाषाण खण्डों से बनायी जाती थीं । सोलोमन मंदिर की विशाल बाहरी दीवार (परिधि ८०० फुट) के अंदर अनेक भीतरी दीवारें हैं । इस प्रकार इन दीवारों के मध्य अनेक स्वतंत्र गलियारे बन जाते थे । प्रत्येक गलियारे में मिट्टी की अनेक झोंपड़ियां बनी होती थीं । आज वास्तुकला संबंधी सौंदर्य के नाम पर केवल उन झोंपड़ियों के तले तथा कुछ दीवारें ही बच पायी हैं । उस सुंदर इमारत से अवशेषों के रूप में कुछ मलबा ही प्राप्त हो सका है ।

सोलोमन मंदिर की बड़ी बाहरी दीवार के भीतर खड़ी शंकु के आकार की मीनार (Conical Tower) का भी दुःखद अंत हुआ । अपनी पुरातत्त्वीय खोजों के दौरान पहले बैण्ट ने और उसके ४० वर्ष बाद गरट्यूड ने इसे कमोबेश नष्ट कर दिया । फिर भी वे कोई महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं कर सके । अनेक पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इसके प्रवेश द्वार को खोजने की चेष्टा की लेकिन किसी को भी सफलता नहीं मिली । यह एक ठोस मीनार है तथा इस पर चढ़ना भी आसान नहीं है । अतः ये प्रश्न इतिहासकारों को अभी भी परेशान किये हुए है कि यह मीनार एक बुर्ज के रूप में प्रयुक्त होती थी या यह कोई प्रतीकात्मक धार्मिक स्मारक है ।

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