अरूण कुमार शर्मा द्वारा लिखित
Tibbat Ka Rahasyamay Naag Vaasukee Math Aur Narabalee
तिब्बत शुरू से ही एक रहस्यमय देश रहा है । आज भी लोग इससे पूरी तरह परिचित नहीं है । अपरिचित होने का एकमात्र कारण है उसकी दुर्गमता । दक्षिण और पश्चिम की ओर से तिब्बत हिमालय को दुर्गम पर्वतमालाओं से घिरा है । ल्हासा से १०० मील की दूरी पर जो विशाल भूमि है, वह तिब्बत को और भी दुर्गम और रहस्यमय बनाये हुए है । यह संसार का सर्वोच्च पठार है । समुद्र की सतह से इसकी ऊँचाई लगभग १६,५०० फुट है । यही कारण है कि साल में आठ महीने तिब्बत की भूमि बर्फ से ढकी रहती है |
तिब्बत जाने के लिए दो रास्ते हैं – पहला है कश्मीर होकर और दूसरा है दार्जिलिंग होते हुए । इन दोनों रास्तों से तिब्बत की दूरी ३६० मील है । बीस-बीस हजार फुट ऊँची जोतों को पार करके एक महीने में ल्हासा पहुँचा जा सकता है । तिब्बत बौद्ध धर्मावलम्बी देश है । योग और तंत्र-मंत्र की गोपनीयता और साधना की दृष्टि से वह अत्यन्त रहस्यमय क्षेत्र है । वहाँ कम से कम छः-सात सौ बौद्धमठ हैं । कुछ मठ तो इतने बड़े हैं कि उनमें हजार-हजार से भी अधिक बौद्ध भिक्षु निवास करते हैं ।
वहाँ कुछ तांत्रिक मठ भी हैं । विशेषतः कापालिक तांत्रिकों के । आदि शंकराचार्य द्वारा प्रताड़ित और वैदिक धर्म से प्रभावित तत्कालीन कापालिक सम्प्रदाय के आचार्यों ने उन मठों की स्थापना अपने धर्म-सम्प्रदाय और साधना की गोपनीयता की रक्षा के लिए की थी । वे मठ तिब्बत के उत्तरी प्रान्त में हिमालय की दुर्गम घाटियों में हैं, जहाँ साधारण लोगों का पहुँचना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव भी है ।
वैदिक धर्म और संस्कृति के समान ही तांत्रिकों का भी धर्म और संस्कृति है । तांत्रिक साधना अत्यन्त गुप्त और रहस्यमय है । वह एकमात्र शक्ति-साधना है । उसका आन्तरिक रूप पूरी तरह योग पर आधारित है ।
तांत्रिक साधना के कुल सोलह मार्ग हैं, उन्हीं में से एक है कापालिक साधना मार्ग । इस मार्ग के साधक शक्ति के साथ शिव के भी भक्त होते हैं । विपरीत रति काली उनकी इष्ट देवी होती हैं । वे लाल वस्त्र पहनते हैं, सिर पर जटा-जूट रखते हैं, मस्तक पर लाल सिन्दूर का गोल टीका और त्रिपुण्ड धारण करते हैं तथा गले में रुद्राक्ष की माला के साथ नर-मुण्ड भी पहनते हैं । उनका साम्प्रदायिक चिह्न भी नरमुण्ड ही है । वे अपनी साधना पंच मकार से करते हैं । उनके तांत्रिक अनुष्ठान में ‘नरबलि’ का विशेष महत्व होता है इसी प्रकार सभी तात्रिक साधनाओ मे शव साधना का विशेष महत्व है और तिब्बत इस साधना का प्रमुख केन्द्र है ।
तिब्बत के जिस रहस्यमय मठ का वृत्तान्त मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ उसमें नर-बलि और शव साधना दोनों होती थी । वह मठ एक प्रकार से उम्र और उन्मत्त कापालिकों का रहस्यमय केन्द्र था ।
योग-तंत्र की रहस्यमयी एवं गोपनीय साधनाओं से परिचित होने तथा वहाँ प्रच्छन्न रूप से निवास करने वाले उच्चकोटि के योगियों और तांत्रिकों से भी परिचित होने के लिए मैने तिब्बत की जीवन मरन दायिनी हिम यात्रा की थी, मै कुल तीन साल तिब्बत में रहा । इस अवधि में मैंने वहाँ जो अनुभव किया और जो कुछ देखा-सुना, यदि वह सब लिपिबद्ध करू तो सचमुच महाभारत जैसा एक ग्रंथ तैयार हो सकता है । फिर भी मैंने इस संबंध में “योगी और तांत्रिक का रहस्य देश तिब्बत” नामक एक किताब अवस्य लिखी | तिब्बत मे मेरे पथ प्रदर्शक थे – एक तात्रिक लामा उनके नाम डुप्पा लामा था उनसे मेरा परिचय ग्याची मे हुआ था, उस समय मे ब्रिटिश सरकार का एक प्रतिनिधि रहा करता था | डुप्पा लामा ने काफी प्रयत्न करके मूझे तिब्बत मे प्रवेश की अनुमति दिलवायी थी, जब मैंने तिब्बत की हिम भूमि मे पैर रखा |
उस समय सारे शरीर मे एक सिहरन सी दोड़ गयी, चारो तरफ मीलो ऊची हिमालय की चोटिया खड़ी थी आसमान को चुनौती देती हुई | क्षितिज की ओर फैला हुआ दुर्गम हिमाच्छादित पहाड़ी इलाका, जिसे देखकर ही मन मे आतंक की अनुभूति होती थी | सामने मीलो तक फैली हुई हिम घाटी और उसके बाद बर्फ से ढकी चोटिया, जिनकी पृष्ठभूमि मे था, सुंदर नीला आकाश | अद्भुत दृश्य था |
डुप्पा लामा ने कहा – “इस घाटी के बाद पहाड़ों की तलहटी में वह मठ है, जिसकी आपने चर्चा की थी । उसका नाम वासुकी मठ है । कभी यह भयंकर कापालिकों की गुप्त साधना का केन्द्र था, मगर अब पिछले दो सौ वर्षों से वीरान पड़ा है । न उसमें कोई रहता है और न तो साधना-उपासना ही होती है ।“
तीन दिन की यात्रा करने के बाद मैं पहाड़ों की तलहटी में पहुँचा । चारों ओर साँय-साँय हो रहा था । वातावरण में एक अबूझ-सी शून्यता भरी थी । वहीं भारतीय संस्कृति के इतिहास में प्रसिद्ध कापालिक सम्प्रदाय का मूक-साक्षी, अपने समय में तूफानी हलचल मचा देने वाली भयंकर कठोर और तामसिक तंत्र-साधना का प्रतीक नाग वासुकी मठ खण्डहर जैसा होकर भी अतीत की स्मृति के रूप में बाँकी भंगिमा से सिर ऊँचा किये खड़ा था ।
काफी बड़ा मठ था वह । लम्बे-चौड़े विस्तृत आँगन के चारों ओर छोटे-छोटे साधना गृह बने थे और बीच में काफी ऊँची प्रस्तर वेदी पर लगभग बारह फुट लम्बी एक प्रस्तर प्रतिमा स्थापित थी । वह प्रतिमा शायद किसी तांत्रिक देवी की थी । वह जितनी भव्य थी, उतनी ही भयंकर भी थी ।
उस मूर्ति का मुख दस फण वाले सर्प का था । उसके चार हाथ थे । ऊपर वाले दो हाथों में खड्ग एवं नागपाश था और नीचे के हाथों में खप्पर और नरमुण्ड । गले में नाग- माला के साथ नरमुण्डों की भी माला थी, जो काफी नीचे तक झूल रही थी । प्रतिमा का एक पैर नग्न पुरुष की और दूसरा पैर नग्न स्त्री की छाती पर टिका था और ठीक उनके नीचे तंत्र की प्रसिद्ध हाकिनी-डाकिनी और साकिनी की मूर्तियाँ स्थापित थीं । सामने नर- बलि देने वाला यूथ था ।
मठ के भीतर साँय-साँय हो रहा था । एक विचित्र-सी उदासी और अबूझी खिन्नता भरी थी पूरे मठ में । लाल पत्थरों से बनी उस शानदार गढ़ी जैसे मठ की धूल से अटी सीढ़ियाँ चढ़ते समय लगा, जैसे काफी लम्बे अरसे से कोई वहाँ न आया हो । टूटे-फूटे जर्जर दालानों-बरामदों में प्रवेश करते ही दहशत से भर उठा मन । मुझे म्लान, निस्तब्ध मठ में भयमिश्रित अनुभूति होने लगी । मुझे उस म्लान, निस्तब्ध धूल से सनी टूटी-फूटी बुर्जियों पर घूमते समय हर क्षण यही लगता था कि रुँधी हुई हवा की उस अवशता के बीच-लाल रेशमी परिधान में-पैरों में खड़ाऊँ और गले में रुद्राक्ष एवं नरमुण्डों की माला पहने, माथे पर सिन्दूर का गोल टीका और त्रिपुण्ड लगाये कोई भयंकर आकृति-जूटधारी कापालिक संन्यासी धीमे-धीमे चलता हुआ अतीत के जीर्ण-शीर्ण काले पर्दे को उघार देगा और सहज ही उस डरावने अँधियारे वातावरण में मन-प्राणों को एकबारगी स्तम्भित कर देगा । मगर कोई आया नहीं । मैं सतर्कता से मठ में घूमता रहा, पर कोई अनहोनी नहीं हुई ।
सूक्ष्म शरीरधारी तांत्रिक आकाशमार्ग से उन उजाड़ और सुनसान मठों में किसी निश्चित समय पर आते हैं, पर उन्हें न कोई देख सकता है और न उनकी पूजा-साधना आदि को ही । मेरे मस्तिष्क में सहसा वह बात कौंध गई – क्या यह मठ भी ऐसा ही है ?
उसी दिन चार मील दूर एक गाँव में जाने वाला था । मेरे ठहरने की व्यवस्था उसी गाव मे थी पर थोड़ी ही देर बाद नीला आकाश काले भूरे बादलो से अट कर काला हो गया । निस्तब्धता और अधिक गहरी हो गयी । खण्डहर जैसा मठ अंधेरे में अतीत पर सिर धुनता-सा प्रतीत होने लगा । गहन निःश्वास जैसे हवा हाहाकार करता हुई मठ की दीवारों से टकराने लगी ।
अब क्या होगा ? बुरी तरह फँस गया था मैं उस मठ में । रात यहीं गुजारनी पड़ेगी – यह सोचकर एक बार दिल दहल उठा । सामान के नाम पर मेरे पास सत्तू की पोटली, एक लोटा और दो कम्बल भर थे । आखिर पश्चिम वाले बरामदे से सटे एक कमरे में फर्श पर कम्बल बिछा कर मैं लेट गया । थोड़ी ही देर में तूफानी हवा के साथ तेज वर्षा शुरू हो गयी । रात धीरे-धीरे सरकने लगी मुझे कब झपकी आ गयी ओर कब मै गहरी नीद मे सो गया पता न चला बैठा ।
अचानक मठ में निस्तब्ध वातावरण में एक भयंकर चीख गूँज उठी । चौंक कर मैं उठ बैठा । किसी नारी-कण्ठ से निकला था वह आर्तनाद ! चारों तरफ आँखें घुमा कर अँधेरे में देखा मगर कुछ समझ में नहीं आया । उसी समय फिर चीख सुनाई पड़ी । मैं उठकर कमरे के बाहर निकल आया । कलाई घड़ी देखी-रेडियमयुक्त अंक हरी आग की तरह दमक रहे थे – बारह बजकर चालीस मिनट । मैं स्तब्ध रह गया । इतनी रात गये इस अंधकाराच्छन्न मठ में कौन चीख रहा है ? किसका था वह आर्तनाद ?
अचानक मेरी दृष्टि विशाल आँगन में बलि-यूथ पर पड़ गई । स्याह अँधेरे में भी वहाँ मैंने जो कुछ देखा, उससे सिहर उठा – बलि-यूथ के कठोर शिकंजे में एक नग्न युवती का सिर फँसा था । हाथ पीछे की ओर रस्सी से बँधे थे । पैर भी शायद बँधे थे । उसके पास ही ऊँची-चौड़ी काठी का काले रंग का दानव जैसा एक व्यक्ति खड़ा था । उसका सिर मुँड़ा हुआ था । आँखें गूलर के फूल की तरह लाल थीं । हाथ में एक भयंकर खड्ग लिये हुए था वह पिशाच ।
मैं आगे बढ़ें, इसके पहले ही वह भयंकर दृश्य अचानक मेरी आँखों के सामने से गायब हो गया और उसकी जगह दप् से चारों ओर प्रकाश हो गया । ऐसा लगा मानो सहसा सौ-सौ वाट के कई बल्ब जल उठे हों । थोड़ी देर बाद उस प्रकाश में एक दूसरा दृश्य उभरा बहुत ही विचित्र और अविश्वसनीय था वह दृश्य !
लम्बे-चौड़े विशाल आँगन में चारों तरफ लाल रंग की कालीन बिछी थी, जिस पर पचासों की संख्या में जटा–जूटधारी कापालिक संन्यासी बैठे हुए थे । उन सबके गलों में नरमुण्डों की मालाएँ थीं । मस्तक पर लाल सिन्दूर के टीके लगे थे । ऐसा लग रहा था मानो सभी ने गले तक शराब पी रखी हो । कोई किसी से बोल नहीं रहा था, पर अपनी-अपनी जगह नशे में सभी झूम रहे थे । सहसा मठ के किसी कोने में रखा नगाड़ा बजने लगा लगातार । बड़ी भयंकर आवाज थी नगाड़े की । सारे शरीर में रोमांच हो आया ।
फिसलती हुई मेरी दृष्टि तांत्रिक देवी की भयंकर प्रतिमा की ओर चली गयी । देखा तो प्रतिमा अब अलंकृत थी । रंग-बिरंगे फूलों और वस्त्रों से उसे खूब सजा दिया गया था । उस समय देवी के मुख-मण्डल पर एक विचित्र तेज दमक रहा था । उसके क्रूर भयावने नेत्र मुझे सजीव लगने लगे । सहसा जान पड़ा मानो उस प्रस्तर-प्रतिमा के होंठ भी फड़क रहे हों और किसी भी क्षण वह बोल पड़ेगी ।
प्रतिमा के ठीक सामने एक बड़ा-सा त्रिकोण हवन-कुण्ड बना था, जिसमें अग्नि प्रज्ज्वलित थी । कुण्ड के चारों तरफ बैठे हुए भयानक शक्ल के कापालिकों के होंठ इस प्रकार हिल रहे थे, जैसे वे कोई मंत्र पढ़ रहे हों । बीच-बीच में हवन-कुण्ड में मदिरा से सने मांस के टुकड़ों की आहुति भी छोड़ते जा रहे थे । कुण्ड से लाल-लाल लपटें निकल रही थीं, और वायुमण्डल में जलते हुए कच्चे मांस की दुर्गन्ध फैल रही थी । समीप ही भयंकर आकार-प्रकार का एक लम्बा-सा खड्ग भी रखा हुआ था ।
एकाएक मुझे चेत आया । बाप रे, यह तो कापालिकों का भैरवी-पूजा और नर-बलि का ढंग है । मैंने चीखना चाहा, मगर कण्ठ से आवाज ही नहीं निकली । गुम-सुम खड़ा रह गया अपनी जगह पर । सहसा नगाड़े की भयंकर आवाज तेज हो गयी और उसके साथ ही मठ के फाटक पर शोरगुल सुनाई पड़ा । उधर देखा तो एक सजी हुयी पालकी भीतर आ रही थी, जिस पर रत्नजड़ित रेशमी पर्दा पड़ा हुआ था ।
कौन होगा इस मूल्यवान पालकी में ? फिर सोचा, होगा कोई कापालिकों का गुरु । मगर नहीं, दूसरे ही क्षण मेरा भ्रम टूट गया । हवन-कुण्ड के पास लाकर पालकी जमीन पर रख दी गयी । उसके बाद हे भगवान् ! यह क्या देख रहा था मैं ! पालकी का रेशमी पर्दा धीरे से हटा । उसमें से एक युवती बाहर निकली । उसकी उम्र अठारह वर्ष से अधिक नहीं थी । अनिंद्य सुन्दरी थी वह-सुगठित देह, चम्पई रंग, पुष्ट-उन्नत वक्ष, नितंबों तक लहराती काली-घनी केश-राशि, मोर जैसी आँखों में काजल की तीखी रेखाएँ, अनार के फूल जैसे कोमल लाल होंठ । उसके गले में हीरे-मोतियों की मालायें पड़ी हुई थीं ।
इतना रूप, ऐसा अनिर्वचनीय सौन्दर्य और ऐसा उद्दाम यौवन किसी एक ही नारी में हो सकता है – इसकी कल्पना भी मैंने कभी नहीं की थी । पालकी से निकल कर उस युवती ने एक बार चारों तरफ देखा, फिर हवन-कुण्ड के सामने रखे मखमल के आसन पर बैठ गयी ।
“राजकुमारी सी-च्यांग की जय !” सभी कापालिक एक साथ बोल पड़े । कहाँ की राजकुमारी हैं यह ? समझ में नहीं आया । कापालिकों की तांत्रिक क्रियाओं से मैं पहले से ही कुछ परिचित था । उनकी साधना-विधि मैंने कहीं किसी ग्रन्थ में पढ़ी थी, इसलिए समझने में देर नहीं लगी – कापालिकों की भैरवी-पूजा ही थी वह ।
राजकुमारी सी-च्यांग की तांत्रिक विधि से पूजा होने लगी । पूजा के बाद वहाँ एक बड़ा-सा सोने का घड़ा लाकर रखा गया । उस घड़े में सुरा भरी हुई थी । प्रधान कापालिक ने उसमें से एक स्वर्ण-पात्र में सुरा निकाल कर राजकुमारी को दिया और पीने का आग्रह किया । राजकुमारी धीरे-धीरे मदिरा पी गयी । उसके बाद सब कापालिकों ने एक साथ सुरा-पान किया । अन्त में खड्ग की पूजा हुई, फिर बलि-यूथ पर घी का दीप जला सहसा लम्बा-चौड़ा भयंकर आकृति वाला एक व्यक्ति राजकुमारी के पीछे आकर खड़ा हो गया और उसने देखते-ही-देखते राजकुमारी सी-च्यांग के दोनों हाथों को पीछे दिया गया ओर कस कर बाँध दिया ।
एकाएक राजकुमारी के मुँह से कातर चीख निकली, पर वह नगाड़े की आवाज में ड़ूब गयी अपने को बंधक मूक्त करने के लिए वह बराबर छटपटा रही थी, लेकिन निष्फल रही । फिर राजकुमारी को जबरदस्ती लाकर ‘बलि-यूथ’ के सामने खड़ा कर दिया गया और उसका सिर शिकंजे में फँसा दिया गया । मैं समझ गया कि राजकुमारी को धोखा देकर लाया गया है और अब उसकी बलि दी जाएगी । अब मेरे सामने पहले वाला दृश्य था । राजकुमारी बराबर चीख रही थी । रो रही थी । विलाप कर रही थी । उसके करुण क्रन्दन से वातावरण गूँज रहा था मगर उसे सुनने वाला वहाँ मेरे सिवा और कोई नहीं । सभी कापालिक उन्मत्त होकर नाच रहे थे और घड़े से निकाल-निकाल कर सुरा पी रहे थे । वह वीभत्स और तामसिक दृश्य देख कर मेरे सारे शरीर में सिहरन समा गयी । एकाएक मैं चीख पड़ा और जोर से चिल्ला कर बोला, “छोड़ दो राजकुमारी को!” मगर मेरी ओर किसी का ध्यान नहीं गया।
अब क्या किया जाय ?
मैं असहाय की तरह राजकुमारी को देखता रहा । इतने में बलि देने वाला वह दानव भी आकर वहाँ खड़ा हो गया । उसके हाथ में चमचमाता हुआ भयंकर खड्ग था । उसने राजकुमारी के मस्तक का स्पर्श किया फिर उसे प्रणाम किया । राजकुमारी के भय-विस्फारित नेत्रों में जाने कितनी कातरता थी । जैसे वह नेत्रों की मूक भाषा में कह रही हो – “मुझे क्यों मार रहे हो ? मैंने क्या बिगाड़ा है तुम लोगों का ? तंत्र-मंत्र के नाम पर एक निस्सहाय युवती की बलि देकर तुम सबको आखिर कौन सा स्वर्ग-फल मिलेगा?”
अब मुझसे नहीं रहा गया । आखिर मैं दौड़ कर राजकुमारी के पास पहुँचा और उसकी बलि का विरोध करने लगा । मैं किस प्रेरणा से और किस शक्ति से वह विरोध कर रहा था – यह स्वयं मुझे भी ज्ञात नहीं था । एक कापालिक संन्यासी, जो अन्य कापालिकों का गुरु लगता था, झुक कर मेरी ओर देखने लगा । उसके नेत्र लाल और खिंचे से थे । नाक तिरछी थी । गालों की हड्डियाँ उभरी हुई थीं । वह झुक कर मेरी तरफ देखने लगा तो मैं भी टकटकी बाँधे उसकी तरफ देखता रह गया । उसने मुझको सिर से पैर तक निहारा फिर बलि देने वाले व्यक्ति को कोई इशारा किया, जिसका परिणाम तुरन्त सामने आया । मन-प्राण को कँपा देने वाला एक भयंकर आर्तनाद गूँज उठा वातावरण में । फिर जो दृश्य देखा, वह अत्यन्त लोमहर्षक और हृदय-विदारक था ।
राजकुमारी का कटा हुआ सिर उस तांत्रिक देवी की प्रतिमा के चरणों पर पड़ा था और निष्प्राण काया भूमि पर छटपटा रही थी । मैं जोर से चिल्ला पड़ा, “खून खून” आँगन की धरती राजकुमारी सी-च्यांग के खून से डूब गयी थी । मैं लपक कर राजकुमारी की निष्प्राण काया से लिपट गया और फूट-फूट कर रोने लगा । ऐसा लगा जैसे जनम-जनम से मैं राजकुमारी से परिचित रहा होऊँ और वह मानो मेरी कोई अपनी सगी है । खून से मेरा शरीर भींग उठा – मगर मैं शव से लिपटा रोता ही रहा । फिर न जाने कब उसी अवस्था में बेहोश हो गया । मेरी बाह्य चेतना एकदम लुप्त हो गयी ।
और जब फिर चेतना लौटी तो सवेरा हो चुका था । तुषारपात हो रहा था और मैं बर्फ से ढँक गया था । चेतना लौटते ही रात के सारे दृश्य एक-एक कर मानस में उभर आये । एकाएक मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी चीज से लिपटा हुआ था । वह मेरा भ्रम नहीं था । मैं सचमुच एक नर-कंकाल से पूरी रात लिपटा रहा ।
क्या वह राजकुमारी सी-च्यांग का ही कंकाल था ? क्या रात में जो कुछ मैंने देखा वह कापालिकों की प्रेत-लीला थी ?
जी हाँ ।
वह कंकाल राजकुमारी का ही था, जिसके साथ हर अमावस्या की रात भयंकर प्रेत-लीला के रूप में दो सौ वर्ष पुरानी तांत्रिक साधना अनुष्ठित होती थी ।
बाद में विस्तार से मालूम हुआ । डुप्पा लामा ने ही मुझे सब कुछ बतलाया था । सी-च्यांग भोट राज्य की इकलौती राजकुमारी थी । भोटिया भाषा में ‘च्यांग’ का अर्थ होता है – गुलाब का फूल । राजकुमारी च्यांग वास्तव में गुलाब की तरह कोमल और सुन्दर थी । वह राजकुमार मस्तांग-स्टेट से प्रेम करती थी । राजकुमार भी च्यांग को दिल से चाहते थे । शीघ्र ही दोनों का विवाह भी होने वाला था, मगर रूपसी च्यांग की यौवन से भरपूर देहवल्लरी पर अचानक कापालिकों के गुरु की गृद्ध-दृष्टि लग गयी ।
वह पंच मकार की तामसिक क्रियाओं द्वारा कोई भयंकर तांत्रिक अनुष्ठान पूरा करना चाहता था, जिसमें किसी अक्षत नवयौवना सुन्दरी की आवश्यकता थी, इसके लिए सी-च्यांग से बढ़ कर भला और कौन सुपात्री मिलती ! सी-च्यांग को मठ में यह कह कर लाया गया था कि वह तांत्रिक दीक्षा ले ले, वर्ना एक वर्ष के भीतर विधवा हो जायेगी ।
सी-च्यांग भला कब चाहती कि उसका प्रियतम उससे बिछुड़ जाय, और वह भी विवाह होने के तुरन्त बाद । उस समय उसने सोचा भी नहीं होगा कि मगर जो होना था, वह होकर रहा । राजकुमारी के अक्षत यौवन का छक कर पान करने के बाद तंत्र-मंत्र के नाम पर दस फण वाली सर्वमुखी देवी के सामने उसकी बलि दे दी गयी ।
कापालिकों को सिद्धि मिली या नहीं, यह तो पता नहीं, मगर मुझे राजकुमारी का दो सौ साल पुराना कंकाल जरूर मिल गया । मेरे लिए उस कंकाल का बड़ा महत्त्व था । पुरातत्व की दृष्टि से भी उसका कम महत्त्व और मूल्य नहीं था इसलिए किसी तरह उसे मैं अपने साथ ही ले आया | मैं उस समय क्या जानता था कि कितनी विषम स्थिति में पड़ने वाला हूँ, नहीं तो उस कंकाल को कदापि न लाता । जब मैंने उसे लिए हुए तिब्बत की सीमा लाँघ कर भारत कापालिकों के गुरु, जिसने राजकुमारी की बलि दी थी की अतृप्त आत्मा मेरे पीछे पड़ गयी उस कंकाल को तो मैने पुरातत्व विभाग को सोंप दिया मगर उस भयांकर कापालिक गुरु की आत्मा से अपना पिण्ड नहीं छुड़ा सका मैं । उसकी लाल-लाल और खिची-खिची सी आँखें आज भी मुझे घूरती रहती हैं ।
न चाहते हुए और न माँगते हुए भी वह रौद्र दानव रूपी कापालिक मुझे तमोमयी तांत्रिक शक्ति प्रदान करता रहता है, मगर उसके बदले मुझे न चाहते हुये भी शराब पीनी पड़ती है । यह सब दीर्घकाल से चलता आ रहा है अब तो मेरा शरीर भी जर्जर हो गया है फेफड़े खराब हो गये है यक्ष्मा के जानलेवा भयांकर रोग से पीड़ित हु, कब किस समय शरीर छूट जायेगा कहा नहीं जा सकता |