टोडरमल का इतिहास | Todarmal

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टोडरमल | Todarmal


टोडरमल राजपूत क्षत्रिय था । पहले-पहल उसे
अकबर की सेना का
  लेखा रखने
के लिए एक छोटे पद पर नियुक्त किया गया था । एक विश्वसनीय पिट्ठू सिद्ध हो जाने पर
उसे पदोन्नति का अव
र मिला। मानसिह की तरह
उसे भी इस काम पर लगाया गया था कि वह अभिमानी राजपूत मुखियाओं को इस
बात के
लिए सहमत करे कि वे अपनी पु
त्रिया अक
के हरम के लिए प्रस्तुत करें । कई बार मानसिह और टोडरमल ने स्वयं
बल प्रयोग
करके ऐसी कन्याएँ अकबर के हरम के लिए प्रस्तुत की। १५६७ में टोडरमल को सिकन्दर शाह
को दबाने के लिए भेजा गया जो उन दिनों अयोध्या के क्षेत्र में परेशानी का कारण बना
हुआ था। टोडरमल को इस अभियान में और बाद में सौंपे गये अभियानों में सफलता मिली।
अबुल फ़जल की तरह टोडरमल भी कुशल सिद्ध हुआ। अकबर का कृपापात्र बनने का यह सबसे
अच्छा ढंग था । १५७६ में जब अकबर ने गुजरात
गया तब
टोडरमल को यह काम सौंपा गया कि गुजरातियों से इतना धन वसूल किया जाये जिससे अभियान
की पूर्ण क्षतिपूर्ति हो जाये
, और इसके
अतिरिक्त भी पर्याप्त सम्पत्ति शाही खजाने में जमा की जा सके। टोडरमल ने यह काम
इतनी कुशलता से किया कि गुजरात प्रदेश में
, जो
पहले ही दरिद्र था
| अकबर
के इतिवृत्त लेखकों के लिए यह आवश्यक था कि वे टोडरमल की वित्तीय प्रतिभा का
अत्युक्तिपूर्ण वर्णन करते
, क्योंकि वह
गरीब
,
पददलित और निःसहाय प्रजा से पैसा वसूल करता
था जिससे अकबर का शाही ख़जाना भरता था और अमीरों का पालन-पोषण होता था
, परन्तु
ऐसा कोई कारण नहीं है कि आज के लेखक भी उनका अन्धानुकरण करते हुए उन्हीं की शैली
में टोडरमल की “वित्तीय जादूगरी” की प्रशंसा करते
ले
जाएँ।

स्वतन्त्र विचारक विसेंट स्मिथ ने अपनी
पुस्तक में उचित ही लिखा है कि “राज्य में विधिवत् कर-निर्धारण की जिस व्यवस्था
के लिए अकबर और टोडरमल को इतना अधिक श्रेय दिया जाता है
, उसका
मुख्य उद्देश्य शाही राजस्व में वृद्धि करना था। अकबर बहुत लम्पट व्यवसायी था
, वह
उदार व दया
लू
व्यक्ति नहीं था । उसकी सम्पूर्ण नीति का मुख्य उद्देश्य यह था कि सत्ता और
सम्पत्ति को बढ़ाया जाये । जागीरों के सम्बन्ध में सभी व्यवस्थाओं
और घोड़ो मोहर
लगाने की
व्यवस्था
आदि सबका एक ही उद्देश्य था कि बादशाह की सत्ता
, गौरव-धन-सम्पत्ति
में वृद्धि की जाये। उसके तथाकथित प्रशासनिक सुधारों का
 सामान्य
जनता के
दैनिक
जीवन पर क्या प्रभाव पडा
, इसकी कोई तथ्यात्मक जानकारी नहीं
मिलती। हां
, इतना अवश्य है कि इन सब उपायों
को कार्यान्वित करने के बाद भी अकबर के शासन के अन्तिम भाग में
, १५८५
से १५६८ तक भयंकर अकाल पड़ा जिसके कारण उत्तरी भारत वीरान हो गया। टोडरमल द्वारा
बनाई गई भूमि-कर की जिस व्यवस्था की सामान्य भारतीय इतिहासों में इतनी अधिक
प्रशंसा की जाती है
, उसके सम्बन्ध में बदायूनी ने
अपनी पुस्तक में लिखा है कि “गरीब जनना से करों की यह वसूली इतनी सख्ती के
साथ की जाती थी कि लोगों को अपनी पत्नी और बच्चे बेच देने पडते थे । गुलाम बनाकर
उन्हें विदेशों में भेज दिया जाता था। राजा टोडरमल ने करोडियों को काबू में किया
, उनपर
विभिन्न प्रकार के जुल्म किये गए और उन्हें अत्याचारपूर्ण दण्ड दिये गए
, जिससे
कुछ करोड़ियों की मूत्यु तक हो गई जिन करोड़ियों को बन्दी बनाया गया उनमें से कुछ
की मृत्यु कारावास में ही हो गई उनके लिए किसी जल्लाद की आवश्यकता नहीं पड़ी और
किसी ने उनके लिए कफन जुटाने की भी परवाह नहीं की।

माता-पिता को इस बात की छूट थी कि वे लगान का
भूगतान करने के लिए अपने बच्चों को बेच सकते थे ।

इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि जुलाई १५८७ को रात
के समय ख
त्री
परिवार के एक व्यक्ति ने वैयक्तिक दुश्मनी के कारण टो
रमल
पर घातक प्रहार करके उसे घायल किया हो । उस व्यक्ति को अकाल और आपदा के समय
कत्ल
कर दिया गया। अबुल फ़जल ने टोडरमल का जो विवरण दिया है
, उस
पर टिप्पणी करते हुए ब्लोचमैन ने लिखा है कि “मुसलमानों का कृपापात्र बनने के
लिए टोडरमल किस सीमा तक आगे बढ़ जाता थी
, इसका
अनुमान इस बात में लगाया जा सकता है कि यद्यपि भारत में हिन्दुओं का भारी बहुमत था
और पुराने समय में वह लेखा-जोखा देशी भाषाओं में रखा जाता था
, परन्तु
टोडरमल ने पहली बार आदेश दिया कि “सल्तनत का सब हिसाब-किताब अब से फारसी में
लिखा जायेगा । इस तरह अपने स्वधर्मावलम्बी व्यक्तियों को अपने शासकों के दरबार की
भाषा सीखने को विवश कर दिया।”

        

टोडरमल ने मुसलमानों के पक्ष में काम किया, परन्तु
उसे इस बात का श्रेय देना होगा कि जीवन के अन्तिम क्षण तक वह कट्टर हिन्दू बना रहा।
उसे मुस्लिम धर्म में लाने के लिए उस पर प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से जो भी दवाव
डाले गए
,
उनका उसने फलतापूर्वक
प्रतिरोध किया। एक वार जब बह पंजाब में एक अभियान पर जाने वाला था
, तब
उसने देखा कि उसके घर के मन्दिर से सभी मूर्तियाँ और पूजा की सामग्री गायब थी । स्पष्टतः
मुसलमानों ने इस परोक्ष विधि से उसे यह बताने का प्रयत्न किया था कि वह हिन्दू
विधि से पूजा और प्रार्थना किये बिना रह सकता है। प्रार्थना करने के अवसर से वंचित
हो जाने की व्यथा के कारण बेचारा गरीब टोडरमल तीन दिन तक जल व अन्न ग्रहण नहीं कर
सका । अन्ततः उसे मूर्तियों की चोरी के मामले में मन को समझा लेना पड़ा। अपमान
, पीड़ा
और निरादर से तंग आकर टोडरमल ने त्याग-प
त्र दिया
और वह बनारस और हरिद्वार में जाकर रहने लगा
, परन्तु
उसे पुनः नौकरी पर
बुलाया गया। उसके बाद वह अधिक दिन जीवित नहीं
रहा। ५४ वर्ष की अ
व्स्था में नवम्बर १५८९ को लाहौर में उसका देहान्त हो
गया।
         

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