गुरजाडा अप्पाराव | गुरजाड अप्पाराव | Gurajada Apparao
गुरजाडा अप्पाराव ने अपनी काव्य-वीणा में देशभक्ति के विभिन्न स्वरों को झंकृत किया था, वह तेलुगु के राष्ट्रीय कवियों के सिरमौर माने जाते हैं। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। वह प्रसिद्ध नाटककार और कुशल कहानी-लेखक तो थे ही, एक प्रौढ़ आलोचक और निषुण पत्र-लेखक भी थे इतना ही नहीं, इतिहास के शोध का उन्हें बड़ा शौक था। उन्होंने अपनी कृतियों के द्वारा साहित्य व समाज को एक नया पथ दिखाया था। वह सच्चे देशभक्त और बहुत बड़े समाज सुधारक थे।
गुरजाडा अप्पाराव का जन्म
गुरजाडा अप्पाराव का जन्म ३० सितंबर १८६१ को आंध्र राज्य के विशाखापत्तनम जिले के रायवरम नामक गाँव हुआ था। उनके पूर्वज विद्वान व नामी थे उनके परदादा, फ्रेंच लोगों के यहा दुभाषिये का काम करते थे। गुरजाडा के पिता का नाम वेंकटरामदास और माता का नाम कोसल्यम्मा था। वेंकटरामदास संस्कृत व तेलुगु के पंडित थे तथा वेदांत और ज्योतिषशास्त्र में पारंगत थे। भिन्न-भिन्न पदों पर उन्होंने कई साल तक विजयनगरम रियासत की सेवा की थी। गुरजाडा का बचपन अधिकतर विजयनगरम के आसपास के गांवों में ही बीता था।
गुरजाडा अप्पाराव की शिक्षा
दस साल की उम्र तक उन्होंने घर पर ही संस्कृत, तेलुगु व अंग्रेज़ी की प्रारंभिक शिक्षा पाई। १८७१ में वह विजयनगरम की माध्यमिक पाठशाला में भर्ती हुए। वह बड़े परिश्रमी और विनयशील विद्यार्थी थे | चौड़ा भाल, विशाल नेत्र, लंबी मूंछें और लंबी नाक-ये सब उनके चेहरे की चमक को बढ़ाते थे।
वह दिल के बड़े पक्के थे, किंतु शरीर के बड़े कमजोर। सिर पर पगड़ी बांधते थे। गर्मी के दिनों में भी दो कोट पहनते थे। पैरों में मोजे पहनते थे। पढना-लिखना ही उनका शौक था | वह अक्सर कहा करते थे कि भावना मेरा बल है और कल्पना मेरा मनोरंजन है। विद्यार्थी अवस्था में उन्होंने “कोयल” नामक एक गीत अंग्रेजी में लिखा था। वह गीत लोगों को बड़ा पसंद आया। उसके कारण विजयनगरम के तत्कालीन महाराजा आनंद गजपति का ध्यान गुरजाडा की ओर आकर्षित हुआ। महाराजा से प्रोत्साहन पाकर गुरजाडा के हौसले बढ़ गए। मैट्रिक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने के बाद वह महाराजा कॉलेज में भर्ती हुए। संस्कृत और तत्वशास्त्र उनके प्रिय विषय थे। वकील बनने की उनकी बड़ी अभिलाषा थी परंतु उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी। कुछ दिन तक २५ रुपये मासिक पर उन्होंने अध्यापक का काम किया। वेतन कम होने के कारण थोड़े ही दिनों में उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। उन्हीं दिनों उन्होंने “सारंगधर” नाम की एक और कविता अंग्रेज़ी में लिखी थी। वह एक स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित हुई। कविता इतनी अच्छी थी कि वह कलकत्ते से निकलने वाली एक और पत्रिका में पुनः मुद्रित हुई।
पत्रिका के संपादक की गुरजाडा अप्पाराव के संबंध में यह राय थी कि – “कवि की कल्पना प्रशंसनीय है। उनका भविष्य उज्ज्वल है, पर उनके सामने कांटों का रास्ता है। आशा है, आत्मविश्वास के साथ विकास के पथ पर वह बढ़ सकेंगे।“
गुरजाडा अप्पाराव के कार्य
यह वह समय था जबकि देश पराधीन था। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश भर में आंदोलन चल रहा था। विदेशी सरकार जनता के प्रयासों को कुचल देती थी। इस तरह राजनीतिक क्षेत्र में एक संघर्ष चल रहा था। समाज में जात-पात, वृद्ध विवाह, बाल विवाह, रिश्वतखोरी आदि अनेक करीतियां प्रचलित थीं। हरिजनों की हालत बड़ी दयनीय थी। देहातों से दूर उनकी बस्ती होती। ऊंची जाति वालों की गलियों से होकर वे चल नहीं सकते थे। लोग प्रायः अशिक्षित थे, स्त्रियों को कोई पढ़ाता ही नहीं था। उस समय आंध्र के शिक्षित वर्ग में ब्रह्मसमाज के सिद्धांतों का बड़ा प्रचार हो रहा था। वीरेशलिंगमके प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज सुधार की लहर दौड़ चली। साहित्य के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा विवाद चल रहा था बोलचाल की भाषा को, जिसे आंध्र में व्यावहारिक भाषा कहा जाता है, गंवारू कह कर पंडितों ने ठुकरा दिया था। ऐसे समय गिड्गु राममूर्ति पतुलु ने, जो गुरजाडा के सहपाठी थे, व्यावहारिक भाषा को साहित्यिक मान्यता दिलाने के लिए एक जबरदस्त आंदोलन चलाया था।
गुरजाडा के मन पर इन सब आंदोलनों का प्रभाव पड़ा। १८९६ में उन्होंने “कन्याशुल्क” नामक एक नाटक लिखा, जो उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है। नाटक के प्रारंभ में उन्होंने लिखा कि समाज सुधार के आंदोलन को बल देने और यह साबित करने के लिए कि तेलुगु भाषा भी नाटक की रचना के लिए उपयुक्त है, मैने यह रचना की है। “कन्याशुल्क” में उस समय के समाज की परछाई है। उसके पात्र इतने सजीव है कि वे आज भी चलते-फिरते दिखाई देते हैं। इस रचना के बाद अप्पारावजी का स्वास्थ्य गिरता गया। उन्होंने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी। वह विजयनगरम रियासत के शिलालेख अधीक्षक के पद पर नियुक्त हुए। अब उन्हें देश-विदेश के इतिहास के शोध करने का बड़ा मौका मिला। उन्होंने “कलिंग के इतिहास” पर एक ग्रंथ लिखना प्रारंभ किया।
ग्रंथ के प्रकाशक “’विज्ञान चंद्रिका ग्रंथ मंडली” ने उसे ग्रंथिक (पंडिताऊ) भाषा में ही लिखने का उनसे अनुरोध किया था। प्रकाशकों का यह आग्रह गुरजाडा को पसंद नहीं आया और उन्होंने जवाब में लिखा – “मेरा आंदोलन जनता का आंदोलन है, दूसरों को खुश करने के लिए मैं उसे छोड़ नहीं सकता।“ सचमुच वह बड़े निर्भीक साहित्यिक थे। उन्होंने अपनी रचना बोलचाल की व्यावहारिक भाषा में ही लिखी।
गुरजाडा ओजस्वी कवि थे। उनकी राष्ट्रीयता गहरी व व्यापक थी। वह जात-पात, धर्म व प्रांत की दीवारों को तोड़कर बह चली। उनकी दृष्टि केवल ऊंचे हिमशिखरों, कलकल करती नदियों और कुंजवनों की ओर ही नहीं, बल्कि देश की रीढ़ देश की जनता की ओर गई।
गुरजाडा की कविताओं के कई संग्रह प्रकाशित हुए। अपनी कविताओं में कवि ने जात-पात, वर्ण-भेद आदि कुप्रथाओं का खंडन किया है।
गुरजाडा एक प्रगतिशील व्यक्ति थे। धर्म के आडंबरों पर उन्हें विश्वास नहीं था। वह जब-तब कांग्रेस द्वारा आयोजित आम सभाओं में भाषण देते रहते थे, लेकिन उन्होंने अपने दृष्टिकोण को कभी संकुचित नहीं होने दिया। इसका कारण यह था कि वह सत्य के सच्चे अन्वेषी थे। धर्म का मूल वह ज्ञान को मानते थे, बाहरी आडंबर को नहीं। धर्म के संबंध में उनके अनमोल वचन, अपने ढंग के अनोखे हैं। वह कहते हैं – “सारे धर्म अस्त, बस ज्ञान का दिया जलता रहेगा।“
गुरजाडा शांति-प्रेमी और युद्ध-विरोधी कवि थे। १९१४ के प्रथम महायुद्ध की विभीषिकाओं को देख कर गुरजाडा का हृदय चीख उठा था। उसी समय उन्होंने कहा था कि मानवजाति को युद्ध का त्याग कर देना चाहिए। भीषण नरसंहार से विचलित होकर उन्होंने कहा कि जिन लोगों की जानें गई है, उनके हाड़-मांस पर शांति के नये अंकुर उग आएं। वह एक युग-दृष्टा कवि थे। आने वाले युग की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा था कि सारी दुनिया एक होकर युद्ध को मौत के घाट उतार देगी।
गुरजाडा की कविताएं देश और जाति को नई चेतना व जागृति देती रहेंगी। उनकी “देशभक्ति” नाम की कविता अत्यंत लोकप्रिय और हृदयग्राही है। उनकी कहानियां भी अपने ढंग की अनोखी हैं। गुरजाडा ने विविध विषयों पर आलोचनात्मक गुरजाडा निबंध भी लिखे हैं। उनके लेखों में काव्य में श्रृंगार रस, बंगीय साहित्य परिषद्, बंकिम की उपन्यास कला, कन्नड़ व्याकरण, ग्राम्य भाषा और बोलियां आदि मशहूर है। १९१२ में कलकत्ता में विश्वकवि रवींद्र से भी भेंट हुई थी। वे एक-दूसरे से प्रभावित हुए और उन दोनों के बीच पत्र-व्यवहार भी हुआ।
गुरजाडा अप्पाराव की मृत्यु
गुरजाडा अप्पाराव जब तक जीवित रहे, तब तक समाज व साहित्य की उन्नति के लिए प्रयत्न करते रहे। उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा प्रगतिशील शक्तियों और प्रवृत्तियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
इस महान साहित्यकार का ३० नवंबर १९१५ को देहांत हुआ। तेलुगु साहित्य उनका सदा ऋणी रहेगा।