विक्रम बेताल की कहानी – दोषी कौन | Vikram Betal First Story
“सुनो राजा विक्रमादित्य !” बेताल ने कहानी सुनानी शुरू की –
एक समय की बात है, वाराणसी में प्रताप मुकुट नामक एक अत्यन्त प्रतापी राजा राज करता था । उसके परिवार में उसकी पत्नी तथा एक पुत्र था । पुत्र का नाम ब्रजमुकुट था । ब्रजमुकुट की अपने राज्य के प्रधानमंत्री के पुत्र रत्नराज से गहरी दोस्ती थी । वे दोनों प्राय: साथ-साथ रहते, साथ-साथ खाते-पीते और साथ-साथ ही शिकार आदि पर जाते ।
एक समय की बात है कि वे दोनों शिकार खेलने एक घने वन में गए । वहां राजकुमार को एक हिरण दिखा जिसके पीछे उसने अपना घोड़ा सरपट दौड़ा दिया । मंत्री पुत्र पीछे रह गया, हिरण का पीछा करते-करते राजकुमार किन-किन दिशाओं में मुड़ता, कितनी दूर आ पहुंचा था,इसका उसे स्वयं भी पता न चला ।
चौंका तब जब एक बड़े ही सुन्दर उद्यान के करीब आते-आते उसका घोड़ा रुक गया और थकावट के कारण बुरी तरह हांफने लगा । राजकुमार ने देखा कि मृग भी उसकी नजरों से ओझल हो चुका था । राजकुमार ने घोड़ा वृक्ष के तने से बांध दिया और स्वयं भी उसी वृक्ष की छाया में विश्राम करने लगा ।
अभी उसे वहां बैठे थोड़ा ही समय गुजरा था कि एक पुरुष स्वर उसके कानों से टकराया – “ऐ राहगीर! तुम कौन हो और बिना आज्ञा इस उद्यान में कैसे घुस आए ? देखो, तुम जो कोई भी हो, तुरन्त यहां से चले जाओ – राजकुमारी संध्या पूजन के लिए यहां आने वाली हैं, यदि उन्होंने तुम्हें यहां देख लिया और नाराज हो गईं तो तुम्हारे साथ-साथ मैं भी मुसीबत में फंस जाऊंगा।”
“मैं अभी चला जाऊंगा भाई । तुम निश्चिंत रहो, राजकुमारी के आने से पहले ही चला जाऊंगा ।
वह युवक जो वास्तव में उद्यान का माली था, निश्चिंत होकर चला गया ।
राजकुमार भी उठकर अपने घोड़े की जीन दुरुस्त करने लगा ।
“राजन!” बेताल बोला – “संयोग देखो कि उसी समय राजकुमारी अपनी सखियों के साथ पूजा करने मंदिर की ओर निकल आई ।
राजकुमार ने उसे देखा तो देखता ही रह गया । उस पर नजर पड़ने के बाद यही हालत राजकुमारी की भी हुई । वह भी उसे देखती ही रह गई । फिर एकाएक ही वह चेतन हुई और सखियों के साथ मंदिर की ओर बढ़ गई । मंदिर में से पूजा करके जब वह निकली तब भी राजकुमार को उसी स्थान पर खड़े पाया ।
तब राजकुमारी ने उसकी ओर देखकर एक संकेत किया, उसने जुड़े में लगा कमल का फूल हाथ में लेकर कान से छुआया, फिर दांत से कुतर कर पांव के नीचे रखा – सबसे अन्त में उसने उसे उठाकर सीने से लगा लिया ।
फिर अपनी सखियों के साथ वह एक ओर को चल दी । उसके जाने के बाद राजकुमार ने ठंडी आह भरी और दीवाना सा हो उठा । राजकुमारी की मोहित सूरत लगातार उसकी आंखों में नाच रही थी । चाहकर भी वह उसकी स्मृति को भुला नहीं पा रहा था । फिर एकाएक ही ऐसा हुआ कि वह बड़ा ही उदास होकर वहीं एक वृक्ष के नीचे बैठ गया ।
कुछ ही समय गुजरा था कि उसका मित्र रत्नराज उसे खोजते-खोजते उसी दिशा में आ निकल,मित्र से मित्र के मन की बात छिपी न रह सकी । राजकुमार ने राजकुमारी की कमल के फूल वाली हरकत बयान कर दी ।
“वाह! वाह!!” ‘अरे क्या वाह-वाह । आखिर उसकी इस हरकत का मतलब क्या हुआ ?”
“मेरे मित्र ! इस प्रकार उसने तुम्हें परिचय सहित अपने दिल की पूरी बा बता दी। यानी वह तुमसे मोहब्बत करती है ।”
“तुम इस नतीजे पर कैसे पहुंचे मित्र। जरा मुझे भी तो कुछ बताओ।” उतावला-सा होकर राजकुमार ने पूछा ।
रत्नराज बोला – “सुनो मित्र ! पहले उसने जूड़े में से कमल का फूल निकालकर कान से छुआ दिया, इसका अर्थ है कि वह कर्नाटक राज्य की रहने वाली है, फिर उसने दांत से कुतरा, जिसका अर्थ हुआ कि वह राजा दंतवाद की पुत्री है । पांव तले दबाकर उसने अपना नाम बताया कि उसका नाम पद्मावती है । फूल को अपने सीने से लगाकर उसने इस बात का संकेत दिया है कि वह भी तुम्हें चाहती है ।”
यह जानकर ब्रजमुकुट की खुशी का ठिकाना न रहा । वह अपने मित्र से बोला —”मित्र! तब तो हमें शीघ्र ही कर्नाटक देश की राजधानी चलना चाहिए ।”
“चलो मित्र!” मित्र की स्वीकृति पाते ही राजकुमार ने अपना घोड़ा कर्नाटक देश की राजधानी की ओर दौड़ा दिया ।
हवा से बातें करते वे दोनों मित्र राजधानी में आ गए । वहां आकर रत्नराज ने पता किया कि राजकुमारी तक कैसे पहुंचा जा सकता है ? तब उन्हें पता लगा कि एक बूढ़ी मालिन है जिसने बचपन में राजकुमारी की धाय बनकर उसका पालन-पोषण किया था, वह दिन में एक बार राजकुमारी को देखने अवश्य ही जाती है ।
वे दोनों उस बुढ़िया के मकान पर जा पहुंचे । दरवाजे पर जाकर दोनों ने दस्तक दी । द्वार स्वयं बुढ़िया ने खोला -“क्या बात है ? कौन हो तुम लोग ?”
“हम परदेशी हैं माई और कुछ दिन यहां रुककर दंतवाद की नगरी देखने के इच्छुक हैं । क्या हमें एक-दो दिन आपके यहां ठहरने का स्थान मिल सकता है ?”
“अरे बेटा ! ठहरने के लिए तो तुम्हें किसी धर्मशाला या सराय में जाना चाहिए।” तनिक हैरत सी जाहिर करते हुए बुढ़िया ने कहा -“यहां क्यों आए हो ?”
मंत्री का पुत्र बड़ा चतुर था, फौरन बोला – “देखो माते ! हमारा संबंध पड़ोस के राजघराने से है…हमारे पास माल-असबाब की भी कमी नहीं है, इसलिए किसी सार्वजनिक स्थान पर रुकना हमें शोभा नहीं देगा।”
‘ओह !’ बुढ़िया सोचने लगी, फिर बोली -“देखो बेटा, यदि ऐसी बात है तो तुम यहां रुक जाओ, मैं इस बड़े मकान में अकेली ही रहती हूं, मेरे यहां कोई नौकर-चाकर नहीं है, इसलिए अपने कार्य तुम्हें स्वयं ही करने होंगे।”
“ठीक है मां। हमें स्वीकार है।”
इस प्रकार वे उस बुढ़िया के घर में ठहर गए । बुढ़िया का यह नियम था कि वह सुबह या शाम एक बार राजकुमारी को देखने महल में जरूर जाती थी ।
एक दिन मंत्री पुत्र ने बुढ़िया को प्रसन्न मुद्रा में देखा तो बोला-“मातें! क्या आप हमारा एक काम कर सकती हैं ?”
“क्या आप राजकुमारी तक हमारा एक संदेश पहुंचा सकती हैं ?”
‘राजकुमारी तक आपका संदेश… ।'” बुढ़िया सोच में पड़ गई, फिर न जाने क्या सोचकर उसने पूछा- “संदेश क्या है ?”
“आप राजकुमारी से केवल इतना कह दीजिएगा कि मंदिर के बगीचे में जिसे देखा था, वह आ पहुंचा है। “
“मगर बेटा, राजकुमारी नाराज हो गई तो… ?”
“नहीं मां, ऐसा कुछ नहीं होगा।”
और फिर बातचीत में चतुर मंत्री पुत्र ने संदेश ले जाने के लिए बुढ़िया को राजी कर ही लिया ।
बुढ़िया चली गई । मगर घंटे भर बाद जब वापस आई तो काफी घबराई हुई थी । आकर उसने बताया “बेटा! तुम तो कहते थे कि कुछ नहीं होगा, मगर मेरी तो जान के लाले पड़ गए- अब कल राजा मुझे न जाने क्या दण्ड दे।”
“आखिर हुआ क्या माते !” धैर्य से मंत्री पुत्र ने पूछा -“कुछ बताओ तो सही।”
“मैंने जब राजकुमारी को तुम्हारा संदेश दिया तो उसने हाथों पर चंदन लगाकर मेरे गाल पर तमाचा मारा और मुझे बाहर धकेल दिया।”
यह सुनकर राजकुमार बुरी तरह घबरा गया । किन्तु उसका मित्र रत्नराज खिलखिलाकर हंस पड़ा।
“अरे!” झुंझलाकर राजकुमार बोला- “तुम हंस क्यों रहे हो ?”
“मित्र ! तुम व्यर्थ ही घबरा गए। और माते, तुम भी मत घबराओ । दरअसल राजकुमारी ने इस प्रकार अपना संदेश भेजा है ।”
“संदेश ?”
राजकुमार और बुढ़िया आश्चर्य से उसका मुंह ताकते रह गए । “मित्र! राजकुमारी ने संदेश भेजा है कि पांच रोज चांदनी के बीतें, तब खबर देना।”
“ओह !” और फिर बुढ़िया दूसरे दिन डरती-डरती जब राजमहल गई तो राजकुमारी ने उसके साथ बड़ा ही मधुर व्यवहार किया । बुढ़िया का सारा डर जाता रहा और अब कहीं जाकर उसे विश्वास हुआ कि राजकुमारी ने सचमुच ही इस प्रकार अपना संदेश भेजा था ।
पांच दिन गुजर गए । छठे दिन जब बुढ़िया महल से लौटी तो उसके गाल पर स्याह सा आधा थप्पड़ छपा था । बुढ़िया ने बताया कि राजकुमारी ने उसे पश्चिमी दरवाजे की ओर धकेल दिया था ।
“मित्र!” रत्नराज ने बताया -“आज आधी रात के बाद महल के पश्चिमी द्वार पर राजकुमारी तुम्हें इन्तजार करती मिलेगी।”
राजकुमार की खुशी का तो ठिकाना ही न रहा । राजकुमारी से मिलने की कल्पना करते ही उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा ।
जैसे-तैसे आधी रात गुजरी और वह किले के पश्चिमी द्वार पर जा पहुंचा । राजकुमारी उसे फौरन महल के भीतर ले गई । अगले दिन जब वह वापस आया तो बड़ा उदास था । रत्नराज को उसे उदास देखकर बड़ी हैरानी हुई । वह कुछ उलझन में पड़ गया और अपने मित्र से पूछा—”क्या बात है मित्र ! अपनी प्रेमिका से मिलकर आने के बाद भी तुम इतने उदास हो जबकि तुम्हें तो खुश होना चाहिए। आखिर बात क्या है ?”
“मित्र ! राजकुमारी मुझसे बेहद प्यार करती है, परन्तु उसका और मेरा विवाह नहीं हो सकता।”
“विवाह नहीं हो सकता ?” रत्नराज चौंका-“यह तुम कैसी बातें कर रहे हो मित्र, जब वह तुम्हें चाहती है और तुम भी उसे चाहते हो, तो भला विवाह में क्या अड़चन है ?’
“उसके पिता ने उसका रिश्ता कहीं और पक्का कर दिया है।”
“ओह ! तो ये बात है।” रत्नराज गहरी सोच में डूब गया और बोला-“तुम मुझे एकाध घंटा सोचने के लिए दो मित्र, मैं तुम्हारे और उसके मिलन की कोई न कोई युक्ति अवश्य ही निकालूंगा । पहले ये बताओ कि अब उसने तुम्हें कब बुलाया है ?”
“कल।”
“ठीक है, कल जाते समय मैं तुम्हें एक युक्ति बताऊंगा।”
राजकुमार का मित्र पूरी रात सोचता रहा और राजकुमार बिस्तर पर पड़ा करवटें बदलता रहा । उसकी आंखों के सामने से एक पल के लिए भी राजकुमारी का चेहरा नहीं हट रहा था । उसका दिल बुरी तरह तड़प रहा था । वह चाहता था कि किसी प्रकार उसके शरीर में पंख उग आएं और वह उड़कर जाए और राजकुमारी को लेकर आसमान में उड़ जाए फिर किसी ऐसी जगह पर छिप जाए जहां कोई भी उन्हें न ढूंढ़ पाए ।
मगर ऐसा सम्भव नहीं था, यह भी वह अच्छी तरह जानता था । अब तो उसे बेसब्री से सवेरा होने का इंतजार था । अगले दिन राजकुमार जाने लगा तो रत्नराज ने उसे एक त्रिशूल देकर कहा – “जब राजकुमारी सो जाए तो तुम उसकी जांघ में त्रिशूल मारकर उसके जेवर उतार लाना ।”
“क्या कह रहे हो मित्र !” ब्रजमुकुट घबराया- “इस प्रकार तो वह घायल…।”
“तुम इन मामूली बातों की चिन्ता मत करो और जैसा मैंने बताया है, वैसा करो।”
राजकुमार ब्रजमुकुट बड़ी कठिनाई से इस कार्य के लिए राजी हुआ । दूसरे दिन उसने अपने मित्र के कहे अनुसार सारा कार्य किया और वापस आ गया । उसके आने के बाद रत्नराज ने योगी का वेश धारण कर लिया तथा राजकुमार को भी वैसा ही वेश धारण करवाकर अपना चेला बना लिया और जंगल में आ, एक कुटी बनाकर वहां धूनी जमा दी । इस कार्य से निपटने के बाद वह राजकुमार से बोला – “जाओ मित्र! राजकुमारी के इन जेवरों को बाजार में बेच आओ।”
“बाजार में बेच आऊं ?” राजकुमार सिटपिटाया – “क्या तुम मुझे मरवाना चाहते हो मित्र! इस प्रकार तो मैं पकड़ा जाऊंगा।”
“यही तो मैं चाहता हूं मित्र कि तुम पकड़े जाओ।” रत्नराज मुस्कराया ।
“क… क्या मतलब ?”
जब राजा के सिपाही मेरे पास आएंगे तो मैं स्वयं निपट लूंगा ।”
“जब तुम पकड़े जाओ, तो साफ-साफ बता देना कि ये जेवर मुझे मेरे गुरु ने दिए हैं । राजकुमार अब सारी बात समझ गया । अब तक जो-जो घटनाएं घटी थी, उन्हें देखकर राजकुमार को अपने मित्र की बुद्धि पर पूरा भरोसा हो गया था कि वह जो कुछ भी कर रहा है, उसके हित के लिए ही कर रहा है । अतः वह जेवर लेकर बाजार में चला गया और एक जौहरी के यहां जाकर जेवर बेचने की इच्छा व्यक्त की ।
वह नगर की सबसे बड़ी दुकान थी और वही जौहरी राजपरिवार के जेवर बनाकर दिया करता था । जौहरी ने उन गहनों को देखते ही सिपाहियों को बुलाकर राजकुमार को गहनों सहित उनके सुपुर्द कर दिया ।
“तुझे यह जेवर कहां से मिले ?”
‘मुझे तो मेरे गुरु ने दिए हैं।”
“कौन है तुम्हारा गुरु ?'” सिपाहियों के बड़े अधिकारी ने पूछा -“कहां है?”
“आप चलिए मेरे साथ ” उसे लेकर सिपाही उसके गुरु के पास पहुंचे और उसे अर्थात मंत्री पुत्र को भी हिरासत में लेकर राजा के समक्ष पेश किया ।
राजा ने पूछा- “तुम्हारे पास ये जेवर कहां से आए ?”
“महाराज!” रत्नराज ने निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया -“उस रात मेरे पास एक चुड़ैल आई थी। मैंने उसकी जांघ में त्रिशूल मारकर ये सभी जेवर उतरवा लिए थे।”
उसकी बात सुनकर राजा आश्चर्य में पड़ गया—”चुड़ैल ?”
“हां महाराज! वह बड़ी ही भयानक थी।”
राजा ने एक गुप्त संदेश रानी के पास भेजा तो वहां से उत्तर आया कि हां, राजकुमारी की जांघ पर एक त्रिशूल का निशान है ।
बस, फिर क्या था ? राजा ने तुरन्त राजकुमारी को देश निकाला दे दिया । राजा के सिपाही उसे जंगल में छोड़ गए ।
राजा ने उन साधुओं को भी छोड़ दिया । राजकुमार तुरन्त वेश बदलकर जंगल की ओर चल दिया । उस घटना से राजकुमारी बड़ी आहत थी ।
राजकुमार ने उसे सब कुछ सच-सच बता दिया कि उसे पाने के लिए ही उसने और उसके दोस ने मिलकर यह नाटक रचा था । सुनकर राजकुमारी बेहद खुश हुई । उसे उसके मन का मीत मिल गया था ।
राजकुमार उसे लेकर अपने राज्य में आ गया और विवाह करके सुखपूर्वक रहने लगा।”
‘‘अब बोलो विक्रमादित्य । ”यहां तक की कहानी सुनाने के बाद बेताल ने पूछा –
विक्रम बेताल के सवाल जवाब
बेताल के सवाल :
“हालांकि राजकुमारी को उसका मनपसंद वर मिल गया । मगर राजकुमारी को किस बात की सजा मिली, वह आरोप तो मिथ्या था । उस आरोप का दोष किस पर है । राजकुमार पर, मंत्री पुत्र पर, सिपाहियों पर, राजा पर ?
राजन ! यदि तुमने जानते-बूझते भी इस प्रश्न का उत्तर न दिया तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।”
राजा विक्रमादित्य के जवाब :
“सुनो बेताल!” राजा विक्रमादित्य ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए कहा – “राजकुमार ने जो कुछ भी किया, प्रेम-मोह में किया । कहते हैं कि मुहब्बत और जंग में सब जायज होता है । मंत्री पुत्र ने जो कुछ भी किया, वह मित्र के लिए किया । सिपाहियों ने अपना कर्तव्य पूरा किया, इसलिए उनका भी कोई दोष नहीं है । मगर हां, राजा ने बिना सोचे-विचारे निर्णय लिया, इसलिए इस प्रकरण का मुख्य दोषी वही है। “
बेताल विक्रमादित्य की न्यायपूर्ण बात सुनकर प्रसन्न हो उठा – “तुम ठीक कहते हो विक्रम! मगर अब मैं चलता हूं । मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि यदि तुम बोलोगे तो मैं वापस चला जाऊंगा। यही मेरी शर्त थी । मैं चला विक्रम… ।” यह कहकर बेताल उसके कंधे से ऊपर उठा और पलटकर उसी वृक्ष की ओर बढ़ने लगा ।
वह तेज गति से हवा में तैरता श्मशान घाट की ओर उड़ा जा रहा था और हाथ में तलवार लिए राजा विक्रमादित्य उसके पीछे-पीछे भाग रहा था-” रुक जाओ बेताल ! रुक जाओ।”
“लौट जाओ विक्रमादित्य ! वापस चले जाओ।” बेताल कह रहा था -“जिसने तुम्हें मुझे लाने के लिए भेजा है, वह ढोंगी है।”
मगर राजा विक्रमादित्य भला कब मानने वाला था । उसने योगी को वचन दिया था और अपने वचन के लिए वह अपनी जान पर भी खेल सकता था ।