वीरांगना वीरमती | Virangana Virmati

वीरांगना वीरमती | Virangana Virmati

“जननी-जन्मभूमि स्वर्गोदपि गरीयसी” का भाव जिसके हृदय में कूट-कूट कर भरा हो, वह जन्मभूमि के लिये अपना सर्वस्व त्यागने में ज़रा भी संकोच नहीं कर सकता, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष । उसका त्याग देश के लिये आदर्श त्याग होगा । वीरमती का भी त्याग उसी प्रकार का है । वह इसी लिये मरकर भी अमर है । उसकी कीत्ति इस भूमणडल पर तब तक चिरस्थायी रहेगी, जब तक सूर्य और चन्द्र प्रकाशमान रहेंगे ।

वीरांगना वीरमती देवगिरि नरेश के प्रधान सेनापति की कन्या थी । इसके पिता एक वींर तेजस्वी सेनापति थे । इनके हृदय में देश प्रेम तथा स्वामिभक्ति का भाव कूट-कूट कर भरा था । इसलिये जब-जब यवनों ने देवगिरि पर आक्रमण किया, तब-तब उन्हें मुँह की खानीं पड़ी । इनका लोहा हर कोई मानता था । पर यमराज के सामने वे क्या थे ? उन्होंने इन्हें भी एक दिन सुरलोक बुला लिया ।

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वीरांगना वींरमती अनाथिनी हो गयी । माता पहले ही मर चुकी थी । अब पिता भी चल बसे । उसके चारों ओर अब अन्धेरा-ही-अन्धेरा दिखाई देने लगा परंतु देवगिरि नरेश रामदेव बड़े उदार, दयालु स्वामी थे। वे भला इस अबला को अनाथिनी क्यों होने देते ? वे इसे अपने यहाँ ले गये और अपनी पुत्री के समान मानने लगे । रामदेव के भी गौरी देवी नामकी एक कन्या थी । बालिकाएँ एक साथ खाती, खेलती तथा आनन्द से रहती थीं । धीरे-धीरे दोनों में प्रगाढ़ प्रेम हो गया ।

कुछ दिनों बाद गौरी तथा वीरमती दोनों ब्याह के योग्य हो गयीं । गौरी देवी का विवाह एक योग्य वर के साथ कर दिया गया । वीरमती का भी विवाह सम्बन्ध एक वीर मराठा सरदार कृष्णराव के साथ, जो उसी दरबार का एक सुन्दर युवक था, तय हो गया । वीरमती जैसा वीर, रूपवान तथा गुणवान वर चाहती थी, उसे स्वामी भी वैसा ही मिला । वह इस सम्बन्ध से बहुत प्रसन्न हुई ।

कुछ काल बाद, अलाउद्दीन ने देवगिरि पर चढ़ाई की । दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। पर फल कुछ न निकला । न तो दिल्लीश्वर ही देवगिरि का दुर्ग दखल कर सके और न देवगिरि-नरेश ही अलाउद्दीन को पराजित कर सके । अलाउद्दीन को इसका बड़ा दुख हुआ । उन्होंने अब कूटनीति का ही सहारा लेना उचित समझा । उन्होंने कृष्णराव को अपनी ओर मिलाया और सेना को लौटने की आज्ञा दी । देवगिरि नरेश अलाउद्दीन को लौटते देख, बहुत प्रसन्न हुए । सभी जगह प्रसन्नता मनायी जाने लगी । जब हिन्दू-सेना उत्सव आदि मनाने में लगी थी, तब अलाउद्दीन बड़ी तैयारी से देवगिरि के चारों ओर मोर्चाबन्दी कर रहा था । अलाउद्दीन की इस चढ़ाई को सुनकर रामदेव बढ़े चिन्तित हुए । उन्होंने एक दरबार किया, जिसमें राज्य के सभी प्रधान कर्मचारीगण सम्मिलित हुए। रामदेव ने सभी से अलाउद्दीन की कपटनीति का बदला लेने का उपाय पूछा ।

कृष्णराव के हृदय में बहुत दिनों से देवगिरि के राज्य-सिंहासन पर बैठने की प्रबल इच्छा थी । इसलिये वह अपनी मनोकामना को पूर्ण करने की ताक में लगा था । सबने अपनी-अपनी सुझाव दिए; पर कृष्णराव ने सर्वप्रथम किसी गुप्तचर को भेज कर शत्रु का भेद लेने का ही परामर्श दिया । यह विचार सबने स्वीकार किया और कृष्णराव पर ही यह भार सौंपा गया । कृष्णराव अपनी मनोकामना की सिद्धि का अच्छा अवसर देख, मन-ही-मन प्रसन्न होता हुआ शत्रु सेना में जा मिलने की तैयारी करने लगा ।

वीरांगना वींरमती कृष्णराव के मन के भाव को पहले से ही ताड़ गयी थीं । इसलिये इतनी प्रसन्नता से उसे तैयार होते देख, वीरमती के हृदय में सन्देह उत्पन्न हो गया । उसने भावी पति को रोकने का भरसक प्रयन्न किया, पर सब निष्फल गया । वीरमती का सन्देह बढ़ गया और जब कृष्णराव तैयार होकर घर से निकल गये; तब वीरमती ने भी पुरुष-वेश धारण कर तलवार कमर में बाँध, घोड़े पर सवार हो, अपने भावी पति का अनुसरण किया ।

जब कृष्णराव एक घने जंगल में गए और घोड़े से उतर कर किसी से वार्तालाप करने लगे, तब वींरमती भी खड़ी होकर उनकी बातचीत चुपचाप सुनने लगी । उसने जो कुछ सुना, उससे वह अवाक् रह गयी । उस अपरिचित ने कहा – “बेशक, जब आप हमारे शाहन्शाह की इस तरह मदद करेगे, तब आपकी मुराद ज़रूर ही पूरी होगी। आप ज़रूर ही देवगिरि के सूबेदार मुक़र्रर किये जायेंगे ।”

वीरमती का अविश्वास यह सुनकर दृढ़ हो गया । वह अब अपने कर्तव्यत्ता पर विचार करने लगी । यदि वह कृष्णराव को पथभ्रष्ट होने से नहीं रोकती, तो देश ध्वंस होता और यदि उसे रोकती है, तो भावींपति के सर्वनाश का वही कारण होती है ! अतः अब वह दुविधा में पड़ गयी; पर उसने एक क्षण में अपने कर्तव्य का निबटारा कर लिया । क्रोध के मारे उसका शरीर कॉपने लगा । आंखें लाल हो गयी । वींरमती ने अपने हाथ में तलवार को मज़बूती से पकड़ा और एक ही झपट्टे में कृष्णराव का काम तमाम कर दिया । कृष्णराव मरते-मरते क्षीण स्वर में बोले,-“प्रिये ! मैं निस्सन्देह पापी हूँ । मैंने ठीक अपने स्वामी तथा देश के साथ द्रोह किया है । मैं इसका प्रतिफल भी पा रहा हूँ। प्रिये ! अब मुझे क्षमा करो।”

यह भीषण घटना देखकर वह पठान सैनिक उसी समय भाग गया । वीरांगना वींरमती कृष्णराव को तड़पते देख, दुखित होकर बोली,-“प्राणनाथ ! मुझे खेद है, कि आपकी हत्या मेरे हाथ से ही लिखी थीं। मैं जानती हूँ, कि मैंने अपने धर्म का पालन-मात्र किया है; आपको नर्क में जाने से रोका है और आपको देश-द्रोही होने से बचाया है, मैंने जो कुछ किया है, वह अपनी समझसे ठीक ही किया है, पर आपके बिना अब मेरा इस संसार में जीना निरर्थक है । आप मेरे पूज्य है। मैने आप पर यह हृदय निछावर कर दिया है; इसलिये अब मैं भी आपकी संगिनी होती हूँ ।”

यह कहती हुई वीरमती ने उसी खून से भरी तलवार को अपने हृदय में उतार लिया ।

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