रमाबाई रानडे गोबिन्द रानडे की पत्नी थीं ।
इस महापुरुष की पत्नी होने के कारण रमाबाई रानडे
को उन्नति करने की सुविधाएं सहज में ही सुलभ हो सकीं। इसमें कोई संदेह नहीं
है कि रमाबाई को अपने पति की प्रेरणा से आगे बढ़ने का प्रोत्साहन बराबर मिलता रहा।
यदि हम उस समय की सामाजिक स्थिति को समझें तो हमें पता चलेगा कि तब स्त्रियों
की हालत बहुत शोचनीय थी। छुआ-छूत, पर्दा, बाल-विवाह-इन
सब सामाजिक कुरीतियों ने उन्हें जकड़ रखा था। ऐसे प्रतिकूल वातावरण
में आगे बढ़ने की चेष्टा करने का परिणाम यह
हुआ कि रमाबाई को अपने परिवार और समाज के दकियानूसी विचारों से बड़ी जबर्दस्त टक्कर
लेनी पड़ी।
रमाबाई रानडे का जन्म सतारा जिले में एक
ब्राह्मण घराने में हुआ था। वह बचपन से ही बहुत चतुर और तेज थी। पर उस जमाने में
लड़कियों को कोई पढ़ाता ही न था। अतएव रमाबाई की शिक्षा कुछ भी नहीं हो पाई।
अभी रमाबाई की उम्र बहुत कम थी कि उनके पिता माधोराव अप्पा साहेब उनकी शादी
की बातचीत
पूना आकर पक्की कर गए। १८७३ में उनका विवाह गोविन्द
रानडे से हो गया। उस समय रमाबाई की उम्र केवल 11
वर्ष की थी । यह विवाह बड़ी प्रतिकूल परिस्थितियों में हुआ था। बात ऐसी थी कि
विवाह से एक मास पूर्व गोविन्द रानडे की पहली पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था और वह
ब्याह
कराने के लिए राजी न थे। उनके पिता को यह शंका बनी हुई थी कि रानडे प्रगतिवादी
विचारों का है, वह समाज सुधारक भी है, ऐसा
न हो कि कहों भविष्य में वह किसी विधवा से विवाह कर ले। इसलिए उन्होंने
पुत्र पर बहुत जोर डाल कर उसका विवाह रमाबाई से करवा दिया। विवाह के समय गोविन्द
रानडे की आयु ३२ वर्ष की थी | ग्यारह वर्ष की अल्प आयु की रमाबाई को अपने पति की मन:स्थिति
समझते देर नहीं लगी।
रमाबाई की इस उदारता और समझदारी के कारण उनका
वैवाहिक जीवन
बहुत सुंदर, सुखद और सफल रहा। गोबिन्द रानडे
अपनी पत्नी की समझदारी से बहुत प्रभावित थे।
उन्होंने रमाबाई की पढ़ाई में उत्सुकता देख
कर उन्हें मराठी और अंग्रेजी सिखाई। प्रति- दिन शाम को दो घंटे वह पत्नी को
पढ़ाते।
परंतु संयुक्त पारिवारिक जीवन में उन्हें काफी
असुविधाएं और आलोचना सहनी पड़ी। उनके परिवार में आठ-दस महिलाएं और थो जो छुआछूत
में बहुत विश्वास रखती थी। स्त्री-शिक्षा की वे कट्टर विरोधी थी
रमाबाई यदि किसी अन्य जाति के समाज में जातीं तो शुद्धि के लिए उन्हें अपने अहाते
के कुएं से पानी खींच कर दिन में कई बार नहाना पड़ता। ऐसा करने से वह कई बार बीमार
भी पड़ गई। पढ़ाई-लिखाई में वह दिलचस्पी लेती
थीं। इसलिए भी परिवार की महिलाएं उन्हें जली-कटी सुनातीं, उन्हें
परेशान करती। रमाबाई की यह इच्छा थी कि पूना में लड़कियों के लिए एक हाई स्कूल
खोला जाए। इसलिए एक सभा की गई जिसमें रमाबाई ने अंग्रेजी में भाषण पढ़ा। इस भाषण
की विरोधियों ने कटु आलोचना की। पर गोविन्द रानडे ने अपनी पल्नी का जोरदार समर्थन
किया।
लोकमान्य तिलक तक ने उस समय पुना में
लड़कियों का स्कूल खोले जाने का विरोध किया था। उनका कहना था कि ऐसे स्कूल की
शिक्षा हमारे नारी समाज के लिए हानिकारक सिद्ध
होगी, रमाबाई
को और उनके साथ काम करने वाली कुछ अन्य स्त्रियों को इस तरह की भावना के विरोध में
काम करना पडा। रानडे के सुयोग्य संरक्षण और मार्गदर्शन में उनकी शक्तियां बराबर
विकसित होती गई।
१८७५ में रमाबाई अपने पति के साथ पहली बार
नासिक आईं जहां उन्होंने अपनी नई-नई गृहस्थी जमाई। रमाबाई ने पूना में महिला सेवा
सदन की नींव डाली और धोरे-धीरे बम्बई राज्य में उसकी शाखाएं फैल गई। इस संस्था के
द्वारा रमाबाई ने महिलाओं को पढ़ने-लिखने, अच्छी
गृहिणी बनने और सामाजिक प्रगति करने का मौका दिया और दलित स्त्रियों को ऊपर उठाया, उनको
उपयोगी जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। रमाबाई ने सेना सदन की नीव रखी और
मेडिकल एसोसिएशन की शाखाएं भी खोलीं। यहां पर उच्च जाति की विधवाएं और कन्याएं सेवा
करती थीं।
रमाबाई का कहना था कि हमारा यह जीवन एक अमानत
है,
बहुमूल्य निधि है, अत्याचारों
का शिकार बन कर फेंक देने की चीज नहीं है। विधवाओं, दुखियों, बीमारों, गरीबों
आदि सभी के लिए मानों रमाबाई का नाम प्रेरणा का स्त्रोत बना हुआ था। उनके सहारे कई
अनाथ को उपयोगी जीवन बिताने का अवसर मिला। शोषित और पिछड़ी हुई महिलाएं
आत्मविश्वास के साथ आगे आई।
महिलाओं को मतदान का अधिकार देने का आंदोलन
उन दिनों शुरू हुआ था। उन्होंने इस आंदोलन में प्राण फूंक दिए। उस समय की
कार्यकारिणी सभा के सदस्य सर एच०लारेन्स ने कहा था कि जिस कौसिल
की श्रीमती रमाबाई मेम्बर हैं उसमें काम करना मैं अपना सौभाग्य समझता हूं।
जहां कहीं जब कभी जनता की सेवा करने का मौका
मिला,
रमाबाई हमेशा आगे रहीं। एक बार एक तीर्थस्थान
में वार्षिक मेला हुआ हजारों की संख्या में वहां महिलाएं आईं। पूना म्युनिसिपैलिटी
ने रमाबाई जी से महिला-यात्रियों
की व्यवस्था करने का अनुरोध किया। यद्यपि उन दिनों रमाबाई का स्वास्थ्य अच्छा न था
पर वह अपनी स्वयंसेविकाओं को लेकर वहां पहुंच गईं और मंदिर के अहाते में अपना
कैम्प लगा कर महिला यात्रियों की सुख- सुविधा का पूरा-पूरा इंतजाम किया। दीन-दुखियों
को उन पर बड़ा विश्वास था। वे उनकी सेवा और सच्चाई पर बहुत
भरोसा रखते थे।
एक बार १९०० में रमाबाई बीमार हुई और उन्हें
एक बड़े आपरेशन के लिए अस्पताल में दाखिल किया गया उस समय भी अपनी तकलीफ़ भूल कर
उन्हें अपने पति
की चिंता थी कि मेरी गैरहाजिरी में उनकी सार-संभाल कौन करेगा इसमें कोई संदेह नहीं
कि गोविन्द रानडे अपने व्यक्तिगत सुख सुविधायों के लिए अपनी पतली पर पूर्ण रूप से
निर्भर रहते थे। सामाजिक जीवन इतना व्यस्त होते हुए भी वह घर की व्यवस्था
और खर्च सब सुगृहिणो
की तरह बहुत ही सुचारु रूप से करती थीं।
१९०१ में रानडे का देहांत हो गया पर रानडे के
२७ वर्ष साथ के कारण रमाबाई के हृदय में एक ऐसी ज्योति जल चुकी थी जो किसी भी दुःख
की आंधी में बुझने वाली नहीं थी। एक वर्ष के शोक काल के बाद मानो उनका पुनर्जन्म
हुआ। रमाबाई
रानडे ने अपना नया जीवन दुःख और कष्टो से पीड़ित नारी समाज की सेवा में लगा दिया।
अपने पति की मृत्यु के बाद रमाबाई २० वर्ष और जीवित रहीं, पर
उन्होंने व्यक्तिगत दुख को भूलकर स्वयं को समाज सेवा में लगा दिया। उनके जीवत से
अन्य महिलाओं को बहुत प्रेरणा मिली। रमाबाई ने उच्च जाति की विधवाओं, अनाथ
महिलाओं,
भूलो भटकी स्त्रियों आदि की सेवावृत्ति को
उभार कर समाज सेंविकाओं का एक समूह तैयार किया और इस प्रकार दुखी महिलाओं को
उपयोगी जीवन बिताने की राह दिखाई।
रमाबाई सफल लेखिका भी थीं। अपनी जीवनकथा
और जीवन
संस्मरण भी उन्होंने बहुत सरल रोचक शैली में लिखे हैं। उनकी पुस्तकें मराठी
साहित्य में अच्छा स्थान रखती हैं।
१९२४ में उनका स्वर्गवास हुआ। सारे देश ने
उनके निधन
पर शोक मनाया ।