उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की कथा – सबसे बड़ा त्याग | उज्जैन का राजा विक्रमादित्य की कहानी | vikram aur betal hindi kahani
राजा विक्रम तेज-तेज कदमों से चला जा रहा था । वह शीघ्रातिशीघ्र श्मशान पहुंचना चाहता था । बेताल को उसने इस बार बड़ी मजबूती से पकड़ा हुआ था ।
बेताल मुस्कराया—”सुनो विक्रम, रास्ता सहजता से कटे इसीलिए मैं तुम्हें एक विचित्र घटना सुनाता हूं।”
बेताल कहने लगा –
गांधार देश में ब्रह्मदत्त नामक एक सम्पन्न नगर सेठ था । वह राजा का बड़ा प्रिय था । गांधार नरेश ने अपनी प्रजा के हित में अच्छे कानून बना रखे थे । उसके राज्य में सर्वत्र शान्ति थी । राजा एक पत्नीव्रता था । ऐसा ही नियम उसने अपने राज्य में भी बनाया हुआ था कि कोई एक से अधिक पत्नी नहीं रख सकता । किसी गैर की पत्नी को इस दृष्टि से देखना भी गुनाह था । उसकी इस व्यवस्था पर स्त्रियां बहुत खुश थीं । उसके राज्य में बड़ा सुख-चैन था ।
नगर सेठ ब्रह्मदत्त का एक पुत्र था । उसका नाम गुरुदत्त था । गुरुदत्त अत्यन्त सुन्दर युवक था । वह अविवाहित था । एक दिन की घटना सुनो राजा विक्रम –
गुरुदत्त सांयकालीन भ्रमण के लिए बाहर निकला और रास्ते में पड़ने वाले एक मंदिर के सामने रुक गया ।
अचानक मंदिर में से एक अत्यन्त रूपवती युवती बाहर निकली । गुरुदत्त उसे देखता ही रह गया । उस सुन्दरी ने भी गुरुदत्त को देखा तो लजा गई पर मुस्कराकर आगे बढ़ गई । गुरुदत्त बेहाल हो गया ।
वह वहीं से वापस घर आ गया और उस युवती के बारे में विचार करने लगा । ज्यों-ज्यों वह उस युवती के विषय में विचार करता, त्यों-त्यों उसकी बेचैनी बढ़ती जाती थी । अंत में जब उससे नहीं रहा गया तो उसने अपने इष्ट-मित्रों की सहायता ली और उस युवती का पता निकलवाया ।
तब जाकर पता चला कि वह युवती राज्य के एक सामन्त की पुत्री थी । उस युवती का नाम चन्द्रसेना था । यह सब पता चलने पर गुरुदत्त ने उसके परिवार में सन्देश भिजवाया कि वह उससे विवाह करना चाहता है ।
चन्द्रसेना के माता पिता ने अत्यंत नम्रता पूर्वक यह रिश्ता वापस कर दिया । इसका कारण था कि चन्द्रसेना का संबंध एक अन्य युवक जयकर्ण के साथ निश्चित हो गया था । यह समाचार सुनकर गुरुदत्त का मन बड़ा दुखी हुआ ।
उसका मन इतना उचाट हो गया कि वह संसार से वैराग्य लेने की सोचने लगा । तभी चन्द्रसेना की एक दूती उसके पास आई । दूती ने गुरुदत्त को चन्द्रसेना का एक पत्र दिया ।
पत्र में चन्द्रसेना ने गुरुदत्त से प्यार की बात को लिखा था और यह वायदा किया था कि विवाह के बाद वह किसी न किसी युक्ति से मिलेगी किन्तु जयकर्ण के साथ विवाह संबंध तोड़कर वह पारिवारिक क्लेश उत्पन्न नहीं करना चाहती थी ।
यह संदेश पाकर गुरुदत्त को मानो नया जीवन मिल गया । वह चन्द्रसेना के आने का इन्तजार करने लगा ।
उधर, कुछ समय बाद चन्द्रसेना का विवाह जयकर्ण के साथ संपन्न हो गया । चन्द्रसेना ने विवाह में किसी प्रकार की बाधा न डाली थी । सुहागरात के समय जयकर्ण ने चन्द्रसेना का हाथ पकड़ना चाहा, किन्तु चन्द्रसेना ने हाथ खींच लिया । इस पर जयकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने पूछा-“क्या बात है ?”
तब चन्द्रसेना ने जयकर्ण को बतलाया कि वह गुरुदत्त से प्यार करती है । यह सुनकर जयकर्ण मौन रह गया । चन्द्रसेना दूर खड़ी थी ।
“तुम उसके पास जाना चाहती हो ?”
“हां।” चन्द्रसेना बोली।
“जा सकती हो।” जयकर्ण ने कहा । वह चन्द्रसेना की ओर पीठ करके लेट गया ।
हे राजा विक्रम ! तब चन्द्रसेना प्रसन्नता के साथ गुरुदत्त के निवास की ओर बढ़ी । समय आधी रात का था । सब ओर सन्नाटा था । आभूषणों से लदी चन्द्रसेना चली जा रही थी ।
अचानक एक चोर की निगाहें उस पर पड़ीं । उसने चन्द्रसेना का रास्ता रोक लिया । चन्द्रसेना घबरा गई । वह गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगी कि अपने प्रेमी से मिलने जा रही है, वापस लौटने पर सारे आभूषण उसे दे देगी । इस समय वह उसको छोड़ दे ।
तब चोर ने पूछा-“क्या तुम अपने वचन पर कायम रहोगी ?”
“हां”
“तब मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करता हूं।”
चन्द्रसेना चोर को वचन दे, अपने प्रेमी गुरुदत्त के पास गई ।
‘अरे.. तुम…।” गुरुदत्त अचानक उसे अपने पास आया देखकर घबरा उठा ।
‘‘हां, मैंने अपने पत्र में लिखा तो था कि शादी के बाद मैं किसी भी प्रकार तुमसे आकर मिलूंगी ।
“विवाह हो गया।”
“हां।” चन्द्रसेना बोली।
गुरुदत्त उसका मुंह ताकने लगा । चन्द्रसेना बोली-“क्या देख रहे हो, प्यार करो ना।”
गुरुदत्त बोला—“नहीं । मैं प्यार नहीं कर सकता । राज्य का कानून तुमको मालूम है । फांसी की सज़ा है । तुम जयकर्ण की पत्नी हो।”
“तो क्या।” चन्द्रसेना घबरा गई।
“सुनो चंद्रसेना ! विवाह के पहले की बात और थी । फिर अब मुझमें समझ आ गई है।”
हे राजा विक्रम !चन्द्रसेना अवाक् रह गई। उसने अपने प्रेम की बड़ी दुहाई दी पर राजभय से गुरु दत्त न माना । अन्त में निराश चन्द्रसेना वापस लौट पड़ी ।
चोर उसे वापस आया देख खुश हो गया ।
उसे उदास रुआंसा देखकर बोला-“क्या बात हो गई ?”
चन्द्रसेना ने तब सारा हाल कह दिया । सुनकर चोर को दया आ गई । वह बोला— “तुम्हारी सच्चाई पर मैं बहुत खुश हूं । तुम वापस मेरे पास आ गईं । अब मैं तुम्हारे जेवर नहीं लूंगा । तुम वापस जा सकती हो ।”
राजा विक्रम ! चोर चन्द्रसेना को छोड़कर चला गया । तब चन्द्रसेना जयकर्ण के पास आई । उसे देखकर जयकर्ण बोला—“तुम क्यों आईं ?”
चन्द्रसेना ने सब बता दिया ।
जयकर्ण बोला–“अब मैं तुमको नहीं रख सकता । तुम्हारी जहां इच्छा हो, वहां जाओ, मैंने तुम्हें उसी क्षण त्याग दिया था।”
उसने चन्द्रसेना को त्याग दिया ।
इस प्रकार चन्द्रसेना कहीं की न रही । न पति मान रहा था, न प्रेमी तैयार था । अतएव लोक-लाज के भय से चन्द्रसेना ने कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली ।”
अपनी पूरी कहानी कहकर बेताल चुप हो गया ।
विक्रम बेताल के सवाल जवाब
बेताल के सवाल :
फिर कुछ देर बाद बोला- “अब न्याय करो राजा विक्रम “
‘इसमें क्या न्याय करना बेताल। चन्द्रसेना मर गई। जैसा किया, उसका फल पाया।”
“वह तो ठीक है। पर इसमें परोपकार किसका ज्यादा है । जयकर्ण का या कि उसकी अपनी पत्नी का । जिसको उसने उसके प्रेमी के पास भेज दिया या सोमदत्त का जिसने जयकर्ण की पत्नी को न अपनाया अथवा चोर का, जिसने गहने नहीं लिए।”
राजा विक्रम चुप रह गया।
‘बताओ राजा विक्रम।” बेताल बोला- “तुम्हारा न्याय क्या कहता है। इसमें किसका त्याग बड़ा है ? इसमें किसने निःस्वार्थ भाव से किस पर परोपकार किया है ?”
विक्रम चुपचाप चलता गया।
तुम्हारा न्याय क्या बोलता है। बड़े न्यायी हो तो कहो।
राजा विक्रमादित्य के जवाब :
बेताल की इस बात पर राजा विक्रम बोला—”सुनो बेताल ! बिना स्वार्थ के किया गया परोपकार ही सच्चा परोपकार है । अब जिसने बिना स्वार्थ के परोपकार किया, उसको श्रेष्ठ माना जाए ।
सुनो बेताल! इसमें चोर का त्याग सराहनीय है।”
“वह कैसे ?”
“वह ऐसे कि सबके त्याग के पीछे कोई न कोई कारण है। गुरुदत्त का त्याग राजभय के कारण था । जयकर्ण ने इसलिए उसे त्यागा कि उसका दिल पत्नी की चरित्रहीनता से टूट गया था । चन्द्रसेना अपने प्रेम के वशीभूत थी, बाद में बदनामी के भय से उसने आत्महत्या की । चोर ही एक ऐसा शख्स रहा, जिसका त्याग नि:स्वार्थ था । वह चाहता तो जेवर-गहने ले सकता था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया।”
बेताल बोला–“शाबाश राजा विक्रम! तुम्हारा न्याय धन्य है । एकदम ठीक न्याय किया है । और वह उछलकर कूद गया । भाग खड़ा हुआ । उसका भयानक हंसी फिर गूंज गयी । वह चिल्लाता रहा था—“राजा विक्रम! तुम्हारा न्याय संसार में अमर रहेगा।”
विक्रम क्रोध से तमतमा गया । वह बेताल के पीछे दौड़ा, पर तब तक बेताल पेड़ पर जाकर फिर मुर्दे के समान उल्टा लटक गया । राजा विक्रम फिर उसके पास नंगी तलवार लेकर पहुंच गया ।
राजा विक्रम फिर उसके पास पहुंचा और उसके बाल पकड़ कर खींचा और झटके से उसे खींचकर अपने कंधे पर लादकर आगे की ओर चल पड़ा ।
“तुम नाराज क्यों होते हो राजा विक्रम ! मैं तो तुम्हारे न्याय से बड़ा प्रसन्न हूं – तुम्हारा न्याय धन्य है । दरअसल, राजा विक्रम। मैं मुर्दा अवश्य हूं, मगर ज्ञान की बातें सुनना मुझे बड़ा अच्छा लगता है । इस कारण तुमसे बात कर रहा हूं । देखो, इस घने जंगल में अगले मोड़ पर तुम एक चमत्कार देखोगे । रुकना मत।”
विक्रम चलता जा रहा था । इस बार उसने सोच लिया था कि चाहे बेताल कुछ भी कहे, मगर वह नहीं बोलेगा ।
मोड़ आते ही अचानक उसके पांव रुक गए । बाईं ओर अनेक सुन्दर युवतियां नृत्य कर रही है साथ में संगीत के स्वर भी थे । वह अपूर्व सुन्दरियां थीं । यकायक वे सब राजा विक्रम के चारों ओर बिखर गई । राजा विक्रम हतप्रभ हो गया तभी उसको बेताल की चेतावनी याद आई कि रुकना नहीं है ।
वह तेजी से आगे बढ़ने लगा । बेताल बोला—”शाबाश राजा विक्रम। यदि तुम रुक जाते तो बड़ा अनर्थ हो जाता।”
“वे सुन्दरियां कौन थीं?” विक्रम ने पूछा।
“जंगल में यह सब चलता रहता है । यहां बन्धन नहीं होता । इसी कारण तो बड़े-बड़े बहादुर कदम नहीं रखते । तुम तो बहादुरों से भी बहादुर हो जो आ गए।” कहकर बेताल हंसने लगा । फिर क्षण भर बाद पुनः बोला—”ये सुन्दरियां चुड़ैलें थीं राजा विक्रम । अगर तुम रुक गए होते तो ये तुम्हें भून खा जातीं । पहले तो मौज लेतीं । फिर भून डालतीं।”
‘आते वक्त तो नहीं मिली थीं ? क्षण भर पूर्व मैं इसी रास्ते से गुजरा था।”
“ये इसी समय प्रकट होती हैं।” बेताल बोला–“सबकी सब भटकती आत्माएं हैं । इनमें कुछ महारानियां हैं और एक मेरी पत्नी भी है।”
“तुम्हारी पत्नी ?”
“हां।” बेताल बोला।
‘क्या वह तुमको नहीं पहचानती।”
“नहीं। मरने के बाद भला किसी का किसी से कोई रिश्ता रहता है । फिर वैसे भी वह महादुष्टा थी।” बेताल गंभीर हो गया ।
यकायक वह उछलकर फिर भाग खड़ा हुआ ।
‘ठहर जा बेताल ! मैं तुझे इस प्रकार नहीं छोडूंगा।” विक्रम तलवार लेकर उसके पीछे भागा मगर बेताल वृक्ष पर जाकर उल्टा लटक चुका था ।