माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले व्यक्ति | माउंट एवरेस्ट के बारे में जानकारी | सर एडमंड हिलेरी | तेन्जिंग नॉरगे | Tenzing Norgay | Edmund Hillary | Mount Everest in Hindi

Mount Everest in Hindi

माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले व्यक्ति | माउंट एवरेस्ट के बारे में | सर एडमंड हिलेरी | तेन्जिंग नॉरगे | Tenzing Norgay | Edmund Hillary | Mount Everest in Hindi

सन् १९२१ में माउंट एवरेस्ट की खोज के ठीक अस्सी वर्ष बाद प्रथम एवरेस्ट अभियान दल का गठन किया गया । इस अभियान के सदस्यों में जॉर्ज लेह मेल्लोरी नामक एक युवा भी शामिल था । अभियान दल उसी साल जून माह में एवरेस्ट के उत्तर की ओर पच्चीस किलोमीटर पर रॉगबक स्थित तिब्बती मठ पर पहुंचा ।

दल में शामिल मेल्लोरी ने विशाल एवरेस्ट को अचरज से निहारा । उस एक क्षण में उसे शायद एवरेस्ट से प्यार हो गया था और ये होना भी था, क्योंकि वह एवरेस्ट ही था जहां मेल्लोरी के कड़े-से-कड़े प्रयासों को फलीभूत होना था ।

इस अभियान दल को एवरेस्ट के भू-भाग की जानकारी कतई नहीं थी, लिहाजा उनके सामने पहला कार्य था, उस इलाके की खोजबीन । अतः मेल्लोरी एवं बुल्लोक ने अपनी राह तलाशने के लिए एवरेस्ट के उस निचले भू भाग पर खोज प्रारंभ कर दी । दोनों उस एक राह की तलाश में थे, जो उन्हें किसी-न-किसी तरह से कामयाबी के उस ८८४६ मीटर ऊंचे शिखर पर पहुंचा दे । सभी पहाड़ों में श्रेष्ठ उस पहाड़ (एवरेस्ट) ने शीघ्र ही अपने बारे में यह जता दिया कि उसकी संरचना लगभग सटीक पिरामिडनुमा थी एवं उसकी प्रत्येक भुजा शिला-दर-शिला एक खड़ी चट्टाननुमा आकृति लिए थी ।

दुनिया का कोई भी पर्वतारोही कभी भी इस रीति से उस पर चढ़ने की नहीं सोचता । अतः मेल्लोरी एवं बुल्लोक ने अपना ध्यान उन तीन पर्वत श्रेणियों पर केंद्रित कर दिया, जो मिलकर उस कथित विशाल पिरामिड के कोनों का निर्माण करती थीं ।

पश्चिमी पर्वत श्रेणी अथवा खड़ी बर्फ से ढकी मीलों लंबी चट्टानों के रूप में ठीक एवरेस्ट की उस सतह की तरह ही नजर आती थी, जिस पर चढ़ना असंभव प्रतीत होता था । इसके अलावा खुबु ग्लेशियर से लेकर दक्षिणी पर्वत श्रेणी तक उभरी बर्फ की घाटी भी थी । मेल्लोरी की अनुभवी आंखों ने यह सब देखकर उसकी दुर्गमता को ताड़ लिया । पर्वत का यह हिस्सा नेपाल की सीमा में आता था । नेपाल एक ऐसा देश था, जिसमें विदेशियों का प्रवेश प्रतिबंधित था । मेल्लोरी ने इस घाटी को (WESTERN CWM) नाम दिया । इसे बोलचाल में वेस्टर्न कूम कहा जाता है । आखिरकार उत्तर-पूर्व की ओर खोज करने पर मेल्लोरी को उस विशाल पहाड़ के सुरक्षा चक्र में एक कमजोर बिंदु अर्थात् चढ़ाई के लिए उपयुक्त स्थान मिल ही गया । रॉगबक ग्लेशियर की वजह से एक ऊंची संरचना स्थापित थी । यह कुछ इस तरह से थी, मानो किसी ने बर्फ की एक विशाल काठी वहां कस दी हो । इसके आगे तीखे एवं तेज कोनों वाली एक चट्टान थी, जो ऐन चढ़ाई के पास पहुंचती थी, परंतु ग्लेशियर से उत्पन्न यह संरचना, जिसे नॉर्थ कोल नाम से पुकारा जाने लगा था, पूर्ण रूप से बर्फ से बनी एक चट्टान थी । इस चट्टान की ऊंचाई बारह सौ मीटर थी । मेल्लोरी और बुल्लोक में से किसी को भी ग्लेशियर से कोल तक की चढ़ाई का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था |

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फिर कोई दो महीने तक एक और पर्वतारोही व्हीलर के साथ रॉगवक ग्लेशियर की खोज करते रहने और इस दरमियान कोल की ऊंची चढ़ाई चढ़ने के दौरान इन तीनों ने एक संकरा मार्ग ढूंढ निकाला । यह मार्ग ग्लेशियर से उनकी तरफ की चढ़ाई तक एक कटाव लिए था । यहां से एवरेस्ट की ऊंची चोटी कुल एक हजार आठ सौ मीटर ऊंचाई पर थी । तीनों यहां से वापस लौट गए । ऐसा लगता था, मानो वह महान पहाड़ उन्हें उनकी शक्ति परीक्षण की चुनौती दे रहा था ।

अगले साल मेल्लोरी वापस लौटा । इस बार वह उस प्रथम योजना का हिस्सा बनकर आया था, जिसका मकसद उस महान पहाड़ को जीतना था । चढ़ाई के लिए बेस कैंप (आधार कैंप) रॉगबक ग्लेशियर में लगाया गया । गत वर्ष ढूंढ निकाले गए संकरे मार्ग को ही प्रयोग में लाया गया । चूंकि तिब्बती ग्रीष्म ऋतु बहुत छोटी होती है और दल के पास केवल छः हफ्तों का ही समय था । इसके बाद मानसून अपने साथ तूफान एवं कोहरा ले आता । लिहाजा मेल्लोरी और सोमरवेल ने शीघ्रताशीघ्र उत्तरी कोल की ओर अपना रास्ता काटना शुरू कर दिया । इनके पीछे-पीछे शेरदिल शेरपाओं की कतार चल रही थी । ये शेरपा कुली अपनी पीठ पर कोल के ऊपर स्थापित कैंप-चार के लिए साजो- सामान लिए हुए थे ।

मेल्लोरी, सोमरवेल, मोरशेड और नॉरटन ने कैंप-चार से अपनी कथित चढ़ाई के लिए पहला प्रयास आरंभ किया । तेज फुफकारती सर्द हवाएं रह-रहकर उन पर बर्फ बरसा रही थीं । हवा की ठंडक में उनकी हड्डियां तक बैठ रही थीं । छह हजार नौ सौ मीटर की ऊंचाई पर हवा में ऑक्सीजन की अत्यधिक कमी की वजह से उनके फेफड़े किसी धौंकनी के समान फूल- पिचक रहे थे । ऐसा लग रहा था मानो वे अनवरत मीलों दौड़ने के उपरांत हांफ रहे थे । सात हजार पांच सौ मीटर की ऊंचाई पर थकान इतनी बढ़ गई कि उन्हें मजबूर होकर रुकना पड़ा । कैंप लगाना अब आवश्यक गया था । उन्होंने अपने साथ मौजूद शेरपाओं को वापस कैंप-चार भेज दिया ।

उस रात तापमान शून्य से भी नीचे चला गया । अगली सुबह होते ही उन्होंने अपनी यात्रा शुरू कर दी । मोरशेड इससे आगे की तकलीफ सहन न कर सका और बीमार पड़ गया । उसे वापस लौटा कर बाकी तीनों ने अपनी चढ़ाई जारी रखी । आगे की चढ़ाई अत्यधिक कठिन थी । हर कदम के लिए अत्यधिक मानसिक शक्ति की जरूरत थी । ऑक्सीजन की कमी ने अपना खेल दिखाना शुरू कर दिया । हर प्रकार के तार्किक एवं निर्णय पूर्ण विचारों ने मानो दिमाग से पलायन ही कर दिया था । केवल कुछ बाकी रह चुकी इच्छा शक्ति ही वह चीज थी, जो उन्हें कदम-दर-कदम ऊपर की ओर ले जा रही थी |

८१०० मीटर की ऊंचाई पर पहुंचने पर उन्हें इस बात का भली भांति आभास हो गया कि अब और आगे बढ़ना अपने जीवन को खतरे में डालना था । तीनों पर्वतारोही वहां से लौट पड़े । पीछे छूट गए मोरशेड की हालत खराब थी । वह तुषार उपघात का शिकार होकर पंगु हो चुका था । अत्यधिक शीत की अवस्था में मानव अंग में एक प्रकार का घाव हो जाता है, जो उपचार न होने की दशा में अंग विशेष के पूर्णतः खराब हो जाने का कारण बनता है । यही तुषार उपधात है ।

तीनों ने किसी तरह सहारा देते हुए मोरशेड को उठाया और उसे लेकर नीचे कैंप-चार की ओर चल दिए । वापसी के इस सफर में शायद वे जल्दबाजी कर बैठे । अचानक ही उनमें से एक फिसल पड़ा । सभी आपस में एक रस्सी से बंधे हुए थे और इसी कारण उस एक के फिसलते ही रस्सी के खिंचाव की वजह से दूसरा और फिर तीसरा भी खिंचता हुआ उत्तरी तरफ की ढलान की ओर फिसलता चला गया । उस ढलान के पार नीचे की चट्टानें कोई दो हजार चार सौ मीटर नीचे थीं । इस ऊंचाई से गिरने पर क्या हालत हो सकती थी, यह भली-भांति समझा जा सकता है, फिर अगले ही पल रस्सी के आखिरी सिरे पर बंधे मेल्लोरी को झटका लगा और वह उस खाई की तरफ खिंचने लगा । झटके की तीव्रता से उसके पांव उखड़ गए थे । तुरंत बुद्धि से काम लेते हुए अपने हाथ में थमी बर्फ काटने की उस छोटी सी कुल्हाड़ी को एक जोरदार झटके के साथ में गाड़ दिया । भाग्य ने साथ दिया । कुल्हाड़ी ने बर्फ में अपनी पकड़ बना ली । रस्सी एक झटके से तन गई और वे सभी खाई में गिरने से बच गए । तीनों पर्वतारोहियों ने धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए मेल्लोरी की तरफ वापस ऊपर की ओर चढ़ना शुरू कर दिया ।

एक बार फिर उन्होंने कैंप-चार की अपनी यात्रा शुरू की । इस बार हर कोई सावधान था । सावधानी एवं धीमी चाल की वजह से वे रात में काफी देर से अपने गंतव्य स्थल, कैंप-चार पहुंचे । रात के उस पहर हवा में अत्यधिक ठंडक थी और वे तीनों तो मानो मारे ठंड के मरे ही जा रहे थे ।

पर्वतारोहण के इतिहास में पहली बार कृत्रिम श्वसन प्रणाली लेकर फ्रिंज, जियोफरी ब्रूस और तेजबीर बूरा ने सन् १९२२ में दूसरा एवरेस्ट पर्वतारोहण का प्रयास किया । हालांकि इसको भी उस विशाल पहाड़ की कठोरता के आगे हार माननी पड़ी थी, परंतु ८१९० मीटर की चढ़ाई चढ़ने वाला वह दल उस स्थान या उस चढ़ाई तक चढ़ने वाला पहला मानव दल था । उनसे पहले कोई भी मानव उतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाया था ।

सन् १९२२ में यह दल अपना दूसरा प्रयास करने ही वाला था कि दुर्भाग्य ने अपना खेल दिखा दिया । कैंप-तीन एवं उत्तरी कोल के बीच की मजबूत एवं कठोर बर्फ ने अचानक ही अपनी कठोरता खो दी । बर्फ के अपने स्थान से हटने की वजह से शेरपा उसकी चपेट में आ गए । एवरेस्ट की वह ढलान नेपाल के सात सूरमाओं की कब्रगाह बन गई । इस हादसे से दुखी एवं व्यधित वह अभियान दल वापस लौट गया ।

सन् १९२४ में एक मजबूत टीम अपने सभी साजो-सामान के साथ एक बार पुनः दूसरे प्रयास के लिए वहां जा पहुंची । मेल्लोरी एवं ब्रूस पहला प्रयास करने वाले थे, पर ७६६० मीटर की ऊंचाई पर स्थित कैंप-पांच पर मौजूद तेज हवाओं ने शेरपाओं के हौंसले पस्त कर दिए और उन्होंने कैंप-छः के लिए ऊपर साजो-सामान ले जाने से इंकार कर दिया । परंतु नॉरटन एवं सोमरवेल ने किसी तरह से शेरपाओं को अपने साथ ८०४० मीटर की ऊंचाई तक चढ़ने के लिए मना लिया । इस चढ़ाई तक चढ़ना वाकई एक अभूतपूर्व कारनामा था । इतनी ऊंचाई पर हवा अत्यधिक पतली होती है अर्थात् उसमें ऑक्सीजन की मात्रा काफी घट जाती है । ऐसे में अपनी पीठ पर भारी साजो-सामान लेकर पर्वतारोहण करना वाकई हिम्मत एवं जांबाजी भरा कार्य था, जिसे उन शेरपाओं ने बखूबी अंजाम दिया था ।

फिर अगली सुबह भोर होते ही वे दोनों पर्वतारोही अपनी राह पर आगे निकल पड़े । हवा का पतलापन अपना असर दिखा रहा था । दोनों रह-रह कर खांस रहे थे । ऐसी हवा में सांस लेने के लिए फेफड़ों पर सामान्य से अधिक ही दबाव पड़ रहा था । हर दस या बारह कदम चढ़ने के बाद उन दोनों को विराम के लिए रुकना पड़ता था, परंतु अपने से पहले पर्वतारोहियों से बेहतर हालात एवं स्वास्थ्य की बदौलत वे अगले पांच घंटों तक ऊपर चढ़ाई चढ़ते रहे ।

८१०० मीटर की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद सोमरवेल की हालत खराब हो गई । वह अब सांस लेने में भी कठिनाई का अनुभव करने लगा था । ऐसा लगता था मानो दम घुट रहा हो । सोमरवेल नीचे बैठ गया और वहां बैठे-बैठे ही ऊपर चोटी की ओर इशारा कर नॉरटन को चढ़ते रहने का इशारा किया । अगले एक घंटे तक नॉरटन अपनी अदम्य इच्छा शक्ति के बूते पर चढ़ाई चढ़ता हुआ अपनी तरफ की खड़ी चट्टान को पार कर उसके मुहाने तक जा पहुंचा । शिलाखंडों को मजबूती से पकड़े हुए उसने तिब्बत के पहाड़ों की ओर देखा । वह जहां या वहां से उसे हर पहाड़ छोटा नजर आ रहा था, परंतु एवरेस्ट अब भी उन सबसे ऊंचा खड़ा था और उसमें अब और चढ़ाई चढ़ने की शक्ति न बची थी ।

नॉरटन, सोगरवेल को साथ लेकर किसी तरह से वापस उत्तरी कोल जा पहुंचा । दोनों टूटने की हद तक थक चुके थे । सोमरवेल अत्यधिक बीमार था और नॉरटन हिम अंधता का शिकार हो चुका था । बर्फीले प्रदेशों, जहां चारो ओर बर्फ है, सूर्य की किरणों के बर्फ से परावर्तित होकर आंखों में पड़ने से कई बार पर्वतारोहियों के लिए अंधता का कारण बनती है ।

इस सारे घटनाक्रम के बीच मेल्लोरी ने चौबीस वर्षीय एंड्र्यू इरविन को अपने साथी की हैसियत से चुन लिया था और वे दोनों अपने कथित आखिरी प्रयास के लिए तैयारी कर रहे थे । हर कोई जिसने मेल्लोरी को तैयारी करते हुए देखा है, यह जान और समझ गया था कि एक महान पर्वतारोही अपने महानतम कार्य के लिए तैयार हो रहा था । उन्होंने वह रात कैंप-छः में गुजारी । अगली सुबह मौसम साफ एवं अपेक्षाकृत रूप से शांत था । केवल ऊपर की तरफ ही कुछ कोहरा था । सभी संकेत चढ़ाई शुरू करने के पक्ष में थे ।

८ जून, १९२४ को ऑडेल नामक एक पर्वतारोही कैंप-पांच से रसद तथा अन्य सामान लेकर कैंप-छः की ओर रवाना हुआ । अपनी इस चढ़ाई के दौरान उसकी नजर एवरेस्ट की चोटी की ओर उठी । घोर आश्चर्य, उसे चोटी की ओर चढ़ते हुए दो मानव आकृतियां नजर आई । यद्यपि दोनों आकृतियां दूरी की वजह से काफी छोटी नजर आ रही थीं, तो भी तय था कि वे मानव ही थे । उन मानव आकृतियों के स्थान से एवरेस्ट की चोटी मात्र २४० मीटर या उससे भी कम ऊंचाई पर स्थित थी । दोनों आकृतियां अपनी रफ्तार से धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रही थीं । अचानक चोटी पर मौजूद धुंध फिसलती हुई नीचे उतर आई और वे दोनों आकृतियां दिखनी बंद हो गई ।

यह देखकर ऑडेल कैंप-छः की ओर रवाना हो गया । उसने कैंप पहुंचकर साथ लाया सामान वहां रखा और फिर ऊपर की ओर चढ़ाई करने लगा, फिर थोड़ा ऊपर चढ़कर इंतजार करने लगा । कोई भी पहाड़ी से नीचे नहीं आया । ऑडेल नीचे उतरकर कैंप-पांच पहुंचा, उसने वह रात वहां अकेले रहकर बिताई । अगली सुबह वह एक बार फिर कैंप-छः पहुंचा, परंतु वहां कोई भी न था । ऑडेल यह देखकर अकेला ही ऊपर की ओर चढ़ने लगा ।

जब तक उसके फेफड़े उसका साथ देते रहे, वह चढ़ता रहा, पर इतने ऊपर आने के बाद भी उसे कोई नजर नहीं आया । मेल्लोरी और डरविन इसके बाद फिर कभी न दिखे । सन् १९२४ के बाद तिब्बत ने हर तरह से विदेशियों का प्रवेश निषेध कर दिया । अगले किसी अभियान के लिए सन् १९८३ तक रुकना पड़ा । १९९८ के उस साल में पर्वतारोहियों ने एवरेस्ट संबंधित अनेक जानकारियां एवं तथ्य इकट्ठे किए । हालांकि खराब मौसम की वजह से कोई भी एवरेस्ट की चोटी को विजित न कर सका, परंतु अपनी खोज के दौरान पर्वतारोहियों को बर्फ और पत्थरों की एक चट्टान के पास बर्फ तोड़ने वाली एक कुल्हाड़ी प्राप्त हुई । शायद शिखर की ओर अपनी चढ़ाई के दौरान मेल्लोरी या इरविन में से किसी ने कुल्हाड़ी वहां गिरा दी हो, या फिर ऐसा भी हो सकता था कि एवरेस्ट की चोटी विजित करने के उपरांत उन्होंने कुल्हाड़ी को चोटी पर एक यादगार के रूप में गाड़ दिया हो और पिछले नौ वर्ष की हवाओं ने उसे नीचे गिरा दिया हो । खैर, सच्चाई जो भी रही हो, उसे अब कौन बता सकता था ?

स्मिथ और शिपटन ने सन् १९३८ में एवरेस्ट विजित करने के उद्देश्य से दूसरा प्रयास किया, पर चोटी के लगभग करीब पहुंच चुके इन लोगों को दुर्भाग्यवश वापस लौटना पड़ा । इसके बाद प्रयास करने वालों में टिलमैन एवं लोयड प्रमुख रहे, परंतु विशाल एवरेस्ट की शक्ति के आगे इनके प्रयास भी बौने साबित हुए । एवरेस्ट को विजित करना इनकी शक्ति से बाहर की चीज साबित हुई ।

इसके बाद एवरेस्ट विजित करने का ख्वाब लेकर दो स्विस अभियान दल इस क्षेत्र में उतरे । इस बार सन् १९५२ में उन्होंने नेपाल के रास्ते से प्रवेश किया । गत वर्ष के अभियान के दौरान एरिक शिपटन के दल ने यह पता लगा लिया था कि पश्चिमी कूम चढ़ाई चढ़ने के उद्देश्य से उतना दुर्गम अथवा असंभव नहीं था, जितना कि मेल्लोरी ने सोचा था । स्विस दल अपने प्रयास से ८४७५ मीटर की ऊंचाई चढ़कर लगभग एवरेस्ट शिखर पर पहुंच चुका था । उनके इस प्रयास में तेनजिंग नोर्गे नामक एक विलक्षण शेरपा भी शामिल था । तेनजिंग का एक ही ख्वाब था कि वह एवरेस्ट के शिखर पर खड़ा हो ।

अपने इस सपने को साकार करने का मौका उसे कर्नल जॉन हंट के निर्देशन में जाने वाले ब्रिटिश दल के साथ शामिल होने पर मिल ही गया । सन् १९५३ में अपने अभियान पर रवाना होने वाले इस दल के पास हर वह जरूरी साजो-सामान था, जो एवरेस्ट जैसे दुर्गम एवं लगभग अविजित पहाड़ को विजित करने के उद्देश्य से आवश्यक था ।

हंट ने सर्वप्रथम बोर्डिल्लोन एवं इवान्स को आगे रवाना किया । ये दोनों ऑक्सीजन की आपूर्ति करने वाले उपकरणों से लैस थे । इन दोनों ने दक्षिणी कोल के शिखर अर्थात् ७७५५ मीटर की ऊंचाई से अपनी चढ़ाई आरंभ की । इनकी चढ़ाई और निशानियां निःसंदेह पीछे आने वाली टीम एडमंड हिलेरी एवं शेरपा तेनजिंग नोर्गे के लिए एक नक्शे का कार्य करतीं ।

हंट एवं शेरपा नामग्याल इनके पीछे-पीछे चलने लगे । इनका उद्देश्य साजो-सामान को कैंप-नौ तक पहुंचाना था, जहां से हिलेरी एवं तेनजिंग को अपनी चढ़ाई शुरू करनी थी । अपने अथक प्रयासों के बाद भी ये आगे न बढ़ सके । आखिरकार थक कर ८१७५ मीटर की ऊंचाई पर उन्हें कैंप लगाना पड़ा ।

परंतु बोर्डिल्लोन एवं इवान्स ने धीरे-धीरे ही सही, पर अपनी चढ़ाई को जारी रखा । और आखिरकार वे लोग ८४८१ मीटर की ऊंचाई पर स्थित दक्षिणी शिखर पर पहुंच ही गए । इस बिंदु से आगे देखने पर बर्फ से ढंकी एक विशाल चट्टान दृष्टिगोचर हो रही थी । इसकी खड़ी चढ़ाई अपनी पूरी सुंदरता एवं कठोरता के साथ अडिग पड़ी थी । यह वह दृश्य था, जिसे किसी भी मानव आंख ने पहले कभी नहीं देखा था । माऊंट एवरेस्ट की शिखर बिंदु अब उनकी आंखों के सामने था । सामने एवरेस्ट का शिखर था, पर दोनों पर्वतरोही मन और तन से इतना अधिक थक चुके थे कि बर्फ की उस आखरी दीवार को पार करना उनके बस की बात न थी । दोनों लौट पड़े ।

हिलेरी और तेनजिंग ने अपने साथियों बोर्डिल्लोन एवं इवान्स के नक्शे कदम पर अपनी चढ़ाई आरंभ की । हवा ने हर वो निशान मिटा दिया था, जो उनके लिए मददगार हो सकता था । इतने पर भी उन्होंने हिम्मत न हारी । दोनों उस चमकदार सफेदी में अपनी राह बनाते हुए आगे बढ़ने लगे । प्रातः ९ बजे दक्षिणी शिखर पर पहुंच गए । अब सवाल था, किस तरह से सामने मौजूद उस बर्फ एवं चट्टान से बनी दीवार को विजित किया जाए ?

काले पत्थरों की उस चट्टान के दीवार पर जमी बर्फ के आसपास की ठोस बर्फ को कदम-दर-कदम पर काटते हुए हिलेरी ने पहले आगे बढ़ना शुरू किया । इस खतरनाक चढ़ाई को करीब एक घंटे तक चढ़ने के बाद दोनों के सामने १२ मीटर ऊंची एवं बिल्कुल सीधी खड़ी चट्टान की एक दीवार थी । यह चट्टानी दीवार अपनी चिकनाई में किसी कांच को भी मात दे रही थी । हिलेरी ने इस दुर्गम कठिनाई का अवलोकन शुरू कर दिया ।

उसके कंधों पर बंधे ओपन सर्किट उपकरण से हवा के साथ पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन की शक्ल में उसके फेफड़ों तक पहुंच रही थी । पहाड़ की एक तरफ बर्फ थी, तो दूसरी तरफ पूर्ण खालीपन दिख रहा था । बर्फ की कंगूरेनुमा उस आकृति और चट्टान के बीच एक दरार थी ।

करो या मरो की तर्ज पर हिलेरी उस दरार में समा गया । पीठ पीछे उन बर्फीले कंगूरों का सहारा लेता हुआ वह कदम-दर-कदम ठोकरें मारता ऊपर चढ़ता रहा । किसी भी पल बर्फ अपने स्थान से हट सकती थी, जिसके नतीजे बड़े भयंकर होना तय थे, परंतु सौभाग्य से बर्फ अपेक्षाकृत मजबूत निकली । हिलेरी धीरे-धीरे चढ़ता हुआ उस चोटी पर पहुंच गया, फिर तेनजिंग भी उसकी राह का अनुसरण करता हुआ ऊपर पहुंचा ।

दोनों थकान से चूर हो चुके थे, तो भी एक-दूसरे को सहारा देते हुए चढ़ाई चढ़ते रहे । अचानक हिलेरी ने महसूस किया कि हर चीज उसे काफी नीचे की तरफ नजर आने लगी थी । पूर्वी रॉगबक ग्लेशियर दूर नीचे दिख रहा था, हर चीज और हर पहाड़ छोटा नजर आ रहा था । इस तरह २९ मई, १९५३ की सुबह ११ बजकर ३० मिनट पर एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे दुनिया की छत माउंट एवरेस्ट पर पहुंच ही गए ।

उन्होंने एवरेस्ट के शिखर से चित्र लेने शुरू किए । पूरा वातावरण आश्चर्य, हर्ष एवं आनंदातिरेक से भर गया था । वे दोनों एवरेस्ट को जीत चुके थे । तेनजिंग ने अपनी आस्था एवं धर्म के अनुसार एवरेस्ट शिखर की बर्फ पर खाने की कुछ साम्रगी रखी । उधर हिलेरी ने हंट द्वारा दिए गए क्रॉस चिह्न को वहां उच्चतम बिंदु पर रख दिया । दोनों ने वापस रवाना होने से पहले आखिरी बार चारों तरफ देखना शुरू किया । वे ऐसी किसी चीज की तलाश में थे, जो शायद मेल्लोरी एवं इरविन के बारे में कुछ बताती, जिन्होंने शायद उनसे भी पहले एवरेस्ट को विजित किया हो ! पर, ऐसा कोई निशान या चीज वहां न थी । उनकी आंखों के आगे केवल और केवल बर्फ ही थी ।

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